हिन्दू संगठनों की गुंडागर्दी के शिकार बने प्रिंसिपल

हिन्दू संगठनों की गुंडागर्दी के शिकार बने प्रिंसिपल
December 20 03:07 2022

सोचा था आज कंप्यूटर और उंगलियों दोनों को पूरा आराम दूंगा। बस पढ़ूंगा पर जब तक घृणा आराम नहीं करती, लगता है, हमें भी आराम नसीब नहीं। खबर यह है कि भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक छात्र ने-जिसके बारे में बताया जाता है कि उसने पिछले दो साल से कॉलेज की फीस नहीं भरी है-इंदौर के एक सरकारी लॉ कॉलेज के एक प्रिंसिपल को आखिर निकलवा दिया और बाकी तीन प्रोफ़ेसर भी इस संगठन के निशाने पर हैं। कारण उसका व्यक्तिगत रहा हो सकता है मगर उससे बात नहीं बनती। संयोग से उस लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल इनामुल रहमान थे और जिस किताब पर हंगामा मचाया गया,उसके लेखक फरहत अली हैं।

बस उस छात्र को हिंदू- मुसलमान करने का बहाना मिल गया।ऐसे मामलों में’ सेवा’ करने के लिए विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन तैयार रहते हैं। ‘वायलेंस एंड क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम’ नामक इस किताब में और बातों के अलावा हिंदुत्ववादियों की भी आलोचना की गई है और आपराधिक कानून की स्थिति के संदर्भ में की गई है। निशाना प्रिंसिपल तो बनाए ही गए,ये तीन मुस्लिम अध्यापक भी बनाए जा रहे हैं।और इस किताब के लेखक भी और ये सब जिसे आजकल धर्म- विशेष कहने का चलन है,उसके हैं।और हंगामा मचानेवाले वे हैं,जो उस धर्म के हैं,जिसे धर्म विशेष नहीं कहा जाता!

जो काम ये हिंदूवादी संगठन खुद करते हैं,उसी का आरोप लगाकर ये अनगिनत बार अपने विरोधियों को निशाना बनाते आ रहे हैं और उसका नाम है- विभिन्न धर्मों के बीच वैमनस्य फैलाना।यानी हिंदू संगठनों के कारनामों की आलोचना करना वैमनस्य फैलाना है।

बहरहाल प्रिंसिपल को मजबूर किया गया कि वे इस्तीफा दें। उन्होंने यह सफाई भी दी कि यह किताब उनके समय में खरीदी नहीं गई थी, पहले खरीदी गई थी। इसके लिए वह जिम्मेदार नहीं। वैसे इस तरह के स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं थी लेकिन जो स्थितियां हैं, उसमें उन्होंने अपने को बचाने के लिए यह तरीका भी आजमा कर देखा। किसी भी शैक्षणिक संस्थान का यह अधिकार है कि वह अपने विषय और उससे इतर विषयों की पुस्तकें भी खरीदे, उपलब्ध करवाए। हर दृष्टिकोण से किसी विषय को समझने का माद्दा छात्रों में पैदा किया जाए पर आजकल यह कहां संभव रहा??। सब गुडग़ोबर किया जा रहा है। सवाल यह है कि किसी कॉलेज का प्रमुख या किसी और संस्था का प्रमुख, कोई मुसलमान होगा तो क उसे निशाना बनाने का बहाना ढूंढा जाएगा और राज्य का गृहमंत्री उसके और उस किताब के लेखक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने का आदेश देगा? क्या वही किताब लाइब्रेरी में खरीदी जाएगी, जिसे ये चाहेंगे?वही पढ़ाया जाएगा,जो ये चाहेंगे-चाहे वह देश के कानून और संविधान के विरुद्ध क्यों न हो? सवाल अब पूरे देश में यह भी उठ रहा है कि क्या भाजपा शासित राज्यों की सरकारों और प्रशासन के निर्णय संघ के ये संगठन लेने लगे हैं?क्या सरकारी और राजनीतिक मशीनरी इतनी नाकारा हो चुकी है?क्या अफसरों में इतना दम नहीं रहा कि वे गलत के खिलाफ खड़े हो सकें?अगर वे कानून और संविधान के हक में खड़े नहीं हो सकते तो इनकी आइएएस और आइपीएस की ट्रेनिंग बेकार है।समय और पैसे की विशुद्ध बर्बादी है?।

इंदौर में जो हुआ,वह अन्य तमाम घटनाओं के साथ इस देश के लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं के लिए खुली चुनौती है।इसे जन आंदोलन के जरिए ही बचाया जा सकता है। अदालतें फौरी राहत जरूर दे सकती हैं और यह भी अंतिम रूप से कहा नहीं जा सकता कि वे ऐसा करेंगी ही। प्रशासन की हर जिम्मेदारी वे नहीं उठा सकतीं और जितना करती हैं,उसे भी बर्दाश्त कहां किया जाता है?

फिर भी मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट से आशा की जानी चाहिए कि वे स्वयं इस मामले का संज्ञान लेंगी।

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Mazdoor Morcha
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