डॉ0 अनिल उपाध्याय आज समूचे देश में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। हिंदी दिवस आजकल एक पखवाड़े तक चलने वाला सरकारी आयोजन बनकर रह गया है। वे लोग जो वर्षभर अंग्रेजी बोलते हैं , जो हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझते हैं और जिनके ख़ुद के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं वहीं लोग एक पखवाड़े तक हिंदी पर भाषण देते नजऱ आयेंगे। वैसे मुझे हिंदी दिवस का नाम सुनते ही पता नहीं क्यों हरिशंकर परसाई की एक बात याद आती है,”दिवस कमजोर का मनाया जाता है जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।” हिंदी जो न सिफऱ् हमारी राजभाषा है बल्कि जो वैश्विक भाषा बनने की क्षमता रखती है उसे न प्रमोट किए जाने की आवश्यकता है और न ऐसे कोरे व औपचारिक सरकारी आयोजनों की।
भारत एक बहुभाषी देश है और यहाँ अलग – अलग राज्यों में अलग अलग भाषा और बोलियॉं बोली जाती हैं। एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 463 भाषा एवं बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें से 14 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रो0 सिडनी कुलबर्ट के अनुसार आज विश्व में चीनी तथा अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे नंबर पर हिंदी बोली जाती है। विश्व में लगभग सत्तर करोड़ लोग हिंदी भाषा बोलते हैं। भारत के हर प्रांत में हिंदी बोली व समझी जाती है और देश की लगभग 77 प्रतिशत आबादी हिंदी बोलती या समझती है। हिंदी विश्व की उन सात भाषाओं में से एक है जिनका प्रयोग 2द्गड्ढ ड्डस्रस्र के लिए किया जाता है। आज संयुक्त राज्य अमेरिका के 45 विश्वविद्यालय सहित विश्व के 140 देशों में 500 विश्वविद्यालयों या संस्थानों में हिंदी पढ़ाई व सिखाई जा रही है। अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे 21वीं सदी की भाषा बताया । ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भारतीय मूल के लोगों को दीपावली की शुभकामनाएँ हिंदी में देकर इसकी महत्ता को स्वीकारा।
आज विश्व में इंटरनेट पर फेसबुक ,ट्विटर व व्हाटसेप सहित अन्य सोशल मीडिया पर हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है। हिंदी को लोकप्रिय बनाने में समाचार पत्रों , रेडियो , दूरदर्शन , फिल्म इंडस्ट्री का विशेष योगदान रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देकर राष्ट्रभाषा का परचम फहराया था। अगर हम वैश्विक स्तर पर बात करें तो विश्व में लगभग 7000 भाषा व बोलियाँ बोली जाती हैं । इनमें से कुछ भाषाएँ तो विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ विलुप्त होने के कगार पर हैं। एक सुप्रसिद्ध अमेरिकी भाषा विज्ञानी के अनुसार यदि हमने भाषाओं के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई तो इस सदी के अंत तक विश्व की लगभग 90 प्रतिशत भाषाएँ समाप्त हो चुकी होंगी या फिर विलुप्त होने के कगार पर होंगी ।
प्रश्न यह है कि भाषा कौन सी मरती है? भाषा वह मरती है जिसकी अपनी कोई लिपि नहीं होती, अपना साहित्य नहीं होता अथवा जिसके NATIVE SPEAKERS की संख्या तेजी से घट रही होती है। जब कोई एक भाषा मरती है तो केवल एक भाषा ही नहीं मरती उस भाषा का समूचा साहित्य मरता है, एक संस्कृति मरती है।
कुछ लोगों में यह भ्रम है कि अंग्रेजी के कारण भाषाएँ दम तोड़ रही हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी भाषाविद डेविड क्रिस्टल ने DEVELOVPMENT FORUM नाम की पत्रिका में LANGUGE DEATH नाम से लिखे एक आर्टीकल में कहा था कि विश्व में जो भी भाषा मर रही है उसका कारण अंग्रेजी नहीं। भाषा के मरने के अपने अलग- अलग कारण होते हैं कोई अन्य भाषा नहीं।
जो लोग यह सोचते हैं कि अंग्रेजी के कारण 1500 वर्ष पुरानी हिंदी भाषा को कोई खतरा है या फिर हिंदी दम तोड़ देगी वे ‘फूल्स पेराडाइज’ में रह रहे हैं। जिस भाषा के नेटिव स्पीकर्स की संख्या 70 करोड़ से अधिक है, जिस भाषा में ‘राम चरित मानस’, ‘साकेत’, ‘कामायनी’ जैसी कालजयी कृतियाँ लिखी गई हों जिसे लोग इक्कीसवीं सदी की भाषा कह व मान रहे हैं उस भाषा के अस्तित्व को कहीं कोई खतरा नहीं। वस्तुस्थिति यह है कि आज हिंदी के बढ़ते वर्चस्व के कारण कई भाषाओं पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जब कोलंबिया में बोली जाने वाली भाषा Totoro केवल चार नेटिव स्पीकर्स , Lipan Apache भाषा दो व नाइजीरिया में बोली जाने वाली भाषा Bikya एक नेटिव स्पीकर के दम पर आज भी जीवित हैं तो फिर 70 करोड़ से अधिक नेटिव स्पीकर्स की भाषा हिंदी को कहाँ व कैसा खतरा? हिंदी को अगर कोई खतरा है तो वह हिंदी के नेटिव स्पीकर्स है। उन हिंदी भाषियों से है जो अशुद्ध हिंदी बोलते व लिखते हैं। जिस प्रकार बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है ऐसे ही आज बहुत से अशुद्ध शब्दों ने शुद्ध शब्दों को चलन से बाहर कर दिया है। स्थिति यहॉं तक आ पहुॅंची है कि आज हम अशुद्ध शब्दों को ही शुद्ध समझने लगे हैं। कुछ शब्दों की दो या उससे अधिक वर्तनी प्रचलन में हैं। हिंदी को इस भाषाई प्रदूषण से बचाने की आवश्यकता है। इस दिशा में जब तक कुछ ठोस कदम नहीं उठाए जाते तब तक ऐसे दिवस मनाए जाने की न कोई सार्थकता है न ही कोई औचित्य ।