गदपुरी टोल महापंचायतों के नाम पर हुए समझौते पर प्रश्र चिन्ह हाईकोर्ट ने टोल कंपनी को नोटिस जारी किया

गदपुरी टोल महापंचायतों के नाम पर हुए समझौते पर प्रश्र चिन्ह हाईकोर्ट ने टोल कंपनी को नोटिस जारी किया
August 21 10:00 2022

पलवल (म.मो.) भाजपा सरकार द्वारा टोल के नाम पर जनता को लूटने की साजिश का पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने लिया संज्ञान और चार गद्दार पंचायत प्रतिनिधियों के नमूनों पर पानी फेर दिया। देश भर में सडक़ों का जाल बिछाने के नाम पर जिस तरह से देश भर की तमाम सडक़ों को बेचा जा रहा है, इतिहास में इसका कोई उदाहरण नहीं है। फिर भी इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण की दुहाई दी जा रही है। नियम तो यह हुआ करता था कि कोई कम्पनी किसी नई सडक़ अथवा पुल आदि का निर्माण करने के बाद एक तय समय में अपनी निर्माण लागत वसूल करके सडक़ व पुल को टोल से मुक्त कर देगी।

लेकिन अब तो केवल और केवल लूट के इरादे से बनी बनाई सडक़ों को सरकार अपने चहेतों को दान में दे रही है। उनको चौड़ा करने अथवा कुछ बेहतर करने के करार मात्र से ही कम्पनी को टोल के रूप में जनता को लूटने का परमिट जारी कर देती है। कायदे से इस दिल्ली-आगरा राजमार्ग का निर्माण कार्य का जो ठेका अनिल अम्बानी को दिया गया है, उसे तमाम काम पूरा होने के बाद वसूली करने का अधिकार मिलना चाहिये था। लेकिन अपने राजनीतिक प्रभाव एवं लूट में राजनेताओं की भागीदारी के चलते अनिल अम्बानी बीते करीब 12 साल से टोल के नाम पर लूट मचाये हुये है और जिस गति से काम चल रहा है आगामी 10 साल तक काम पूरा होने के आसार नजर नहीं आते।

टोल बूथ की एक शर्त यह भी है कि एक बूथ से दूसरे बूथ के बीच कम से कम 60 किलो मीटर का फासला होना चाहिये। गदपुरी टोल का फासला होडल वाले बूथ से मात्र 42 किलो मीटर का ही है और बदरपुर वाले से 31 किलोमीटर है। इसके अलावा पलवल शहर के बीचो-बीच बनाई गई एलीवेटेड सडक़ 6 लेन की बजाय 4 लेन की ही है। दूसरे, बल्लबगढ़ का पुराना रेलवे ओवरब्रिज भी 6 लेन का बनाया जाना था, जिसका काम भी अभी तक शुरू नहीं हुआ। इसके अलावा जो अंडरपास बनाने थे वे भी नहीं बनाये। जानकार बताते हैं कि अम्बानी का इरादा ये सारे काम किये बगैर ही निकल लेने का है।

अब समझने वाली बात यह है कि इतना बड़ा कानूनी हथियार होने के बावजूद भी महापंचायत आयोजित करने वाले चार बड़े नेताओं ने टोल कम्पनी के आगे घुटने कैसे टेक दिये, घुटने ही नहीं बिल्कुल ही लमलेट कैसे हो गये? क्या उन्हें अपनी इस लड़ाई के पीछे कानूनी वैधता नज़र नहीं आ रही थी? अगर वे लोग इतने ही खोखले थे तो टोल हटाने की नौटंकी करने की आवश्यकता ही क्या थी? ऐसे में यदि लोग उन पर ले-दे कर समझौता करने का आरोप लगाते हैं तो क्या गलत है?

किसी भी संवैधानिक मूल्यों पर चलने वाली सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह इतनी न्यायसंगत मांग के लिये जनता को सडक़ों पर उतरने के लिये मजबूर न होने दे। अव्वल तो सरकार को स्वत: ही इस टोल नाके को बनने नहीं देना चाहिये था। यदि किसी वजह से चुपचाप बनने भी दिया जा रहा था तो जनता की आवाज को सुन कर अपनी गलती सुधार लेनी चाहिये थी। इस काम के लिये किसी को न्यायपालिका तक जाने की नौबत नहीं आनी चाहिये थी। मजबूर होकर पलवल के पूर्व विधायक एवं मंत्री कर्ण दलाल को हाई कोर्ट में याचिका दायर करनी पड़ी। इस पर माननीय कोर्ट ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, रिलायंस, क्यूब कंपनी तथा डीए टोल कंपनी को नोटिस जारी कर 30 नवम्बर तक जवाब मांगा है।

यद्यपि न्यायालय ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि इस अवधि में टोल की लूट जारी रहेगी या बंद कर दी जायेगी? यदि भाजपा सरकार ने थोड़ी बहुत गैरत बाकी है तो उसे यह टोल तुरन्त से पहले हटा लेना चाहिये।

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Mazdoor Morcha
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