इतिहास के सांप्रदायीकरण के खिलाफ़

इतिहास के सांप्रदायीकरण के खिलाफ़
November 07 13:25 2022

संजीव कुमार
सांप्रदायिक विचारधारा अपने को सही ठहराने के लिए इतिहास का इस्तेमाल करती है। इतिहास के सांप्रदायीकरण की शुरुआत उपनिवेशीकरण के दौर में हुई जब भारत के इतिहास को साम्राज्यपरस्त अंग्रेज़ विद्वानों ने हिंदू युग, मुस्लिम युग और आधुनिक युग में विभाजित कर देखने की शुरुआत की। औपनिवेशिक शासकों के इतिहास के सांप्रदायीकरण की इस कोशिश को हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादियों ने चुनौती देने के बजाय यथावत स्वीकार कर लिया और यह मान लिया कि हिंदू और मुस्लिम दो भिन्न राष्ट्र हैं जो एक साथ नहीं रह सकते। इसी का नतीजा भारत का विभाजन था। आरएसएस और हिंदू महासभा ने हिंदुओं के सांप्रदायीकरण की मुहिम के लिए इतिहास को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। अपनी इस सांप्रदायिक विचारधारा को सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ नाम दिया था जो आरएसएस की विचारधारा का भी आधार है और इसे वह राष्ट्रवाद की विचारधारा मानता है। इतिहास के सांप्रदायीकरण का उद्देश्य विभिन्न धर्मों, जातियों और संस्कृतियों वाले इस बहुलतावादी देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ में रूपांतरित करना है — एक ऐसे धार्मिक राष्ट्र के रूप में जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिक अधिकारों से वंचित किया जा सकता है और जिसका आधार वह मनुवादी वर्ण-व्यवस्था होगी जो जातिवादी श्रेणीबद्धता में यक़ीन करती है। दरअसल, इतिहास के सांप्रदायीकरण का औचित्य वे ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर साबित करते हैं।

हिंदुत्व की विचारधारा के आधार पर इतिहास को देखने का ही नतीजा है कि वे इतिहास में ऐसे मुद्दों को विशेष तरजीह देते हैं जिनसे यह साबित किया जा सके कि मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं की संपत्ति को लूटा, उनकी स्त्रियों को बेइज्ज़त किया, उनके मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को तोडक़र मस्जिदों का निर्माण किया और तलवार के बल पर उनको धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया। इन बातों को सही ठहराने के लिए उन्होंने इतिहास के तथ्यों के साथ बड़े पैमाने पर छेडख़ानी की, उन्हें अतिरंजित रूप में रखा और झूठी बातों को तथ्य बनाकर जनता के मन में उतारने की कोशिश की। जबकि मध्युगीन इतिहास की सच्चाई यह है कि विभिन्न राजाओं बीच होने वाले संघर्ष धर्म के आधार पर नहीं होते थे। राजा हिंदू हो या मुसलमान उनकी सेना में हिंदू और मुसलमान दोनों होते थे। जिन मुसलमानों को विदेशी कहा जा रहा है, वे दरअसल उन पड़ोसी राज्यों के थे, जहां से लोगों का आना जाना सदियों से चला आ रहा था। राष्ट्र की पूरी संकल्पना एक आधुनिक संकल्पना है। यही नहीं धार्मिक और पौराणिक कथाओं को इतिहास बताकऱ वास्तविक इतिहास से उनको पदस्थापित किया जा रहा है। रामजन्मभूमि आंदोलन एक ऐसा ही आंदोलन था जो इतिहास के तथ्यों पर नहीं बल्कि पूरी तरह से काल्पनिक और गढ़ी गयी बातों पर आधारित था और जिसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति के ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट करने में अहम भूमिका निभायी।

हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताक़तें पिछले आठ साल से सत्ता में हैं और इतिहास के सांप्रदायीकरण की उनकी कोशिशें पहले के किसी भी समय से ज़्यादा तीव्रता और उग्रता से जारी हैं। इसके लिए इतिहास की पुस्तकों का बड़े पैमाने पर पुनर्लेखन हो रहा है। पाठ्यपुस्तकों को भी सांप्रदायिक नज़रिये से लिखवाया जा रहा है और ऐसी फि़ल्मों और टीवी धारावाहिकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है जिनमें हिंदुत्ववादी नज़रिये से इतिहास को पेश किया गया हो। उन पुस्तकों को जिनमें इतिहास को वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पेश किया गया हो, उन्हें जनता तक पहुंचने से रोका जा रहा है। इतिहास के तोड़-मरोड़ की उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि पिछले आठ सालों में एक बार फिर से मंदिर-मस्जिद के विवाद खड़े किये जा रहे हैं। वाराणसी ओर मथुरा सहित कई धर्मस्थलों को हिंदुत्ववादी ताक़तें अपनी सांप्रदायिक मुहिम के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही हैं।

इस तरह मौजूदा सांप्रदायिक फ़ासीवादी सरकार के संरक्षण और प्रोत्साहन में चलायी जा रही इतिहास के सांप्रदायीकरण की यह मुहिम जनता के बीच पहले से जारी फूट को और उग्र और हिंसक बनाने में उत्प्रेरक का काम कर रही है, देश को एकजुट बनाये रखने के लिए जिसे रोका जाना ज़रूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच सद्भाव और सौहार्द बना रहे। जनवादी लेखक संघ का यह दसवां राष्ट्रीय सम्मेलन इतिहास के सांप्रदायीकरण की इस मुहिम की घोर निंदा करता है और यह मांग भी करता है कि इतिहास के सांप्रदायीकरण की इस मुहिम को हर हाल में रोका जाना चाहिए। इतिहास लेखन का काम पेशेवर इतिहास लेखकों का है। यह काम उन्हीं पर छोड़ दिया जाना चाहिए और राजसत्ता को इस काम में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह की दख़लंदाज़ी नहीं करनी चाहिए।

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Mazdoor Morcha
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