मज़दूर मोर्चा ब्यूरो दिल्ली। किसी भी मद की सूरत में जनता से वसूली करने को बेताब मोदी-शाह सरकार के हिट एंड रन कानून से खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे ट्रक ड्राइवरों द्वारा हड़ताल किया जाना स्वाभाविक है। नैसर्गिक न्याय और मौलिक अधिकारों के विपरीत बनाए गए इस कानून में ट्रक चालकों के पक्ष को अनदेखा किया गया लगता है।
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत यदि कोई चालक किसी गंभीर सडक़ हादसे के बाद पुलिस या प्रशासन को सूचना दिए बिना भाग जाता है तो उसे दस साल कैद और सात लाख रुपये जुर्माने की सजा हो सकती है। यानी हादसे के बाद वह पुलिस को सूचना देकर मौके पर ही रुकेगा। पुलिस उसे गिरफ्तार करेगी, लेकिन सूचना देने के कारण उसकी सजा दस वर्ष से घटा कर पांच साल कर दी जाएगी। चालकों का डर ये है कि यदि हादसे के बाद वे मौके पर रुकते हैं तो भीड़ उन्हें मार डालेगी या उनके वाहन को क्षतिग्रस्त कर देगी। कानून में उनके खिलाफ तो प्रावधान है लेकिन उग्र भीड़ से उनकी सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
कानूनविदों का मानना है कि कोई भी कानून नैसर्गिक न्याय का पालन करते हुए बनाया जाता है यानी पीडि़त पक्ष के हितों की क्षतिपूर्ति हो लेकिन दोषी पक्ष को न्याय सम्मत दंड का प्रावधान हो गंभीर मामलों को छोड़ कर यह दंड सुधारात्मक प्रकृति का होना चाहिए न कि दंडात्मक प्रकृति का। सात लाख रुपये जुर्माना और दस साल की सजा का जो प्रावधान किया गया है इतना जुर्माना तो साजिशन हत्या करने वाले पर भी नहीं लगता। यानी सरकार ने ट्रक चालकों को सोच समझ कर साजिश रच कर हत्या करने वालों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है।
इसी संदर्भ में बाटा मोड़ पर 10 फरवरी, 2014 मनोज वाधवा परिवार के साथ हुए हादसे को भी याद किया जा सकता है। वाधवा अपनी पत्नी टीना व तीन साल के बेटे पवित्र के साथ स्कूटर पर बल्लभगढ़ से दिल्ली की ओर जा रहे थे, बाटा मोड़ पर बने फ्लाईओवर के बगल से गुजरते वक्त सडक़ पर बने गड्ढे में पानी भरा था, स्ट्रीट लाइट की बत्तियां गुल थीं जिसके चलते स्कूटर गड्ढे में फंसा और तीनों गिर गए। गड्ढे में निकले नुकीले पत्थर से सिर टकराने से पवित्र की मौत हो गई, जबकि पीछे से आ रहा ट्रक चालक अचानक हुए हादसे में ब्रेक नहीं लगा सका और ट्रक के पहिए टीना के पैरों को कुचलते हुए निकल गए। टीना के पैरों के बीसियों ऑपरेशन हो चुके हैं।
हमेशा की तरह पुलिस ने सडक़ पर बने खड्डों के लिए दोषी के बजाय निर्दोष ट्रक वाले को ही दोषी बना कर गिरफ्तार कर लिया। वाधवा ने पुलिस की इस कार्रवाई के खिलाफ न्याय पालिका में आवाज उठाई, उनका कहना था कि पवित्र की जान ट्रक से नहीं बल्कि सडक़ पर बने गड्ढे के कारण हुई, यदि उसे रिपेयर कर दिया जाता तो ये घटना नहीं होती, ट्रक वाला दोषी नहीं है दोषी वे लोग हैं जिन लोगों ने सडक़ पर बने खड्डे को नहीं भरा। इस पर पुलिस ने चार्जशीट में हाईवे निर्माण करने वाली एल एंड टी के नौ डायरेक्टरों को आरोपी बना दिया। एल एंड टी कंपनी के वकीलों ने इस पर आपत्ति दर्ज की तो हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि जो एक डायरेक्टर इस घटना के लिए जिम्मेदार हो उसका नाम दिया जाए। तब से न तो कंपनी ने एक डायरेक्टर का नाम दिया और न ही पुलिस दोषी डायरेक्टर को तलाश सकी है। फिलहाल, यह मुकदमा अभी तक हाईकोर्ट में लटका हुआ है। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि सडक़ दुघर्टनाओं के प्रति सरकार एवं कानून का क्या दृष्टिकोण है।
सरकार ने ट्रक चालकों के खिलाफ तो कानून बना दिया लेकिन इससे प्रभावित होने वालों के हित और कल्याण का ध्यान नहींँ रखा गया। अधिकतर ट्रक चालक असंगठित मज़दूरों की श्रेणी में आते हैं यानी मालिक जब चाहें इन्हें नौकरी से निकाल देते हैं। दस-बारह हजार रुपये महीने की नौकरी करने वाला वाहन चालक जुर्माना भरने के लिए सात लाख रुपये कहां से लाएगा? ट्रक चालकों की नौकरी स्थायी नहीं होती, हादसे के बाद यदि ट्रक मालिक पल्ला झाड़ ले और उसे नौकरी से निकाल दे तो सरकार क्या उसका बचाव करेगी? हिट एंड रन कानून बनाने से पहले सरकार को इन ट्रक चालकों के कल्याण और हित में भी कानून बनाने चाहिए थे ताकि उनके और उनके पारिवारिक सदस्यों का भविष्य सुरक्षित हो सके।
ट्रक यूनियनों का कहना है कि अधिकतर सडक़ हादसों का कारण आवारा पशु, खस्ता हाल सडक़ें और सडक़ों पर अतिक्रमण होता है। यदि सरकार सच में सडक़ हादसों में कमी लाने के प्रति गंभीर है तो हाइवे से लेकर हर सडक़ पर घूमते आवारा पशुओं पर अंकुश लगाने की व्यवस्था करे। हाईवे ही नहीं सभी स्टेट हाइवे, मुख्य जिला सडक़ से लेकर सभी खस्ता हाल सडक़ों को दुरुस्त कराए और उन्हें अतिक्रमण मुक्त कराए। केवल सख्त कानून लाकर सुधार नहीं किया जा सकता। आखिरकार सरकार कल्याणकारी होती है न कि दमनकारी।