एक वोट लेने की भी हक़दार नहीं है, मज़दूर-विरोधी मोदी सरकार

एक वोट लेने की भी हक़दार नहीं है, मज़दूर-विरोधी मोदी सरकार
May 19 08:24 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
“चूंकि मज़दूरों की मौत का कोई आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है, इसलिए उन्हें मुआवजा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता” 14 सितम्बर, 2020 को संसद में बोलते हुए, तत्कालीन केन्द्रीय श्रम एवं रोजग़ार मंत्री संतोष गंगवार।

कितना क्रूर बयान है ये! बहुत विकराल संवेदनहीनता, कू्ररता और अमानवीयता चाहिए मुंह से ये अल्फ़ाज़ निकालने के लिए, जिसे सुनकर पूरा देश सन्न रह गया था। परिणाम सोचे बगैर घोषित सख्त लॉकडाउन के बाद अनंत यात्रा को मजबूर मज़दूर हर रोज़ चलते, बिलखते, मरते गए और मोदी की डबल इंजन सरकारों की पुलिस ने इन घर लौटते इन निरीह मज़दूरों पर लाठी-डंडे बरसा कर कहर बरपाया। देश के लोग जहां भी संभव हुआ उनके लिए लंगर, पानी के इंतेज़ाम कर रहे थे लेकिन मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया। कोई सरकार इतनी निष्ठुर, इतनी संवेदनहीन हो सकती है भला! हालांकि, सरकार ने ख़ुद स्वीकार किया कि एक करोड़ से भी ज्यादा मज़दूर, लॉकडाउन के बाद अपने घरों को लौट जाने को विवश हुए।

“नरेंद्र मोदी सरकार ने ज़रूरत के वक़्त, अर्थव्यवस्था और जनता दोनों को धोखा दिया है” मंत्री के बयान के अगले ही दिन, ‘द प्रिंट’ की ये हेडलाइन थी। 1947 के बाद से देश ने ऐसा भयावह पलायन, ऐसी मानवीय त्रासदी नहीं देखी। वजह थी 24 मार्च 2020 को बगैर किसी योजना, तैयारी अथवा पूर्व सूचना के क्रूर लॉक डाउन का ऐलान। अभूतपूर्व भयावह त्रासदी में ऐसी क्रूर प्रतिक्रिया दुनिया में किसी सरकार की नहीं हो सकती; “मुआवज़े का सवाल ही पैदा नहीं होता!”।

मोदी सरकार ने सिफऱ् क्रूरता ही नहीं दिखाई; झूठ भी बोला
कोरोना महामारी के शुरू होते ही मोदी सरकार की गैरजिम्मेदाराना, घोर संवेदनहीनता और आपराधिक लापरवाही के चलते जो करोड़ों विस्थापित मज़दूर उस अनंत, 1600 किमी तक की जीवन-मरण की यात्रा पर निकलने के लिए मज़बूर हुए और रास्ते में अवर्णनीय मुसीबतें झेलते हुए शहीद हो जाने वाले मज़दूरों की कू्रर हकीक़त देश का बच्चा-बच्चा जानता है। इसके बावजूद भी घोर मज़दूर विरोधी मोदी सरकार उन्हें कोई भी मुआवज़ा देने से इनकार कर सकती है, जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकती है, ये अंदेशा लोगों में मौजूद था। इसीलिए एक स्वयं-सेवी संस्था, स्वान (Stranded Workers Action Network, SWAN) के युवा कार्यकर्ताओं- छात्रों की ऊर्जावान टीम ने ये दुश्वार आंकडे उस भयानक महामारी के दरम्यान एकत्रित किए और मोदी सरकार तथा सुप्रीम कोर्ट के साथ साझा किए।

25 मार्च 2020 से 31 जुलाई 2020 के बीच, कुल 990 विस्थापित मज़दूरों ने अपने प्राण गंवाए जिनका पूरा ब्यौरा नाम, पता, उम्र, मृत्यु कि तारीख, मृत्यु का स्थान, राज्य, मृत्यु की वजह और उक्त सूचना का स्रोत, सभी जानकारियां दीं। ये जानकारियां https://thejeshgn.com/projects/covid/india/nonvirus-deaths/#Table  http://strandedworkers.in/modocuments-library/  पर मौजूद हैं।

कृपया नोट करें, इन आंकड़ों में कोरोना से हुई मौतें शामिल नहीं हैं। मौतों का आंकड़ा तो इससे कहीं अधिक था, ये तो स्वान के कार्यकर्ताओं ने अपने सीमित साधनों द्वारा इक_ा किए हैं, यदि व्यवस्थित ढंग से और पूर्ण संसाधनों के साथ आकलन किया जाता तो मज़दूरों की मृत्यु का आंकड़ा कहीं बड़ा होता। इनके अलावा, 9 से 27 मई तक, 19 दिनों में, श्रमिक रेलगाडिय़ों में, कुल 80 मज़दूरों की मौत हुई; ये रेलवे ने स्वीकार किया। “रेलवे में हो रही मौतों के लिए अत्यधिक गर्मी, थकान और प्यास मुख्य कारण हैं जिन्हें मज़दूरों को झेलना पड़ा।” हमें याद है, कैसे पंजाब से बिहार के लिए निकली रेलगाडिय़ां आंध्र और ओडिशा तक घूमकर आती थीं। आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता की ऐसी मिसालें शायद ही इतिहास में मिलें!

