‘गाँधी कॉलोनी’ के मज़दूरों ने शारीरिक चुनौतियों को भी ललकारा है

‘गाँधी कॉलोनी’ के मज़दूरों ने शारीरिक चुनौतियों को भी ललकारा है
October 23 14:07 2022

सत्यवीर सिंह
50 वर्ष से ज्यादा उम्र के पाठक अच्छी तरह जानते होंगे, कि हमारे देश में सबसे पहले जो मोटर साइकिल बनी, वो ‘राजदूत’ थी. मोटर साइकिल पर सवार लोग, उस वक़्त, ‘बड़े लोग’ कहलाते थे. साइकिल भी बस कुछ लोगों के पास ही हुआ करती थी. ‘एस्कॉर्ट्स उद्योग समूह’ ने 1962 में, फऱीदाबाद में मथुरा रोड के किनारे ‘राजदूत’ मोटर साइकिल बनाने का कारखाना लगाया था. बाद में, जापान की कंपनी यामाहा से साझेदारी में ‘राजदूत’ का आधुनिकीकरण कर, राजदूत-यामाहा ब्रांड नाम से नई मोटर साइकिल बनाई. ‘राजदूत’ मोटर साइकिल के निर्माता मज़दूरों को, फरीदाबाद मुख्य रेलवे स्टेशन (ओल्ड फरीदाबाद) के नज़दीक, रेलवे लाइन के पश्चिम में बसाया गया. जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा मोटर साइकिल बनाना, एस्कॉर्ट्स के मालिक, सरमाएदार नन्दा परिवार और भारत सरकार दोनों की ज़रूरत थी. मतलब उनका उस वक़्त वहाँ बसना ‘देश हित’ में था. ‘गाँधी कॉलोनी’, फऱीदाबाद की सबसे पुरानी मज़दूर बस्तियों में से एक है. ज़ाहिर है, अपने गावों से उजडक़र फरीदाबाद आने वाले मज़दूर अनेक प्रान्तों आए. उस वक़्त, फऱीदाबाद, पंजाब प्रान्त में हुआ करता था. पंजाब प्रान्त से अलग होकर, हरियाणा 1 नवम्बर 1966 तथा हिमाचल प्रदेश 25 जनवरी 1971 को वज़ूद में आए.

रेलवे स्टेशन के पास ‘शहीद भगतसिंह स्मारक’ वाला चौराहा है, जिसे हाल ही में, ‘विस्थापन विभीषिका स्मारक’ में बदल कर सरकार ने, महान क्रांतिकारियों को, विस्थापन विभीषिका से जोडऩे का गुनाह किया है, जिसके विरुद्ध जन-आन्दोलन चल रहा है. इस मशहूर गोल-चक्कर से गाँधी कॉलोनी की शुरुआत होती है जिसका आखिरी सिरा, सेक्टर 21 ए-बी और डी को विभाजित करने वाली रोड तक जाता है. फऱीदाबाद की गाँधी कॉलोनी की एक और प्रसिद्धि है. वह है, यहाँ की कुष्ट रोगियों की बस्ती, ‘भारत माता कुष्ट आश्रम; 294, आई टी आई मार्ग, 5, गाँधी कॉलोनी, फऱीदाबाद, हरियाणा-121001’. कुष्ट रोगी होना, जिसमें रोगी का कोई क़सूर नहीं, हमारे समाज का सबसे प्रताडि़त, भयंकरतम पीड़ादायक, असीमित अपमानजनक छुआछूत झेलने वाला व्यक्ति होना है. ‘ये पिछले जन्म के कुकर्मों का परिणाम है’, कहकर, मज़हबी ज़हालत ने, इन रोगियों की जि़न्दगी को मौत से भी बदतर और बे-इन्तेहा कष्टपूर्ण बना दिया है. कितने ही कुष्ट रोगी इस पीड़ा को ना झेल पाने के कारण ख़ुदकशी कर लेते हैं, या फिर अपना घर-द्वार छोडक़र चले जाते हैं. शायद वे एकमात्र इन्सान होंगे जिनके ख़ुदकशी करने या घर-द्वार छोडक़र चले जाने और कहीं दूर भीख मांग कर जिंदा रहने पर, उनके समाज वाले ही नहीं बल्कि उनके सगे भी खुश होते हैं. कुष्ट रोगी को हर वक़्त, दर्द और जि़ल्लत की जिस भट्टी से, आग के दरिया से गुजरना होता है, उसे सिफऱ् वे ही जानते हैं. ये वो दर्द है जिसे बयान नहीं किया जा सकता. देश भर के 300 कुष्ट रोगी परिवारों को यहाँ साठ के दशक में ही बसाया गया था. कुष्ट रोगियों की इतनी बड़ी बस्ती में, कुष्ट रोग के ईलाज का कोई बड़ा सरकारी अस्पताल होगा, जहाँ उनका विशिष्ट ईलाज होता होगा; अगर आप ऐसा सोचते हैं, तो आप ग़लत सोचते हैं. पूंजीवादी सरकार इतनी संवेदनशील कैसे हो सकती है, भला? कुष्ट रोगियों को यहाँ बसने की जगह दे दी, बस हो गया!! अब आत्म निर्भर बन जाओ!! गाँधी कॉलोनी के बीचोंबीच, अगर किसी इन्सान की मूर्ति प्रस्थापित होनी चाहिए, तो वे हैं; डॉ एम ए थॉमस. कुष्ट रोगियों की सबसे पहली ज़रूरत ये होती है कि उन्हें इन्सान समझा जाए, कोई उनके पास बैठे. इंसानियत क्या होती है, उसकी गरमाहट उन्हें भी महसूस करने का अवसर मिले. जो काम, उनके सगों ने उनके साथ नहीं किया, वो इस फ़रिश्ते ने किया.

