जानलेवा बनता जा रहा है प्रदूषण

जानलेवा बनता जा रहा है प्रदूषण
November 13 10:55 2022

ठोस उपाय करने के बजाय भ्रमित करने में जुटी सरकार

फरीदाबाद (म.मो.) पूंजीवादी व्यवस्था ने अधिकाधिक मुनाफा बढ़ाने की हवस में समूचे पर्यावरण को घातक स्तर पर ला खड़ा किया है। वायु, जल तथा ध्वनि, सभी ओर से पर्यावरण का विनाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। सांस लेने को शुद्ध वायु तथा पीने को शुद्ध जल तक नहीं बचा।

वायु प्रदूषण के लिये सारा दोष, समाज के सबसे कमजोर वर्ग यानी किसान पर थोपा जा रहा है। किसान द्वारा पराली जलाने की मजबूरी पर फिलहाल बात न भी की जाय तो भी यह समझ लेना जरूरी है कि वायु प्रदूषण में इसका योगदान 20 प्रतिशत से भी कम रहता है और वह भी मात्र तीन सप्ताह के लिये। इसके बावजूद सारा दोष किसान के सिर मढ़ कर उसके चालान करके भारी जुर्माने वसूले जा रहे हैं।

वायु प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान पेट्रोल, डीजल चालित वाहनों का रहता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यह योगदान 40-45 प्रतिशत माना गया है। अकेले दिल्ली शहर में एक करोड़ से अधिक वाहन पंजीकृत हैं। इसी तरह गाजियाबाद, $फरीदाबाद, गुडग़ाव, नोएडा आदि शहरों में भी वाहनों की संख्या लाखों में तो है ही, इसमें हर रोज हजारों वाहन और जुड़ते जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का आभाव है। यदि यह संतोष जनक एवं सुखद हो तो लोग निजी वाहनों का इस्तेमाल नहीं करते। अकेले दिल्ली में ही कुल आवश्यकता की मात्र एक चौथाई बसें ही चल रही हैं, वे भी बिजली की बजाय डीजल से।

इसी तरह एनसीआर के तमाम उक्त शहरों में भी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बहुत ही दीन हीन अवस्था में है। $फरीदाबाद-गुडग़ाव के बीच प्रति दिन हजारों कारें तथा दोपहिया का इस्तेमाल करने को लोग इसलिये मजबूर हैं क्योंकि कोई भरोसेमंद सार्वजनिक साधन उपलब्ध नहीं है। गिनती की जो थोड़ी-बहुत बसें चलती भी हैं उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

सार्वजनिक वाहनों को लेकर इन शहरों की अंदरूनी स्थिति भी अच्छी नहीं है। बीते बीसियों साल से इसे सुधारने के लिये करोड़ों-अरबों रुपयों की लोकल बसें सरकार द्वारा खरीद कर कबाड़ा बनाई जा चुकी है। पहले हुड्डा सरकार ने 200 बसें फरीदाबाद के लिये और इतनी ही गुडग़ांव के लिये खरीदी थी, अब वही काम खट्टर सरकार कर रही है। इसके बावजूद जनता का एकमात्र सहारा प्रदूषण फैलाने वाले ऑटो-रिक्शा रह गये हैं।

आज दुनिया भर के विकसित शहरों में बसें व ट्रेने बिजली से चल रही हैं। लेकिन भारत में आज भी बसें तो बसें अधिकांश ट्रेने भी डीजल से चल कर वायु प्रदूषित कर रही है। ट्रेनों का विद्युतिकरण केवल इसलिये रोका हुआ है ताकि मुकेश अम्बानी का 25 लाख टन डीजल रेलवे खरीदता रहे।

परिवहन लॉबी के दबाव में ही रेलमार्ग तथा रेलों की संख्या नहीं बढऩे दी जा रही। कोरोना महामारी की आड़ में मोदी सरकार ने ट्रेनों का जो परिचालन पूरी तरह समाप्त कर दिया था, व आज भी पूरी तरह नहीं चल पाया। पहले की अपेक्षा आज मात्र आधी ट्रेनें चल रही हैं। दिल्ली फरीदाबाद के बीच पहले ट्रेनों के जो 18 फेरे लगते थे वे अब मात्र 09 लगते हैं। पलवल, बल्लबगढ़, $फरीदाबाद से हर सुबह पांच-छ: बसें फुल होकर चंडीगढ़ को जाती है और इतनी ही शाम को वहां से लौटती है। इसके अलावा सैंकड़ों कारें भी इसी तरह आवागमन करती है। लेकिन सरकार प्रदूषण बचाने के लिये इसके विकल्प के तौर पर एक ट्रेन की व्यवस्था नहीं कर सकी।

दिनांक आठ नवम्बर को पूरा दिन वातावरण में इस कदर धूल व धुआं छाये हुए थे कि सूर्य के दर्षण तक नहीं हो पाये। शहर के पूर्वी छोड़ पर बन रहे बाइपास निर्माण पर ‘ग्रेप’ का कोई नियम लागू नहीं होता इसलिये वहां रात-दिन सडक़ निर्माण का कार्य चल रहा है। इसके चलते वहां से हर समय धूल के गुबार उठते रहते हैं।

लगभग यही स्थिति शहर भर की तमाम टूटी व गड्ढों वाली सडक़ों की बनी हुई है। इनके अलावा सही-सलामत सडक़ों पर भी जाम की स्थिति में जब वाहनों को सडक़ किनारे कच्चे में चलना पड़ता है तो भी बेतहाशा धूल उड़ती है। इससे बचाव के लिये बेशक करोड़ों रुपये के टेंडर पानी छिडक़ाव के लगा रखे हैं, लेकिन वे केवल कागजों तक सीमित हैं।

एनसीआर क्षेत्र के आस-पास किसानी करने वालों से पूछ-ताछ करने पर उन्होंने बताया कि जब से तुड़े का भाव 15-20 रुपये किलो हुआ है तो कौन मूर्ख अपनी पराली जलायेगा? जरूरतमंद लोग पराली का इस्तेमाल पशु चारे के तौर पर कर रहे हैं। इसके बावजूद भी वायु प्रदूषण का दोष गरीब किसानों पर ही मढा जा रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि पराली, लकड़ी व उपलों का धुआं इतना खतरनाक नहीं होता जितना कि पेट्रोलियम व रबड़-प्लास्टिक आदि के जलने से होता है।

ट्रैफिक जाम से बढ़ता प्रदूषण
सडक़ों पर लगने वाले जाम से होने वाले जिस प्रदूषण को आसानी से रोका जा सकता है, उसकी ओर शासन-प्रशासन का कोई ध्यान नहीं है। इस संवाददाता का व्यक्तिगत अनुभव है कि जब वह प्रात: सात बजे सेक्टर 14 से अपनी कार से चल कर आठ किलो मीटर दूर एनएच दो पहुंचते हैं तो केवल 10-12 मिनट लगते हैं। इसके विपरीत शाम को सात बजे लौटते वक्त उसी रास्ते पर 30-35 मिनट लगते हैं। अर्थ स्पष्ट है कि शाम के समय 20-22 मिनट अतिरिक्त कार के इंजन ने अधिक धुआं उगला। इससे समय व पैसा तो बर्बाद हुआ ही वायु प्रदूषण भी अधिक बढ़ा।

यदि सरकार को यह छोटी सी बात समझ में आ जाये तो सडक़ों से ट्रैफिक जाम को हटा कर सामान्य परिचालन को बनाकर कम से कम आधे पैट्रो-धुएं को वायु मंडल में घुलने से बचाया जा सकता है।

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Mazdoor Morcha
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