केन्द्रीय श्रम सचिव व डीजी ने दौरा किया
फरीदाबाद (म.मो.) केन्द्रीय श्रम सचिव अपूर्व चन्द्रा व डीजी अनुराधा प्रसाद ने 17 नवम्बर को एनएच-तीन स्थित अपने अस्पताल का दौरा किया, साथ में एमसी (मैडिकल कमिश्रर) कटारिया भी थे। उस शाम करीब पौने चार बजे से साढे छ: बजे तक चले इस कार्यक्रम में उक्त दोनों अधिकारियों ने बीते 10-12 साल इस अस्पताल की प्रगति को बड़े ध्यान से देखा, सुना व समझा। इस मीटिंग में डीन डॉक्टर असीम दास डिप्टी डीन डॉक्टर ए.के. पांडे, रेडियोलॉजी के प्रो$फेसर डॉ. ज$फर, लैबोरेट्री की ओर से प्रो$फेसर डॉ. मुक्ता, डा. ए.के.राय, डा. जे.सी.शर्मा के अलावा सभी विभागों के प्रमुख मौजूद थे।
यद्यपि इस दौरे के बाबत अस्पताल की ओर से कोई विधिवत प्रेस नोट तो जारी नहीं किया गया है लेकिन जानकार सूत्रों के मुताबिक बीते छ: वर्ष से चल रहे इस मेडिकल कॉलेज अस्पताल का पूरा प्रगति ब्यौरा उनके सामने रखा गया। उन्हें बताया गया कि प्रारंभिक वर्षों में आवश्यक साज़ो-सामान व उपकरणों के अभाव में अस्पताल के कार्य में कोई खास प्रगति नहीं हो पाई। बड़ी संख्या में मरीज़ों को निजी व्यापारिक अस्पतालों में रैफर किया जाता था जिस पर ईएसआईसी को करोड़ों रुपये के बिलों का भुगतान करना पड़ता था। धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों उपकरण उपलब्ध होते गये त्यों-त्यों मरीज़ों का रैफरल रूका और बिलों का भुगतान घटता चला गया।
डॉ. मुक्ता ने बताया कि आवश्यक उपकरणों के मिल जाने से अब तमाम तरह के टेस्ट उनकी अपनी लैब में हो जाते हैं। इतना ही नहीं अब दिल्ली, गुडग़ांव व मानेसर तक के सेम्पल टेस्ट होने के लिये उनके यहां आते हैं। इससे करोड़ों रुपये के उन बिल भुगतानों से ईएसआईसी बच गयी जो निजी कमर्शियल लैब्स को करना पड़ता था। गायनेकॉलोजी यानी स्त्री रोग विभाग, डॉ. जेसी शर्मा के निर्देशन में सब तरह की डिलिवरियां यहां करा रहा है। अंकोलॉजी (कैंसर)जैसे मामलों के भी तमाम ऑप्रेशन सफलतापूर्वक कर रहे हैं जबकि पहले ये कमर्शियल अस्पतालों को रै$फर होते थे। ऐसी ही रिपोर्ट एके राय, इएनटी (कान, नाक व गला) विभाग के प्रमुख ने भी दी। दरअसल ये सभी का$फी वरिष्ठ डॉक्टर हैं और उन्हीं के पढाये हुये डॉक्टर विभिन्न अस्पतालों में तैनात हैं। इसे देखते हुए ये लोग रैफर करने में अपना अपमान महसूस करते हैं। लेकिन जब किसी उपकरण या किसी अन्य आवश्यक सुविधा की कमी होती है तो ये लोग कड़े मन से रैफर करते हैं।
रेडिय़ोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर जफर ने बताया कि जब से सीटी स्कैन व एमआरआई उपकरण आये हैं, रेडिय़ोंग्राफरों की कमी के बावजूद न केवल अपने तमाम मरीज़ों की रेडिय़ोग्राफी कर रहे हैं बल्कि एनसीआर के विभिन्न ईएसआई अस्पतालों से रैफर किये गये मरीज़ों के भी बड़ी संख्या में टैस्ट निपटा रहे हैं। उनकी शिकायत अल्ट्रासाउंड की 3डी व 4डी मशीनों को लेकर थी क्योकि घटिया मशीन से मिले परिणामों से संबंधित डॉक्टर संतुष्ट नहीं हो पाते, यानी जितनी बारीकी से वे रोग को देखना चाहते हैं, उतना नहीं देख पाते। इसके चलते कुछ मामलों को रैफर करना पड़ता है जिससे रैफरल बिल तो बढता ही है साथ में मरीज व इलाज करने वाला डॉक्टर भी परेशान होता