केरल में जन्मे, केजे थॉमस, जो उत्तरी भारत में मज़लूमों-वंछितों और समाज के सबसे दुत्कारे गए समाज की सेवा करने निकले थे और कोटा, राजस्थान में बस गए थे, 1978 में फऱीदाबाद की गाँधी कॉलोनी के कुष्ट आश्रम पहुंचे. कुष्ट रोगियों से हाथ मिलाने को, जब उन्होंने अपना हाथ आगे बढाया,तो कुष्ट रोगियों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. उन्हें यकीन नहीं हुआ, आँखें आंसुओं से रुंध गईं. ये ‘साहस’ तो उनके ‘खून के रिश्तेदार’, उनके जिग़र के टुकड़े कभी नहीं कर पाए!! हाथ मिलाने में असफ़ल, थॉमस सर ने उन्हें कौली भरकर गले लगा लिया. कुष्ट रोगियों को, उस क्षण, पृथ्वी के घूमने का अहसास हुआ!! ये बात सही है, कि डॉ एम ए थॉमस इसाई मिशनरी थे और ‘एमानुएल बाइबिल इंस्टिट्यूट’ एनजीओ से सम्बद्ध थे. लेकिन, जिन कुष्ट रोगियों से, उनके घर वाले भी, बचकर निकलते हैं, उनके सगे बेटे भी चाहते हैं कि जितनी जल्दी वे मर जाएँ या घर छोड़ जाएँ, उतना अच्छा, किसी को ये भी ना बताएं कि उनका हमसे कोई सम्बन्ध है, उन्हें गले लगाने वाले इन्सान को फ़रिश्ता नहीं, तो क्या कहा जाए?

हिन्दू धर्म के ठेकेदार, भगवा वस्त्रधारियों को समाज के सबसे दुखी समुदाय की सेवा करते क्यों नहीं देखा जाता? उनका एक मात्र एजेंडा नफऱत फैलाना, झूठ बोलना, पाखंड को मज़बूत करना और गांजे की चिलम सूंतना मात्र क्यों है? पादरी थॉमस ने सिफऱ् उन्हें गले ही नहीं लगाया बल्कि उनके बच्चों के लिए स्कूल खोला और उन्हें हथकरघा उद्योग चलाने, कारीगरी के काम सीखने, दरियां, चटाईयां बनाने का एक कारखाना भी खोलने में अहम भूमिका निभाई. हथकरघा उत्पाद इकाई की स्थापना की, जिसके लिए जर्मनी की ‘कुष्ट मदद संस्था, बर्लिन’ (German Leprosy Relief Association Berlin) से मदद हांसिल की. कुष्ट रोगियों द्वारा निर्मित वस्तुओं को बेचने के लिए, देश-विदेश में बाज़ार तलाशा जिससे कुष्ट रोगियों में आत्म-सम्मान जगा, ख़ुद्दारी पैदा हुई और वे सम्मानजनक तरीक़े से, आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े होने वाले बने. कई संस्थाओं की मदद से, देशभर से आए, इन 300 कुष्ट रोगी परिवारों की झोंपडिय़ों की जगह छोटे ही सही लेकिन पक्के मकान बने. सामाजिक जि़म्मेदारी निभाने का मज़ा होता है और समाज में ऐसे लोग हमेशा मौजूद रहे हैं. कुष्ट आश्रम में सरकार को एक अस्पताल बनाना चाहिए था. लेकिन सरकारों का चरित्र, हमारे देश में शुरू से ही ऐसा रहा है कि जो ‘चाहिए’ वो हो जाए, तो हैरानी होती है!!

