संजय श्रमण (याद रखिये कि सबसे बड़े शत्रु वे होते हैं, जो आपके महापुरुषों की प्रशंसा करके आपका दिल जीतते हैं, और फिर धीरे से उनकी मूल शिक्षाओं को बदल देते हैं।) प्रश्न- भगवान श्री, पिछली चर्चा के संबंध में एक प्रश्न है। कहा गया है, गुण और कर्म के अनुसार मानव के चार मोटे विभाग बनाए गए। अब यदि शूद्र घर में जन्म पाया हुआ आदमी ब्राह्मणों के लक्षणों से युक्त हो, तो उसे अपना निजी कर्तव्य निभाना चाहिए या ज्ञान-मार्ग और ब्राह्मण जैसा जीवन ही उसके लिए हितकर हो सकता है? कृपया इसे स्पष्ट करें।
भगवान रजनीश: इसमें दो तीन बातें खयाल में ले लें। एक तो, आज से अगर हम तीन हजार साल पीछे लौट जाएं और यही सवाल मुझसे पूछा जाए, तो मैं कहूंगा कि शूद्र के घर पैदा हुआ हो, तो उसे शूद्र का काम ही निभाना चाहिए; लेकिन आज यह न कहूंगा। कारण? कारण ह: जब भारत ने वर्ण की इस व्यवस्था को वैज्ञानिक रूप से बांटा हुआ था, विभाजन स्पष्ट थे। शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण के बीच कोई आवागमन न था, कोई विवाह न था, कोई यात्रा न थी। खून अमिश्रित, अलग-अलग था। तो जैसे ही कोई आत्मा मरती, उसे चुनने के लिए स्पष्ट मार्ग थे मरने के बाद। एक आत्मा जैसे ही मरती, वह अपने गुण-कर्म के अनुसार शूद्र के घर पैदा होती, या ब्राह्मण के घर पैदा होती।
भारत ने आत्मा को नया जन्म लेने के लिए चैनेल्स दिए हुए थे, जो पृथ्वी पर कहीं भी नहीं दिए गए; इसलिए भारत ने मनुष्य की आत्मा और जन्म की दृष्टि से गहरे मनोवैज्ञानिक प्रयोग किए जो पृथ्वी पर और कहीं भी नहीं हुए। जैसे कि एक नदी बहती है। नदी का बहना और ह। ‘अनियंत्रित’। फिर एक नहर बनाते हैं हम। नहर का बहना और है, ‘नियंत्रित और व्यवस्थित’।
भारत ने समाज के गुण-कर्म के आधार पर नहरें बनाईं नदियों की जगह, बहुत व्यवस्थित। उन व्यवस्थित नहरों का विभाजन इतना साफ किया कि आदमी मरे, तो उसकी आत्मा को चुनाव का सीधा-स्पष्ट मार्ग था कि वह अपने योग्य जन्म को ग्रहण कर ल। इसलिए बहुत कभी-कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक शूद्र, ब्राह्मण के गुण का पैदा होता। कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक ब्राह्मण शूद्र के गुण का पैदा होता। अपवाद! अपवाद के लिए नियम नहीं बनाए जाते; और जब कभी ऐसा होता, तो उसके लिए नियम की चिंता करने की जरूरत नहीं होती थी।
कोई विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण में प्रवेश कर जाता। कोई नियम की चिंता न थी; क्योंकि जब कभी ऐसा अपवाद होता, तो प्रतिभा इतनी स्पष्ट होती कि उसे रोकने का कोई कारण न होता था! लेकिन वह अपवाद था; उसके लिए नियम बनाने की कोई जरूरत न थी। वह बिना नियम के काम करता था। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। भारत की वह जो विभाजन की व्यवस्था थी आत्मा के चुनाव के लिए, वह बिखर गई। अच्छे-भले लोगों ने बिखरा दी! कई दफे भले लोग ऐसे बुरे काम करते हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि जरूरी नहीं है कि भले लोगों की दृष्टि बहुत गहरी ही हो; और जरूरी नहीं है कि भले लोगों की समझ बहुत वैज्ञानिक ही हो! भला आदमी भी छिछला हो सकता है। उखड़ गई सारी व्यवस्था! अब नहरें साफ नहीं हैं। हालत नदियों जैसी हो गई है। नहरें भी हैं, खंडहर हो गई हैं; उनमें से पानी इधर-उधर बह जाता है। अब कोई व्यवस्था साफ नहीं है। अब इतनी साफ नहीं कही जा सकती यह बात।