उस वक़्त, ‘स्वान’ की टीम द्वारा इक_े किए गए दिल दहलाने वाले अन्य आंकडे इस तरह हैं। अमानवीय लॉकडाउन कि वजह से अपनी झोंपडिय़ों में फंसे विस्थापित मज़दूरों में 96 प्रतिशत को, केंद्र अथवा राज्य सरकारों से कोई मुफ्त राशन नहीं मिला। फंसे हुए मज़दूरों में से 78फीसदी के पास कुल 300 या उससे कम रुपये ही बचे थे। 89 प्रतिशत मज़दूरों को अपने मालिकों द्वारा कोई वेतन नहीं मिला। मज़दूरों ने ‘स्वान’ टीम को ये भी बताया ‘न तो हमारे पास एक भी पैसा है और न अनाज का एक दाना’! सूरत में फंसे मज़दूरों ने बताया, “हमारे मालिक अभी भी हमें ये कहते हुए काम करने को मज़बूर कर रहे हैं कि काम करोगे तब ही खाने को मिलेगा। हमें खाना एक वक़्त ही मिल रहा है।”

हर्ष मन्दर और अंजलि भारद्वाज द्वारा दायर याचिका केस डायरी नम्बर 10801/2020 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश का बयान था; “अगर इन्हें (मज़दूरों को) खाना दिया जा रहा है तो इन्हें खाने के पैसे क्यों चाहिए।” जैसे-जैसे लॉक डाउन कि अवधि बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे बेकऱारी की तीव्रता वाली/भूखे होने की फोन कॉल भी बढ़ती जा रही थीं। “उनको ज्यादा ज़रूरत है हमसे, उनको दीजिएगा। हमारे पास इतना राशन है कि अभी दो दिन चल जाएगा” विकट परिस्थितियों में भी मज़दूर अपने साथियों के प्रति संवेदनशील थे।
विस्थापित मज़दूर मुआवज़े के हक़दार हैं

देश में लॉक डाउन से उत्पन्न भयानक परिस्थितियों द्वारा कुल 990 मज़दूरों ने अपनी जान गंवाई, मतलब 990 परिवार तबाह हुए। सरकार ने ये भी स्वीकार किया कि लॉकडाउन की वजह से कुल 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोजग़ार खोए। 4 फरवरी 2020 से लागू, वित्त मंत्रालय के ‘भरपाई कानून’ के अनुसार “कोई भी दुर्घटना होने पर विभाग इस बात कि परवाह न करते हुए कि ग़लती, लापरवाही अथवा कमी की वजह क्या है, और दूसरे किसी भी कानून में क्या लिखा है, इसे नजऱंदाज़ करते हुए विभाग इस तरह मुआवजा देगा:‘मौत अथवा गंभीर, स्थायी अपंगता अथवा दोनों होने पर कुल रु 10 लाख तथा दूसरी स्थायी अपंगता होने पर रु 7 लाख’। अत: विस्थापित मज़दूरों को मिलने वाले मुआवज़े/नुकसान भरपाई का मूल्य हुआ; 10,00,000 & 990 = 99 करोड़।

जो सरकार 10 सालों में धन्ना सेठों के 10 लाख करोड़ के कज़ऱ् माफ़ कर सकती है, वह गऱीब मज़दूरों के 990 परिवारों को तबाही से बचाने के लिए 99 करोड़ क्यों नहीं दे सकती? मज़दूर मोदी सरकार को क्यों वोट दें? इतना ही नहीं, मज़दूरों के पैसे से बन कर चलने वाला फरीदाबाद का ईएसआई मेडिकल अस्पताल भी कोरोना के नाम पर भाजपा सरकार ने मज़दूरों से छीन कर अपने कब्जे में कर लिया। निस्संदेह कोरोना जैसी महामारी से निपटने का दायित्व उस सरकार का बनता है जो अपनी जनता से इलाज के नाम पर स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर अंधाधुंध टैक्स वसूली करती है। जब सरकार वांछित सेवाएं देने में पूरी तरह से विफल हो गई तो उसने मज़दूरों के हक़ों पर डकैती मारते हुए उनके इस मेडिकल कॉलेज अस्पताल को छीन का जिला प्रशासन के हवाले कर दिया। जो मज़दूर उपचाराधीन थे उनको तुर्त फुर्त डिस्चार्ज कर भगा दिया गया नए आने वाले मज़दूर मरीजों को अस्पताल के गेट में घुसने ही नहीं दिया गया, अस्पताल के तमाम बिस्तर जिला प्रशासन के हवाले कर दिए गए, प्रशासनिक भ्रष्टाचार के चलते इस दौरान तमाम प्रशासनिक अधिकारियों ने खूब अंधी लूट मचाई। जब तमाम व्यापारिक अस्पतालों में बिस्तरों के दाम आसमान छू रहे थे उस वक्त प्रशासनिक अधिकारियों ने भी लूट कमाई में कोई कसर न उठा कर खूब चमड़े के सिक्के चलाए, जिसको जी चाहा बेड दिया जिसको चाहा नहीं दिया। फरीदाबाद के निर्बल मज़दूर आंदोलन के चलते यह प्रशासनिक गुंडागर्दी करीब दो साल तक चलती रही।

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Mazdoor Morcha
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