सरकार ने छोटी सी डिस्पेंसरी बनाकर अपनी ‘जि़म्मेदारी’ की रस्म अदायगी कर ली, लेकिन दिल्ली में दरियागंज के एक डॉक्टर आईवी नेल्सन अपनी ट्रस्ट के साथ कुष्ट आश्रम से जुड़ गए. उन्होंने एक बड़ा दवाखाना स्थापित किया. वे लगातार यहाँ आते रहे और सभी कुष्ट रोगियों के दिल में बस गए. समाज के सबसे प्रताडि़त हिस्से, कुष्ट रोगियों में जगी ख़ुद्दारी का ही परिणाम था कि कर्णाटक से आए, कुष्ट रोगी, एम गोरप्पा अपने समुदाय की खि़दमत में समर्पित हो गए और वे कुष्ट रोगी कॉलोनी के पहले प्रधान चुने गए. उन्होंने बहुत जि़म्मेदारी से अपनी भूमिका निभाई और कॉलोनी के सबसे प्रिय व्यक्ति ही नहीं बल्कि फरीदाबाद शहर में उनका नाम बहुत सम्मान से लिया जाने लगा.

सामाजिक जि़म्मेदारी निभाने की चिंगारी सीपीडब्लूडी के इंजिनियर डॉ ब्रह्मदत्त में भी जगी, और वे भी डॉ नेल्सन के साथ कुष्ट रोगियों की सेवा में जुट गए. नेहरू प्लेस, नई दिल्ली से आकर, कुष्टाश्रम के बिलकुल नज़दीक, सेक्टर 21ए में बस गए. इंसानों और इंसानियत से मुहब्बत करने वाले, इन सब समाजसेवियों के अथक परिश्रम का ही नतीज़ा है कि आज कुष्ट रोगियों के इन 300 परिवारों के बच्चे कुष्ट रोगी नहीं हैं. सभी पूरी तरह स्वस्थ हैं. डॉ एम ए थॉमस 2010 में चल बसे, एम गोरप्पा भी कुछ साल पहले कर्णाटक के अपने पैत्रिक स्थान चले गए. उनकी मृत्यु वहीँ हुई. डॉ नेल्सन भी आज इस दुनिया में नहीं हैं. गाँधी कॉलोनी के सबसे आखिरी छोर पर, अन्तिम मोहल्ला ‘आदिवासी कॉलोनी’ के नाम से जाना जाता है. महाराष्ट्र के आदिवासी इलाक़े से विस्थापित ये आदिवासी यहाँ आकर क्यों बसे, इस तथ्य का संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया. कॉलोनी के ही दूसरे निवासियों के अनुसार, आदिवासी बस्ती के कुछ युवा असामाजिक गतिविधियों में लिप्त हैं, जिसकी वज़ह से वहाँ पुलिस की कई कार्यवाहियां हुई हैं. इस बस्ती में पीने के पानी की भी व्यवस्था नहीं है और सार्वजनिक शौचालय खँडहर में तब्दील हो चुका है. इसलिए ये मज़दूर, सरकार द्वारा अधिकृत ज़मीन में खुले में शौच जाने को विवश हैं. अगर कुछ लोग तथाकथित तौर से ‘असामाजिक’ गतिविधियों में लिप्त हैं भी, तो यहाँ पीने के पानी की व्यवस्था ना होने, शौचालय ना होने का क्या औचित्य है? वैसे भी नशाखोरी के जिस धंधे से लिप्त होने का शक़ यहाँ के कुछ युवाओं पर लोग करते हैं, वह गोरख धंधा कहाँ नहीं चल रहा? ‘संभ्रांत-अमीर’ सेक्टरों, कोठियों में क्या गांजा, अफीम, चरस नहीं मिलता? ये बीमारी तो बड़े होटलों में सबसे ज्यादा है. समाज, खासतौर पर युवाओं को, नशाखोरी में डुबा देने वाला यह ख़तरनाक व्यापार, क्या पुलिस की मिलीभगत के बगैर चल सकता है? नशाखोरी में देश का उदगम स्थल तो, मोदी सरकार के सबसे लाड़ले कॉर्पोरेट धन-पशु गौतम अडानी का मुंद्रा बंदरगाह है. ये ‘माल’ तो देश में वहीँ से प्रवेश करता है. 21,000 करोड़ की हेरोइन वहाँ पकड़ी गई, कई बार पकड़ी गई, अडानी से पूछताछ तक नहीं हुई!! इससे क्या समझा जाए? हर चौराहे पर शराब की चमचमाती दुकानें रात भर किसकी इज़ाज़त से खुली रहती हैं? नशाखोरी की शातिर अपराधी तो सरकारें खुद हैं. नशाखोरी के खि़लाफ़ भी तीखा सामाजिक जन-आन्दोलन देश भर में छेडऩा होगा.

‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ ने गाँधी कॉलोनी मज़दूर बस्ती में, वहाँ के प्रमुख समाज सेवी, मूल रूप में केरल निवासी, के जी मैथ्यू और कुष्ट आश्रम के वर्त्तमान प्रधान, रामू जी से उनके घर जाकर बात की. रामू जी के सबसे पहले कमेंट ने ही मन मोह लिया. ‘रामू जी, आपका पूरा नाम क्या है’, ये पूछे जाने पर उनका जवाब आया, ‘मैं सिफऱ् ‘रामू’ हूँ, मेरा नाम बस इतना ही है. उसके आगे-पीछे कुछ ना लगाया जाए. मैं 12 साल का था, जब 1970 में मेरी मां मुझे, पश्चिम बंगाल से यहाँ लेकर आई थी. मेरी दुनिया, यही कुष्ट रोगियों की बस्ती है.’ रामू (जी) अब कुष्ट रोग से पूर्णत: मुक्त हो चुके हैं, हालाँकि अभी भी उनके हाथों की उंगलियाँ छोटी और टेढ़ी-मेढ़ी हैं. ‘कमतरती का अहसास’ क्या होता है, वे नहीं जानते. बाक़ी रोगियों की तरह, उनके बच्चे भी बिलकुल स्वस्थ हैं. घर के बाहर उनके बेटे की दुकान के सामने ही उनसे बातें हुईं. इस बस्ती और फऱीदाबाद के इस क्षेत्र के बारे में उनकी बातों को सुनना एक अलग ही सुख को महसूस करने जैसा था.

उनसे ही डॉ ब्रह्मदत्त जी का फोन नंबर मिला और उनसे भी फोन पर बातें हुईं. सभी का कहना है कि मौजूदा सरकार, नाम मात्र का भी कोई सुधार कार्य इस बस्ती के लिए नहीं कर रही. सडक़ को चौड़ा करने के नाम पर, दोनों ओर के घरों के हिस्से को तोड़ा गया लेकिन सडक़ वैसे की वैसी ही रही. टूटी-फूटी सडक़ में गड्ढे हैं या गड्ढों में सडक़ है, कहना मुश्किल है. 50 साल से भी अधिक समय से वे यहाँ रह रहे हैं, उनके घर उनके नाम पर अभी तक नहीं हुए. आदिवासी बस्ती में सार्वजनिक शौचालय बेहद गन्दी अवस्था में बंद पड़ा है. डॉ नेल्सन का दवाखाना बंद पड़ गया है. हथकरघा उद्योग बंद हुए तो अरसा बीत गया. श्री के जी मैथ्यू 1981 में यहाँ आए. सपरिवार रहते हैं. चर्च के साथ ही बच्चों का स्कूल भी चलाते हैं. सामाजिक सरोकार रखने वाले इन्सान हैं. उनसे पहली मुलाक़ात बीके अस्पताल के शव गृह के सामने हो रहे मज़दूरों के आक्रोश प्रदर्शन में, दशहरे के अगले दिन हुई थी जब पुलिस वहाँ क्यूआरजी अस्पताल के सीवर टैंक में मारे गए चार मज़दूरों की लाशों के पोस्ट मार्टम की तैयारी कर रही थी. ‘गाँधी कॉलोनी’ मज़दूर बस्ती की प्रमुख समस्याएँ हैं; बाक़ी कॉलोनियों की तरह यहाँ की मुख्य सडक़ को भी तोडक़र सीमेंट वाली रोड बनाया जाए. सभी कुष्ट रोगियों को मिले घरों को उनके नाम पर पंजीकृत किया जाए. कुष्ट रोग के ईलाज के लिए अच्छा सरकारी अस्पताल बने, साथ ही कुष्ट रोगियों को जो मानसिक प्रताडऩा और पीड़ा झेलनी पड़ती है, उस दर्द को महसूस करते हुए, इस रोग से जुड़ी अवैज्ञानिक धारणाओं और पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिक सलाहकार/कौन्सेलर वहाँ नियुक्त हों. आदिवासी बस्ती से नगर निगम का शत्रुतापूर्ण बर्ताव बंद हो. वहाँ पीने का पानी उपलब्ध कराया जाए. सार्वजनिक शौचालय सुविधा नियमित साफ-सफाई के साथ हर वक़्त उपलब्ध रहे. हाँ, नशे के आपराधिक कारोबार को रोकने के उपाय सख्ती से किए जाएँ, लेकिन इस बहाने, सारी की सारी बस्ती को बदनाम ना किया जाए.

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