इन्हें घर घर याद रखना चाहिए था

इन्हें घर घर याद रखना चाहिए था
July 20 12:24 2024

हफीज़ किदवई
वह जो मरहम का दूसरा नाम थीं । उनके काम को जानना है, तो यह जानिए कि जब बंटवारें के वक़्त लड़कियांं ऐसे उठा ली जाती थीं, जैसे चील किसी गोश्त के लोथड़े को छीन ले जाए। लड़कियों के हाथों पर बलात्कारी अपना नाम गुदवा देते थे। लड़कियां लूट के माल की तरह एक हाथ से, दूसरे हाथ, होते हुए घरों के चूल्हों में झोंक दी जाती थीं। यही सब तो हो रहा था, जिसे रोकने के लिए भी कुछ औरते बाहर आई। बंटवारे में मज़हब सनक बनकर इंसानियत से हैवानियत पर उतर आया था। हर इंसान हैरत में था कि इंसान की बोटियां नोचने वाले क्या इंसान ही है? तराज़ू लेकर बैठिएगा तो किसी का भी पाप कम या ज़्यादा नही निकलेगा।

जिस तरह सभी धर्म के लोग हैवान हो रहे थे,उसी तरह हर धर्म के लोग आगे बढक़र इंसानियत की भी मिसाल दे रहे थे। हमें इन इंसानों को पढऩा चाहिए जो ज़ुल्म की ताप सहकर उनसे मुकाबला करके इंसानियत को रोज़ जिला रहे थे। मगर पढऩा भी भला कौन चाहता है। कहते हैं अगर आपने माटी की खि़दमत की है, तो एक न एक रोज़ उसकी महक दुनिया महसूस करेगी। मेरे पास लिखने को हज़ार पन्ने हैं, लाखों शब्द हैं मगर मैं उनकी शख्सियत पर क्या क्या लिखूं।

साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ी लेखक,दो बार राज्यसभा सदस्य, फ्रीडम फाइटर और सबसे बढक़र बंटवारे में शरणार्थी कैम्प में जी-जान से खि़दमत करने वाली बेग़म अनीस कि़दवई। उन्होंने नजऱे कुश गुजऱे, अब जिनके देखने को, चार रुख, ज़ुलम और आज़ादी की छांव जैसी किताबें लिखकर अपने अंदर की बुनावट दुनिया के सामने रख दी। शायद वह इकलौती औरत जिसने कैम्प में लाशों को नहलाया, कफऩ-दफ्ऩ किया,यहां तक कब्रें भी खोदीं, तब जाकर बंटवारे से उपजा ज़ख्म हम पाट पाए थे। हज़ारों लड़कियों को जो बेच दी गईं, जो उठा ले जाइ गर्इं, जिन्हें भीड़ ने काफिलों से लूटकर छीन लिया, अपने घरों में बांध लिया। चुन-चुन कर एक एक लडक़ी को वापस उसके परिवार में पहुंचाने वाली बेग़म अनीस कि़दवई।

मृदुला साराभाई, बेगम अनीस और सुभद्रा जोशी की तिकड़ी, जिसने चाक दिलों को सी दिया, इन्हें याद रखिए ।
“आज़ादी की छांव में” उनकी लिखी किताब पढि़ए और रोइये। देखिए ज़मीन को मज़हब के नाम से फाडऩे पर कितने दिल टूटे थे। इस सबसे इतर उस वक़्त के हालात देखिये,वह कौन लोग थे जो तब भी भीड़ बनकर डरा रहे थे। सैकड़ो साल से साथ रह रहे अपने भाइयों को खींचकर गांव से बाहर कर रहे थे। कितनी ही बेंटियों को गले में रस्सी डालकर, बिना कपड़ों के घर में जानवरों की तरह बांधे रखे थे। यह सारे दर्द, यह सारी नाइंसाफी, यह सारे ज़ख्म को बेग़म अनीस कि़दवई और मृदुला साराभाई ने साथ-साथ भरकर हमारे देश की बुनियाद रखी है।

बंटवारे के शरणार्थियों की सेवा के साथ साथ सैकड़ों लड़कियों को खोजा। खोजी हुई लड़कियों को जब उनके ही अपने सगों ने लेने से इनकार किया, तो उन्हें पाला। बेगम अनीस और सुभद्रा, दो औरतें भयंकर दंगो से झुलस रहे गंांव मे अकेले निकल गईं, लड़कियों को खोजने, लोगों ने घेरकर उनकी गाड़ी तोड़ फोड़ दी, उन्हें गालियां दीं, उन पर झपटने को दौड़े, मगर न यह डरी और न पीछे हटीं। गांव के सबसे $खूं$खार वहशी के खूंटे में बंधी लडक़ी को खींचकर निकाल लाईं और उसको आज़ाद जि़न्दगी दी। आपको क्या लगता है कि बंटवारें से उपजा ज़ख्म यूं ही भर गया। इसके लिए अथक मेहनत की गई, दिन रात बिना फर्क किये काम किया गया। सवालों और बदले की आग पर ठंडा पानी डालकर सेवा की गई, लोगों को भडक़ाने की जगह बनाने पर ज़ोर दिया गया। रोने की जगह उठ खड़े होने की बातें की गईं।

बेगम अनीस कि़दवई को पढि़ए, रोइये कि अपने शौहर के जिस्म को दंगो में टुकड़े टुकड़े देखकर भी उनके दिल से इंसान की खि़दमत न गई। अपने सारे ग़म भुलाकर वह मुल्क की बुनावट में लग गईं। अपने शौहर के खूऩ की छींटे देख बदले के लिए नही दौड़ीं बल्कि दूसरे परेशान हाल सताए हुए लोगों के आंसू पोंछने निकल पड़ीं। ज़माने की उन्होंने खि़दमत की तो उस ज़माने ने उन्हें पलकों पर भी बैठाया।

मसौली में 1906 को जन्मी बेगम अनीस कि़दवई आज के ही रोज़ 1982 में दुनिया को अपने काम, अपनी छाप, अपने किरदार की खुशबू देकर छोड़ गईं…

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Mazdoor Morcha
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