लेकिन नियम वही है। नियम में अंतर नहीं पड़ता। जो अंतर पड़ा है, वह व्यवस्था के जीर्ण-जर्जर हो जाने की वजह से है। आज भी, मौलिक रूप से, सिद्धांतत: जो व्यक्ति जहां पैदा हुआ हो, बहुत संभावना है, सौ में नब्बे मौके यही हैं कि अपने जीवन की व्यवस्था को वह उन्हीं मार्गों से खोजे, तो शीघ्रता से शांति को और विश्राम को उपलब्ध हो सकेगा; अन्यथा बेचैनी में और तकलीफ में पड़ेगा। आज समाज में जो इतनी बेचैनी और तकलीफ है, उसके पीछे वर्ण का टूट जाना भी एक कारण है।
एक सुनियोजित व्यवस्था थी। चीजें अपने-अपने विश्राम से अपने मार्ग को पकड़ लेती थीं। अब हरेक को मार्ग खोजना पड़ेगा, निर्णायक बनना पड़ेगा, निर्णीत करना पड़ेगा। उस निर्णय में बड़ी बेचैनी, बड़ी प्रतिस्पर्धा, बड़ा कांप्टीशन, बड़ी स्पर्धा होगी। बड़ी चिंता और बड़ी बेचैनी पैदा होगी। कुछ भी तय नहीं है। सब तय करना है, और आदमी की जिंदगी करीब-करीब तय करने में नष्ट हो जाती है। फिर भी कुछ तय नहीं हो पाता। कुछ तय नहीं हो पाता। लेकिन टूट गई व्यवस्था। और मैं समझता हूं कि लौटानी करीब-करीब मुश्किल है। क्यों?
क्योंकि भारत ने जो एक छोटा-सा प्रयोग किया था, वह लोकल था, स्थानिक था; भारत की सीमा के भीतर था। आज सारी सीमाएं टूट गई हैं। आज सारी जमीन इकट्ठी हो गई है। जिन कौमों ने कोई प्रयोग नहीं किए थे वर्ण के, वे सारी कौमें आज भारत की कौम और उन सब की दृष्टियां, हमारी दृष्टियों के साथ इकट्ठी हो गई हैं। आज सारी दुनिया, गैर-वर्ण वाली दुनिया, बहुत बड़ी ह। और वर्ण का प्रयोग करने वाले लोग बहुत छोटे रह गए।
और उन छोटे लोगों में भी, जो वर्ण के समर्थक हैं, वे नासमझ हैं; और जो वर्ण के विरोधी हैं, बड़े समझदार हैं। वर्ण के समर्थक बिलकुल नासमझ हैं। वे इसीलिए समर्थन किए जाते हैं कि उनके शास्त्र में लिखा है; लेकिन समर्थकों के पास भी बहुत वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है। और न उनके पास कोई मनोवैज्ञानिक पहुंच है कि वे समझें कि बात क्या है! वे सिर्फ इसलिए दोहराए चले जाते हैं कि बाप-दादों ने कहा था। उनकी अब कोई सुनेगा नहीं। अब कोई चीज इसलिए सही नहीं होगी भविष्य में, कि बाप-दादों ने कही थी।
डर तो यह है कि अगर बाप-दादों का बहुत नाम लिया, तो चीज सही भी हो, तो गलत हो जाएगी। बाप-दादों ने कहा था, तो जरूरत कुछ गलत कहा होगा; आज हालत ऐसी है! और जो आज विरोध में हैं वर्ण की व्यवस्था के, वे बड़े समझदार हैं। समझदार मतलब, ज्ञानी नहीं; समझदार मतलब, बड़े तर्कयुक्त हैं। वे हजार तर्क उपस्थित करते हैं। उनके तर्कों का जवाब पुरानी परंपरा के लोगों के पास बिलकुल नहीं है, और ऐसे लोग आज न के बराबर हैं, जिनके पास आधुनिक तर्क की चिंतना हो और पुरानी अंतर्दृष्टि हो! ऐसे लोग न के बराबर हैं। इसलिए कठिनाई में पड़ गई है बात। अगर मेरा वश चले, तो मैं चाहूंगा कि वह जीर्ण-जर्जर व्यवस्था फिर से सुस्थापित हो जाए। उदाहरण के लिए एक-दो बात आपसे कहूं कि कई दफे कैसी कठिनाई होती है।