ओम थानवी देश का सबसे बड़ा साहित्य सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ इस बार “दो लब्धप्रतिष्ठ लेखकों” के नाम घोषित हुआ है “संस्कृत हेतु” जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य और “प्रसिद्ध गीतकार” संपूरन सिंह कालरा ‘गुलज़ार’ को। ज्ञानपीठ आम तौर पर एक ही साहित्यकार को मिलता आया है। कभी-कभार दो लेखकों को एक साथ सम्मानित किया गया, जिस पर विवाद उठे। एक साथ दो लेखक — श्रीलाल शुक्ल और अमरकान्त — पंद्रह साल पहले 2009 में सम्मानित हुए थे। निर्मल वर्मा के साथ भी गुरदयाल सिंह जोड़े गए थे। ज्ञानपीठ सम्मान 1965 में शुरू हुआ। टाइम्स ऑफ़ इंडिया का जैन घराना इसका संचालन करता है। प्रकाशन और सम्मान का काम एक न्यास के जि़म्मे है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार की 2023 के लिए की गई ताज़ा घोषणा में चर्चित अमृतकाल की अनुगूंज साफ़ सुनी जा सकती है। अकादमियाँ तो सरकार की छाया में काम करती हैं इसलिए जब-तब शायद विचलित हो जाएँ, हालाँकि उनमें सरकारी दख़ल की बातें दबी-छुपी ही सामने आती हैं। मगर साहित्य समुदाय में ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा ने बड़ी हलचल पैदा की है। सवाल उठने लगे हैं कि क्या ज्ञानपीठ ने समझौते का रास्ता चुन लिया है? पुरस्कार समिति ने स्वामी रामभद्राचार्य को “प्रख्यात स्कॉलर, शिक्षाविद, दार्शनिक, उपदेशक और धार्मिक नेता” बताते हुए रामानन्द संप्रदाय से जुड़ाव और उनके धार्मिक पदों का ब्योरा दिया है। फिर बताया गया है कि वे बाइस भाषाएँ जानते हैं, संस्कृत, हिंदी, अवधि, मैथिली सहित अनेक भाषाओं के “कवि और लेखक” हैं, जिन्होंने 240 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं। चार महाकाव्य रचे हैं, जिनमें दो हिंदी में हैं। धार्मिक ग्रंथों पर टीकाएँ लिखी हैं, तुलसीदास कृत रामचरित मानस के जाने-माने विशेषज्ञ हैं। मोदी सरकार ने 2015 में उन्हें पद्मविभूषण दिया था।
पता नहीं यह जानकारी क्यों ज्ञानपीठ घोषणा में नहीं है कि स्वामीजी ने शारीरिक चुनौती का निरंतर मुक़ाबला किया है क्योंकि दो माह के थे तब से नेत्रज्योति से वंचित हैं। यह भी कि वे प्रधानमंत्री के करीबी हैं, उनकी दस हज़ार पन्नों की अष्टाध्यायी व्याख्या का लोकार्पण मोदी ने चित्रकूट आकर किया था। स्वामीजी ने रामजन्मभूमि विवाद में रामलला विराजमान के पक्ष में गवाही दी थी। यह भी कि रामानंदी जगद्गुरु रामजन्मभूमि आंदोलन के आरम्भ के “योद्धाओं” में थे, “कलंकित ढाँचा” ढहाने वाले अभियान में आगे रहे, जेल गए। शिवसेना, सपा, कांग्रेस के नेताओं को नाम लेकर कोसते हैं, “मूर्ख” ठहराते हैं। पीओके को लेकर विवाद के बयान देते हैं। हाल में रामजन्मभूमि प्राणप्रतिष्ठा के संरक्षक रहे। ज्योतिर्मय शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठा को शास्त्रसम्मत न बताने पर प्रतिकार किया। मंदिर न्यास ने भी लगातार कहा कि प्राण प्रतिष्ठा रामानंदी संप्रदाय की छत्रछाया में हो रही है।
