मनीष सिंह जजिया, इस्लामी शासन के दौरान, हिन्दुओ पर होने वाले अत्याचार का प्रतीक है। हिन्दुओ को जिंदा रहने के लिए जजिया देना पड़ता था। जजिया लगाने वाले शासक बुरे थे, उदाहरण के लिए औरँगजेब… यह आपने अब तक जाना, और माना है। मगर इससे पहले कि इसी रटी-रटाई धारणा, और हिन्दू होने की आत्मदया के साथ मर जाएं…, इस पोस्ट को पढ़ लेना जरूरी है।
कोई भी शासन प्रणाली टैक्स आधारित होती है। भू भाटक, पथकर और चुंगी भारत के टैक्स सिस्टम मे मौर्य युग से चले आ रहे थे। जयचंद और पृथ्वीराज के झगड़े में गौरी का फायदा हुआ, वो लड़ाई जीत गया। अपने लोगो को गवर्नर बनाकर चला गया।
आगे का दौर दिल्ली सल्तनत का काल है। उन लोगो ने आगे भारत का शासन अपने सिस्टम से चलाया। पांच किस्म के टैक्स आए थे- खिराज, खिज्र, खम्स, जकात और जजिया पहले दो टैक्स किसान और व्यापारी देते थे। जीएसटी समझ लीजिए, सब पर लागू था। खम्स- लूट का माल था। लूटपाट स्टेंडर्ड प्रेक्टिस थी। छोटे छोटे राज्य थे, सेना पर्मानेंट, सैलरीड नही थी। आप किसान भी थे, सुल्तान की कॉल आने पर अपना भाला उठाकर लडऩे भी जाते थे। तो लडऩे के दौरान भत्ते मिलते, और लूटपाट में हिस्सा भी। बाकायदा सिस्टम था। लूट में 80 प्रतिशत आपका (सेना का), 20 प्रतिशत राजा (राजकोष) का। यह 20 प्रतिशत ही खम्स था। यह मत सोचिये की लूटपाट के केवल मुस्लिम राजा करते थे। इंद्र द्वारा अनार्यों को गायें और धन लूटकर लाने के किस्से ऋग्वेद में हैं।मराठे तो बेसिकली लूट की आदत से ही अलोकप्रिय रहे, और तीसरे पानीपत में उनको दूसरे भारतीयों का साथ याने एलायंस नही मिला। तो अच्छा बुरा जज मत करें। बल्कि मुस्लिम शासकों में अच्छी बात यह थी, की लूट की बंदरबाट नही होती थी, कम से कम उंसके बंटवारे का एक सिस्टम था।
बचा जकात और जजिया। ये धार्मिक कर थे। जकात मुसलमान देते। सरकार जकात का पैसा, मस्जिद बनाने, इमामों की तनख्वाहें, मदरसे आदि चलाने में लगातीा। यह पैसा सरकार टैक्स के रूप में वसूलती, धार्मिक पर्पज में लगाती। यह शायद संपत्ति का 2.5 प्रतिशत था। जजिया का पैसा गैर मुस्लिम देते। जजिया की दर, जनता की फाइनांशियल हालत के आधार पर तय होती। समय समय पर बदलती रहती। एक दौर में यह 48-24-12 दिहरम था। याने धनवान 48 दिहरम, कम धनवान 24 दिहरम, साधारण लोग 12 दिहरम, वार्षिक देते। आयविहीन, अपंग, औरत, बच्चे, पुरोहित याने की ब्राम्हण जजिया से एग्जेम्प्टेड थे (पॉइंट टू बी नोटेड) जजिया क्यों देते थे??
इसलिए कि हिंदू को युद्ध के समय लडऩे के लिए सुल्तान की कॉल नही आती थी। इसलिए कि सुल्तान बाबू, जब लड़ते, तो अमूमन लोकल राजाओं के विरुद्ध ही लड़ते, जो हिंदू थे। तो अपनी फ़ौज में वे हिंदू कैसे रखते।
यह एक तरह से सुल्तान की, याने देश की सेवा में कमी थी, जजिया से वह कम्पसेट होता था। जजिया देकर, आपको सुल्तान की सेना में जाकर जान जोखिम में डालने, और पड़ोसी हिंदू राजा से लडने के धर्मसंकट से मुक्ति मिल जाती थी। दोनों पक्षो के लिए एक कनवेनिएंट अरेंजमेंट था। एक धारणा है कि जजिया से बचने के लिए लोग कन्वर्ट हो गए, मुसलमान बन गए। गलत है, मुसलमान बनने के कारण कुछ भी रहे हो, टैक्स नही हो सकता। जजिया सस्ता था, जकात महंगा पड़ता। ऐसे मे कोई टैक्स बचाने के लिए धर्म बदलकर मुस्लिम बन गया, तो उल्टे नुकसान मे रहता। जजिया, लेकिन अलग ही प्रोपगंडा का शिकार होता गया, आज ही नही, तब भी। इसे गैर मुस्लिम पर अत्याचार के रूप मे देखा जाने लगा तो अकबर ने जजिया हटा लिया । यह उसकी लोकप्रियता का बड़ा कारण था। मगर यह भी नोटिस किया जाए, की तब हिन्दू बढ़चढक़र सल्तनत के लिए सेना में भर्ती होकर लडऩे भी लगे थे। अगर सुल्तान का आप पर फेथ है, तो आप सेना जॉइन कर सकते थे, और वैसे भी जजिया एग्जेम्प्ट हो जाता है।
धर्म आधारित टैक्स, आज मॉर्डन युग मे गलत माने जाते है। जजिया बन्द हो गया है, मगर जकात कई देशों में लागू है। लोग खुशी से देते हैं। भारत मे बहुत से मुसलमान, आज भी कमाई में जकात अलग कर देते हैं, गरीबो में, या धार्मिक पर्पज में दान कर देते है।
इधर गुजरात रेजिमेंट नही है, मगर वहां से कोई जजिया नही देता। (सॉरी, रॉन्ग कमेंट) तो इतिहास में किसी भी चीज को टोटेलिटी में जानिए, समझिये। बिट्स एंड पीसेज में सुनी सुनाई बातों में धारणा मत बनाइये। इसलिए कि इस टुकड़े टुकड़े सोच से, इतिहास तो बनने बदलने वाला नही … इ सब तूचियापे मे हमारा भविष्य जरूर बिगड़ता दिखाई दे रहा है