एक वर्ष पूर्व 26 नवम्बर 2020 जब कथित काले कानूनों के खिलाफ किसानों ने आन्दोलन की शुरूआत की उस वक्त इसके भविष्य के प्रति तरह-तरह की सवालों का बाजार गर्म था। देश के आम नागरिकों की जेब पर डाका मारने की नीयत से बनाए गये तीनों कृषि कानूनों को सरकार ने जिस तरह से बढा-चढा कर गोदी मीडिया के जरिए पेश किया इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होनी लाजिमी थी। लेकिन किसानों के कुशल नेतृत्व ने जिस प्रकार आन्दोलन का संचालन किया वह आज के युग में बेमिसाल है।
इसकी बजाए किसानों की दुर्दशा पर निगाह डाली जाए तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि यह आन्दोलन किसानों के लिये क्यों जीवन-मरण का मुद्दा बना। आज एक किसान की औसत आमदनी 27 रुपये है। पिछले 12 वर्षों में 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अकेले 2019 में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों के अनुसार 42480 किसानों व भूमिहीन मज़दूरों ने आत्महत्या की, जो सन् 2018 के आंकड़ों से 6 प्रतिशत ज्यादा है। हमारे देश की 54 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।
अधिकतर किसान कर्ज में डूबे हुए हैं कभी-कभी सब्जियों को मंडी तक पहुंचाने का किराया सब्जियों की कुल कीमत से ज्यादा बैठता है। ऐसे में अधिकांश किसान उन सब्जियों को सडऩे के लिये छोड़ देते हैं। प्रधानमंत्री किसान निधि योजना के तहत किसान को 6000 सालाना दिया जाता है। वो भी उन किसानों को जिनके पास दो एकड़ से कम जमीन है, जो 500 रुपये महीना पड़ती है। एक परिवार 4.8 यूनिट यानी लगभग पांच सदस्यों का मान लिया जाए, प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में 400 रु. आते हैं। यानी 13.33 रुपये प्रतिदिन जब कि भूमिहीन किसान को कुछ भी नहीं दिया जाता। विकसित देशों की तुलना में यह सब्सिडी ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है। असल मुद्दे पर आते हुए यह बताने की जरूरत नहीं कि तीनों कानून न केवल किसान बल्कि आम जनता के लिये घातक थे। उन्हें रद्द करवा कर किसानों ने आम जनता को कमर तोड़ महंगाई की मार से बचाया है। जिस के लिये किसानों की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सरकार द्वारा तीनों कानूनों को रद्द करने का फैसला किसी बात-चीत के जरिए नहीं लिया।
लेकिन जिस तरह अपनी मनमानी से तुगलकी तरीके से कानून लाये थे। उसी तरह किसानों के दबाव के तहत वापिस लिए हैं। बात-चीत के लिये किसानों की पहली शर्त थी कि तीनों काले कानून वापिस लिए जाएं। कानूनों को वापिस लिए जाने की शर्त सिर्फ बात-चीत शुरू करने के लिये थी न कि आन्दोलन वापिस लेने के लिये? बात-चीत के मुद्दे सर्वविदित है जिसमें एमएसपी का मुद्दा मुख्य मुद्दा है। बड़े-बड़े सरमाएदारों को अपने उत्पादों की अधिकतम कीमत लेने की छूट है। जैसे हम किसी भी उत्पाद पर एमआरपी यानी अधिकतम रिटेल प्राइस लिखा देखते हैं। लेकिन क्योंकि हमारे देश में ‘प्रजातंत्र’ है इसलिये प्रजा को मिनिमम यानी न्यूनतम कीमत का भी अधिकार नहीं। मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित है लेकिन किसानों को अपने उत्पादों की न्यूनतम कीमत लेने के लिये भी संघर्षरत होना पड़ रहा है।
अपने लोकतांत्रिक हकों के लिये लडऩा कानूनी अधिकार है जिसको सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है। फिर किसानों को इस कानून से वंचित कैसे रखा जा सकता है? यदि संक्षेप में कहा जाए तो ये कानून किसान को दर-दर की ठोकरें खाने के लिये मजबूर कर देते। मुक्त व्यापार यानी कहीं भी उत्पाद को बेचने की आजादी महज ढकोसला है। जिस किसान को अपनी फसल को मंडी तक लाने में पसीने छुटते हैं वो अपनी फसल बाहर ले जा कर बेचने की सोच भी नहीं सकता। कानून में अदालतों का प्रावधान उस से भी बड़ा मजाक है। अन्य क्षेत्रों में बने जिन कानूनों में समय सीमा निर्धारित की है, उतनी समय सीमा से अधिक में तो कभी-कभी एक तारीख मिलती है। भंडारण की छूट से किमतों के आसमान छूने से कम की बात सोची भी नहीं जा सकती। उक्त बातों के मद्देनज़र खास तौर पर जब केन्द्रीय सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह हो। किसानों को अधिक सावधानी पूर्ण आन्दोलन को आगे बढाना होगा और जिस तरह किसानों ने कुर्बानी देकर इन काले कानूनों को रद्द करा कर आम जनता को शोषण से बचाया है। उसी प्रकार आम जनता का भी किसानों को अपना भरपूर समर्थन देना वाजिब बनता है।