है। डीजी द्वारा पूछे जाने पर डॉ. जफर ने बताया कि बीते करीब तीन वर्षों से वे लगातार मुख्यालय से इसकी मांग करते आ रहे हैंऔर वहां से पूछे जाने वाले तरह-तरह के सवालों के बार-बार जवाब देने के बावजूद उपकरण उपलब्ध नहीं हुए। विदित है कि इसके लिये मेडिकल कमिश्रर उत्तरदायी होते हैं, डीजी द्वारा पूछे जाने पर वे हमेशा की तरह आयें, बायें, शायें करने लगे और सबके सामने अपनी झंड कराई। झंड होने में रही-सही कसर तब पूरी हो गयी जब उन्होंने कहा कि सीटी स्कैन व एमआरआई मशीने तो दे दी थी ना? इस पर डॉक्टर जफर ने भी तुनक कर कहा हां दिला दी थी 2-3 साल की सवाल-जवाब प्रक्रिया के बाद। बात-चीत में यह भी सामने आया कि रैफर होने वाले कुल केसों में से अंकालॉजी (कैंसर) के 43 प्रतिशत कॉर्डियोलॉजी (ह्दय रोग) के 33 प्रतिशत तथा कैंसर रेडियोथरेपी के 8 प्रतिशत केस होते हैं जबकि प्रथम दो श्रेणियों का रैफरल बहुत आसानी से रोका जा सकता है तथा रेडियोथरेपी के लिये विशेष उपकरणों की आवश्यकता होगी। दोनों उच्चाधिकारियों ने इस प्रोजेक्ट पर तुरन्त काम शुरू करने के आदेश दिये। डायलेसिस जो फ़िलहाल ठेकेदारी पर चल रहा है उसे जनवरी 21 तक अस्पताल अपने हाथ में लेकर स्वयं चलायेगा क्योंकि ठेकेदार तमाम तय शर्तों व नियमों का उल्लंघन करते हुए अपना धंधा चला रहा र्है।
सेक्टर 7 स्थित ईएसआई की जो इमारत खंडहर बन चुकी है, जिसे ठीक कराने के लिये बीते दो-तीन वर्षों से केवल पत्राचार चल रहा है, तुरन्त टेंडर जारी करके काम को निपटाने के आदेश भी दिये।
डीन द्वारा यह बताये जाने पर कि उनके यहां दफ्तरी बाबुओं की भारी कमी के चलते उनका काम बहुत बाधित होता है, दोनों उच्चाधिकारी हैरान हो गये। बोले कि विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी तो समझ में आ सकती है, लेकिन बेरोजगारी के इस दौर में बाबुओं की कमी समझ से बाहर है। इसके लिये जिम्मेवार रीजनल डायरेक्टर को हडक़ाते हुए तुरंत समाधान करने का आदेश दिया।
स्नात्तकोत्तर (पीजी) कार्यक्रम शुरू करने का जो निर्णय गत वर्ष ले लिया गया था उसकी प्रगति का जायजा लेते हुए वर्ष 2021 में इसे शुरू हो जाने की बात से वे संतुष्ट थे। विदित है कि पीजी पाठ्यक्रम शुरू हो जाने से पढने व पढ़ाने वाले कत्र्तव्यनिष्ठ डॉक्टरों की संख्या एकदम से का$फी बढ़ जायेगी। जिससे चिकित्सा सुविधाओं में काफी वृद्धि हो जायेगी।
यह सब तो ठीक है परन्तु इन उच्चाधिकारियों को इस ओर ध्यान देना चाहिये था कि इतने बड़े अस्पताल से डिस्पेंसरियों का जो काम लिया जा रहा है वह गलत है। इससे बचने के लिये डिस्पेंसरी व छोटे अस्पतालों के तंत्र को मजबूत किया जाय। दूसरे यह कि एमसी का पद घेरे बैठे कटारिया जैसे उन उच्चाधिकारियों से सख्ती से निपटा जाये जिनका एक सूत्री कार्यक्रम केवल चलते काम में रोड़े अटकाना है।
फैक्लटी की सेवा शर्तों में सुधार आवश्यक
व्यापारिक अस्पतालों के बड़े-बड़े लोभ लालच को दर किनार कर मैडिकल कॉलेजों में केवल इसलिये डाक्टर नौकरी करना पसंद करते हैं कि पढऩे-पढ़ाने के दौरान उनके ज्ञान और महारत में लगातार इजाफा होता रहे। हर दिन होने वाले शोध, नई-नई तकनीक व इलाज से संबंधित जानकारियां मिलती रहती है। संस्थानों की और से उन्हें राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार व कॉन्फ्रेंसों में भाग लेने का मौका मिलता है।