मैंने ऑनलाइन स्रोतों पर स्वामीजी का कृतित्व खंगालने की कोशिश की। उनकी एक हिंदी कविता आंशिक रूप में उनके विदेशी शिष्य ने अंगरेज़ी और रूसी में अनुवाद की है। स्वामीजी के आधिकारिक फ़ेसबुक पेज़ वह कविता पूरी उपलब्ध है। मानस के दोहे “अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान। जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥ का स्वामीजी का रूपांतर है —
अर्थ चाहिए न धर्म काम चाहिए कौसल्याकुमार मुझे राम चाहिए। मोक्ष चाहिए न स्वर्ग धाम चाहिए कौसल्याकुमार मुझे राम चाहिए। अशरण-अनाथ-नाथ दीन-हितकारी चाहिए विप्र-वधू पाप-शाप हारी जानकी-जीवन पूर्णकाम चाहिए कौसल्याकुमार मुझे राम चाहिए। … कोटि मन्मथाभिराम राम मुझे चाहिए लोक लोचनाभिराम राम मुझे चाहिए “रामभद्राचार्य” का विश्राम चाहिए कौसल्याकुमार मुझे राम चाहिए। बहरहाल, मानता हूँ कि स्वामी रामभद्राचार्य का संस्कृत या हिंदी साहित्यिक सृजन मैंने नही पढ़ा है। स्वामीजी के अधिकृत फ़ेसबुक पेज़ पर स्वामीजी की अन्य अभिव्यक्तियों के वीडियो ज़रूर उपलब्ध हैं। उनके यूट्यूब के प्रवचन मैंने सुने, जिनसे प्रभावित नहीं हुआ। स्वामी अखंडानंद, स्वामी रामसुखदास, आचार्य तुलसी, मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान जैसे प्रवाचकों के संकलित व्याख्यान (लेखन नहीं) कहीं जानदार होते थे। साहित्य के उद्धरणों और लतीफ़ों से भरी रजनीश-ओशो की कि़स्सागोई भी। इसलिए मंदिर के लिए आंदोलन में आगे रहने वाले एक संत को प्रवचनों या टीका-व्याख्या के आधार पर क़लमजीवी साहित्यकारों की होड़ में ला खड़ा करना तर्कसंगत नहीं लगता। यह संत का सम्मान भी नहीं।
विडंबना देखिए कि स्वामीजी को ज्ञानपीठ मिलने का स्वागत साहित्य समाज ने नहीं, विवादग्रस्त बाबा बागेश्वर धाम या भाजपा नेता शिवराज सिंह चौहान जैसे नेताओं ने किया है। रामानंदाचार्य के साथ ज्ञानपीठ पाने वाले दूसरे सृजक संपूरन सिंह कालरा ‘गुलज़ार’ हिंदी सिनेमा की हस्ती हैं। वे सुलझे हुए फि़ल्मकार हैं, जिन्होंने अनेक जानदार फि़ल्में बनाईं। पटकथा और गीतों में तो उन्हें सिद्धि है ही। उन्हें बाइस बार फि़ल्मफ़ेयर अवार्ड, छह बार राष्ट्रीय फि़ल्म अवार्ड, दादासाहब फालके सम्मान, पद्मभूषण, गीत-रचना के लिए ग्रामी और फिर ऑस्कर (एआर रहमान के साथ) तक मिला। वे लोकप्रिय सिने-गीतकार हैं। उनकी शायरी को 2002 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने के बाद बड़ी शोहरत हासिल हुई। पिछले कुछ वर्षों में वे पहले जयपुर और अब अन्य शहरों में होने वाले लिट-फ़ेस्ट का लोकप्रिय चेहरा बनकर उभरे हैं। कथित साहित्य उत्सवों का सिलसिला मुख्यत: अंगरेज़ी के प्रकाशकों, लेखकों के एजेंटों और नामी लेखकों, नेताओं, अभिनेताओं, गायकों, ऐंकरों आदि के साथ एक बाज़ार लेकर आया है। बाज़ार ही उनका ख़र्च उठाता है।
सिनेमा की लकदक दुनिया की तरह इन ‘साहित्यिक’ मेलों में भी लोग साहित्य (बल्कि कहें पुस्तक, क्योंकि वहाँ पाकशास्त्र की पुस्तक भी ‘लॉंच’ हो सकती है) अनुराग ज़ाहिर करने से ज़्यादा मशहूर नामों की झलक पाने, सैल्फिय़ाँ उतारने या अपने परिधान-प्रदर्शन को जमा होते हैं। अफ़सोस की बात इतनी ही है कि शायद लिट-फ़ेस्ट की रंगत साहित्य के गम्भीर पुरस्कारों को भी प्रभावित करने लगी। मैं गुलज़ार साहब को तबसे पढ़ता आया हूँ, जब उनकी शायरी, संभवत: सत्तर के दशक में, हिंदी में कभी उनके जिगरी मित्र भूषण बनमाली ने प्रकाशित करवाई थी। उस वक़्त उर्दू-पंजाबी के रूमानी साहित्य का अपना आकर्षण था। लेकिन बाद में ”जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है” या “शाम की आँख में नमी सी है, आज फिर आपकी कमी सी है” के भावुक दौर के बाद कुछ गहरे काव्य की कमी सदा अनुभव हुई। उसकी तड़प कभी नहीं मिटी। समाज और राजनीति की उथल-पुथल उनकी गज़़लों या नज़्मों का मुखर सरोकार नहीं बना। रूमानियत में भी एक दुहराव रूप बदल-बदल कर प्रकट होता रहा।
गोल फूला हुआ ग़ुब्बारा थक कर एक नुकीली पहाड़ी यूँ जाके टिका है जैसे ऊँगली पे मदारी ने उठा रक्खा हो गोला फूँक से ठेलो तो पानी में उतर जाएगा भक से फट जाएगा फूला हुआ सूरज का ग़ुब्बारा छन-से बुझ जाएगा इक और दहकता हुआ दिन भारतीय ज्ञानपीठ ने घोषणा में स्वामीजी का जन्मस्थान जौनपुर बताया है, पर गुलज़ार साहब का जन्मस्थान (दीना, अब पाकिस्तान) नहीं बताया। परिचय में उर्दू शायर की पहचान पीछे रखी है, हिंदी को आगे “संपूरन सिंह कालरा, जो गुलज़ार के नाम से लोकप्रिय हैं, हिंदी फि़ल्मों के प्रसिद्ध गीतकार हैं। इसके अलावा वे एक कवि, पटकथालेखक, फि़ल्म निर्देशक, नाटककार और मशहूर कवि हैं (जी, कवि दुबारा!)। वे मुख्यत: हिंदी, उर्दू और पंजाबी में लिखते हैं (जी, हिंदी पहले)। … साहित्य में मील के नए पत्थर गाड़ते आए हैं। तीन पंक्तियों की कविता वाली नई शैली “त्रिवेणी” का उन्होंने आविष्कार किया था। …” असल में, ‘त्रिवेणियाँ’ सत्तर के दशक में ‘सारिका’ में नियमित छपती थीं, जब कमलेश्वर उसके संपादक थे। गुलज़ार तीसरे मिसरे को चौंकाने वाली मुद्रा में प्रकट करते थे, जो जब-तब खेल-सा हो जाता था:
गोले, बारूद, आग, बम, नारे बाज़ी आतिश की शहर में गर्म है बंध खोलो कि आज सब “बंद” है। हिंसा, आग, नारे और बंद। इनके बीच “बंध” खोलने की बात! गुलज़ार भले आदमी, सिद्ध फि़ल्मकार, लोकप्रिय गीतकार सब हैं — पर इसमें ख़ास विवाद की गुंजाइश नहीं कि साहित्य में उनसे कहीं गहरे सर्जक इर्दगिर्द हैं। सोशल मीडिया पर ज़्यादा तो नहीं, पर थोड़ी चर्चा छिड़ी है। हिंदी कवि और संपादक विष्णु नागर ने फ़ेसबुक पर लिखा है कि हिंदी कथा-साहित्य, काव्य और बाल-रचनाओं के क्षेत्र में बड़ा काम करने और नाम कमाने वाले विनोद कुमार शुक्ल और अन्य लेखकों की उपेक्षा हताश करने वाली घटना है। वैसे हिंदी के अलावा भारतीय भाषाओं में अनेक बड़े लेखक होंगे जो ज्ञानपीठ समिति की नजऱों से अब भी बहुत दूर हैं। आलोचक शम्भुनाथ ने निर्णय को “ज्ञानपीठ पुरस्कार का पतन” कहा है। वीरेंद्र यादव मानते हैं कि ज्ञानपीठ के अवमूल्यन की शुरुआत तभी हो गई थी जब शहरयार को पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों दिलवाया गया। “अब तो इसे कूड़ेदान की शोभा का दजऱ्ा प्राप्त हो गया है”।