ईएसआईसी के इस मेडिकल संस्थान में इस तरह की सुविधाओं का नितांत अभाव है। एम्स में जहां फैकल्टी को प्रतिवर्ष 3 कॉन्फ्रेंस में भाग लेने का मौका मिलता है वहीं ईएसआईसी में दो साल में एक ही मौका मिलता है। इससे भी अधिक दुखदायी तो यह है कि यहां पदोन्नति की शर्ते कहीं ज्यादा कठिन हैं। दफतरी स्टाफ की कमी के चलते डॉक्टरों को डॉक्टरी के साथ-साथ कलर्की करते हुए तमाम तरह की ऐसी लिखत-पढ़त करनी पड़ती है। जो बाबुओं द्वारा की जानी चाहिये, जाहिर है इससे उन पर अतिरिक्त कार्यभार तो पड़ता ही है साथ में उनकी चिकित्सीय दक्षता का पूरा लाभ मरीजों को नहीं मिल पाता। इस तरह की अनेकों दिक्कतें यहां के डॉक्टरों को पेश आती है जिसकी वजह से उनकी दृष्टि सदैव बेहतर सेवा शर्तो वाले संस्थान खोजने में लगी रहती है।
सेवा शर्तो व काम करने की परिस्थितियों से असंतुष्ट अनेकों बेहतरीन फैकल्टी सदस्य यहां से नौकरी छोडक़र एम्स व ऐसे ही अन्य संस्थानों में चले गये हैं। डॉक्टरों के पलायन को रोकने के लिये यह जरूरी है कि ईएसआईसी देश के किसी भी संस्थान से बेहतर सेवा शर्ते लागू करे व सुविधायें प्रदान करें। यह सब सेवा सुविधाएं ऐसी हो कि जिससे आकर्षित होकर एम्स जैसे संस्थानों से बेहतरीन फैकल्टी यहां आकर काम करने लगे।
नर्सिग व अन्य स्टॉफ का भी महत्व कम नही है। यहां अधिकांश स्टाफ बरसों से ठेकेदारी में काम कर रहा है। जाहिर है ऐसे स्टॉफ को जब भी कोई मौका मिलता है वह यहां से निकल लेता है। ऐसे में यह संस्थान एक तरह का ट्रेनिंग सैंटर बनकर रह जाता है। यहां काम सीखों अनुभव प्राप्त करो और बेहतर मौका मिलते ही निकल लो। इसलिये ठेकेदारी की अपेक्षा नियमित स्टॉफ का होना जरूरी है।
मुख्यालय की मूर्खता का एक और नमूना
वार्ता के दौरान डीन ने दोनों उच्चाधिकारियों को बताया कि उनके मेडिकल कॉलेज अस्पताल के लिये पैरा मेडिकल स्टाफ की भर्ती एवं चयन करने का दायित्व गुडग़ांव स्थित ईएसआईसी के एक छोटे से (100 बेड वाले) अस्पताल पर है। वे न तो पर्याप्त मात्रा में भर्ती करते हैं और न ही मेडिकल कॉलेज की जरूरतों की ओर पर्याप्त ध्यान देते हैं। इसके अलावा जो भर्ती करते भी हैं उसमें से बेहतरीन कर्मचारियों को अपने पास रखकर अपेक्षाकृत निकम्मे लोगों को उनकी ओर धकेल देते हैं।
दरअसल मुख्यालय की इस योजना के पीछे जीडीएमओ (जनरल डयूटी मेडिकल अफसर), बनाम फेकल्टी के आधिपत्य का मामला है। विदित है कि ईएसआईसी की तमाम प्रशासनिक व्यवस्था पर जीडीएमओ का कब्जा रहता है जो साधारण एमबीबीएस होते हैं और फेकल्टी के अत्याधिक शिक्षित-प्रशिक्षित डॉक्टरों के प्रति कुंठा से ग्रसित रहते हैं। अपने जीडीएमओ वर्ग का आधिपत्य बनाये रखने के लिए प्रत्येक प्रशासनिक कार्य को अपने ही हाथ में रखना चाहते हैं। इसी सोच के चलते मेडिकल कॉलेज के इसी अस्पताल में एक जीडीएमओ को मेडिकल सुप्रिडेंट लगाकर तमाम तरह की वित्तीय व अन्य शक्तियां उसके हाथों में सौंप रखी थी और डीन हर काम के लिये उसका मुंह ताकता रहता था। यह तो एक सुझवान डीजी ने इस प्रथा को तोडक़र डीन को तमाम शक्तियां प्रदान की, तब कहीं जाकर यह अस्पताल चल पाया।