ज्ञानपीठ की विज्ञप्ति में “गीतकार गुलज़ार” लिखा पढक़र लेखकों ने बॉब डिलन को मिले नोबेल की घटना से ज्ञानपीठ घोषणा की तुलना की है। यह कहीं से मुनासिब नहीं लगता। डिलन ने अपने दौर में अमेरिका की दकिय़ानूसी मानसिकता को वैचारिक उत्तेजना से मथ डाला था। उनके गीतों ने अमेरिका के पारम्परिक संगीत का सहारा लेकर एक नया राजनीतिक मुहावरा गढ़ा। बॉब डिलन ने आज़ादी, शांति और न्याय के हक़ में हुंकार के स्वर छेड़े। युद्ध, परमाणु ख़ौफ़, नस्लवाद और दासप्रथा के ख़िलाफ़ लिखा, गोरों के हाथों अफ्ऱीकी-अमेरिकन समुदाय के तिरस्कार और हिंसा के ख़िलाफ़ गाया, अपनी रचनाओं में आंदोलनकारियों और उनके प्रदर्शनों के पक्ष में खड़े हुए और नागरिक अधिकारों की आवाज़ को ताक़त दी। डिलन अपनी संपूर्ण शख़्सियत में प्रतिरोध के शब्दकार थे। उन स्वरों की अमेरिकी समाज को सख़्त ज़रूरत थी, जो पुकार कर कह सकें —
Yes and how many times must a man look up Before he can see the sky? And how many ears must one man have Before he can hear people cry? Yes,and how many deaths will it take ’til’ he knows That too many people have died? The answer, my friend, is blowin in the wind! गुलज़ार साहब का मुझसे बहुत प्रेम है। सदाबहार इंसान और फि़ल्मकार के नाते मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। उनकी सफ़ेदी और रूमानी अंदाज़ पर झूम सकता हूँ। कभी केदारजी (स्व. केदारनाथ सिंह) के रहते, कभी साहित्य-उत्सवों के प्रवास में उनसे पर बहुत गप की है। पर कहना चाहता हूँ कि अपनी पचास साल की पत्रकारिता में — जिसमें संपादक के रूप में पैंतीस वर्ष साहित्य को हिंदी में सबसे ज़्यादा प्रकाशित करने, यानी गौर से पढऩे और उससे नज़दीकी रखने का सौभाग्य हासिल है — मैंने गुलज़ार साहब को गीतों में समाज और राजनीति की व्याधियों पर परिवर्तनकारी सरोकार और साहस अख़्तियार करते कभी नहीं देखा। रूमानियत आनंदित कर सकती है, पर एक पड़ाव के बाद उसमें लिजलिजापन ही आ टिकता है। हालाँकि ज़रूरी नहीं कि विषय में साहसी तेवर प्रकट करने बाद भी शिल्प के झोल दूर हो जाते हों। वैसी रचनाएँ सामने आएँ तभी विद्वान आलोचक तय करेंगे कि वे कितनी कविता हुई, कितना हल्ला।यों गुलज़ार भी मानते ही होंगे कि देश की विभिन्न भाषाओं में हमारे बीच ऐसे कवि मौजूद हैं, जिनके नाम का दावा साहित्य के पैमाने पर बहुत मज़बूत साबित होगा। उन्हें सम्मानित कर पुरस्कार सार्थक साबित होंगे, उनका गौरव बढ़ेगा। ज्ञानपीठ की समृद्ध परम्परा यही दास्तान रही है। हाल के मोड़ ने उसे अंधेरे में ला छोड़ा है। कह सकते हैं कि ज़माना ‘नया इंडिया’ का है, जिसमें गीतकार, मंच के कवि, कथावाचक (अब तो एक ही व्यक्ति में सभी गुण मिल जाएँगे) नवाज़े जाते हैं। पुरस्कार भी अब दिए कम, दिलवाए ज़्यादा जाते हैं।