ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज का सत्यानाश करने की ओर बढ़ते सरकारी कदम 13 प्रोफेसरों के तबादले से फैकल्टी में हडक़ंप

ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज का सत्यानाश करने की ओर बढ़ते सरकारी कदम 13 प्रोफेसरों के तबादले से फैकल्टी में हडक़ंप
November 22 17:25 2023

फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) मज़दूरों के वेतन से वसूले गये अंशदान से चिकित्सा सेवाएं चलाने का जो जिम्मा भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के पास है उसी के तहत एनएच तीन का ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज अस्पताल चलाया जा रहा है। इसके लिये ईएसआई अधिनियम के तहत कॉर्पोरेशन का गठन किया गया है। कॉर्पोरेशन में अधिकारियों की तैनाती श्रम मंत्रालय द्वारा की जाती है। दुख की बात तो यह है कि मंत्रालय द्वारा ऐसे नालायक निकम्मे व हरामखोर अधिकारियों को नियुक्त कर दिया जाता है जिनका एकमात्र उद्देश्य वांछित चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने की अपेक्षा उनका बेड़ा गर्क करने का रहता है।

दिवाली से एक दिन पूर्व संस्थान के 13 प्रोफेसरों को उनके कार्यभार से मुक्त करके पूर्व घोषित संस्थानों में जाने का आदेश जारी कर दिया गया। करीब छ:-सात माह पूर्व 17 प्रोफेसरों के तबादला आदेश जारी किये गये थे। इनमें से किसी का रद्द कर दिया गया तो कोई अपनी रुचि के अनुसार तबादले पर चला गया। लेकिन अधिकांश प्रोफेसरों ने इसका विरोध किया। उन्होंने नियमानुसार अपना-अपना ग्रिवांस लिखकर मुख्यालय को भेजा था, जिसे अस्वीकार कर दिया गया।

तमाम प्रोफेसरों का कहना है कि कॉर्पोरेशन द्वारा नौकरी के लिये विज्ञापित विज्ञापन में एनएच तीन स्थित इसी संस्थान के लिये आवेदन मांगे गये थे। यदि उस विज्ञापन में लिखा गया होता कि उन्हें देश के किसी भी संस्थान में भेजा जा सकता है तो वे यहां भर्ती न हुए होते। इसके जवाब में मुख्यालय का तर्क यह बताया जाता है कि नियुक्ति पत्र देते समय तमाम प्रोफेसरों से तबादले की स्वीकृति ले ली गई थी। देखा जाए तो यह तर्क नहीं कुतर्क है क्योंकि भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के बाद नियुक्ति पत्र लेते समय अभ्यर्थी इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दे पाते।

दरअसल ईएसआई कॉर्पोरेशन में मेडिकल अफसरों के तबादले करने की नीति तो है, लेकिन फैकल्टी के लिये ऐसी कोई नीति नहीं थी। मुख्यालय में मेडिकल अफसर से उच्चाधिकारी बन बैठे लोगों को फैकल्टी के नियमों का न तो कोई ज्ञान है और न ही उनके कार्यों में कोई रुचि है। दरअसल वहां बैठे अधिकारी कभी नहीं चाहते थे कि यह तो क्या, कोई भी मेडिकल कॉलेज कॉपोरेशन द्वारा बनाया व चलाया जाए। इन संस्थानों को तो गले पड़ गये ढोल की तरह मानकर बजाने को मजबूर हैं। इन धूर्त अधिकारियों को फैकल्टी के कार्यक्षेत्र की न तो कोई समझ है और न ही कुछ समझना चाहते हैं। फैकल्टी वाले मरीजों का इलाज करनेे के अलावा छात्रों को पढ़ाने के साथ-साथ रिसर्च प्रोजेक्ट्स पर भी काम करते हैं। पदोन्नति के लिये इन्हें रिसर्च पेपर तैयार करके प्रकाशित कराने होते हैं। इन्हीं से इनके ज्ञान में वृद्धि होती है और वे चिकित्सा क्षेत्र में आने वाली नित नई तकनीकों व जानकारियों को ग्रहण करके जहां एक ओर अपने छात्रों को अच्छे से पढ़ा पाते हैं वहीं मरीजों को भी इसका लाभ मिलना निश्चित है।

इस संस्थान में आईसीएमआर (इन्डियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) जैसे सरकारी संस्थान के अलावा अन्य कई बड़े-बड़े संस्थानों के रिसर्च प्रोजेक्ट पूरे जोर-शोर से चल रहे हैं। इनके लिये करोड़ों रुपये की ग्रांट्स भी इस संस्थान को मिलती हैं। कोविड के दौरान पूरे हरियाणा में कोई जांच प्रयोगशाला थी, तो वह यहीं थी। इनकी प्रयोगशाला एम्स की प्रयोगशाला से भी बेहतर मानी गई थी। विदित है कि मात्र एमबीबीएस की डिग्री लेने भर से कोई डॉक्टर नहीं बन जाता। इसके लिये स्नातकोत्तर (पीजी) की पढ़ाई करके विशेषज्ञता हासिल करनी होती है। आज पूरे देश में ऐसे विशेषज्ञ डॉक्टरों की भयंकर कमी है। इस कमी को दूर करने में इस संस्थान ने अति सक्रिय भूमिका निभाते हुए 20 ब्रांचों में करीब 100 छात्रों को पीजी में दाखिला दे रखा है जो आने ेवाले वर्षों में विशेषज्ञ डॉक्टर बन कर बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं दे पाएंगे।

यह प्रोफेसर ही इन छात्रों के गाइड होते हैं। इन्हीं की गाइडेंस मेें छात्रों को,यूनिवर्सिटी द्वारा निधार्रित थीसिस लिखने होते हैं। इस तरह के थीसिस संस्थान में चल रहे किसी न किसी रिसर्च प्रोजेक्ट से जुड़े होते हैं। इन्हें पूरा करने मेें करीब डेढ़ साल तक का समय लग जाता है। अब समझिए कि जिस छात्र का गाइड ही बंगलुरू चला गया हो तो उसकी तो ऐसी तैसी हो गई न, लेकिन मुख्यालय को इससे क्या लेना देना।

नेशनल मेडिकल कमीशन की शर्तों के अनुसार किसी संस्थान में प्रोफेसरों की संख्या के अनुपात में ही पीजी की सीटें निर्धारित की जाती हैं। जाहिर है जब प्रोफेसरों के तबादले हो जायेंगे तो पीजी छात्रों की पढ़ाई तो गई भाड़ में, आने वाले समय में संस्थान को नई सीटें मिलने में भी कठिनाई का सामना स्वाभाविक रूप से करना पड़ेगा।

लेकिन दुर्भाग्य तो इस देश का यह है कि जिन धूर्त एवं हरामखोर अधिकारियों के जिम्मे कॉर्पोरेशन की ये चिकित्सा सेवाएं लगा रखी हैं उनकी कोई रुचि इन सेवाओं के प्रति नहीं है। ऐसे में उन्हें क्या तो पीजी की पढ़ाई से लेना है और क्या रिसर्च प्रोजेक्टों से? उन्हें तो हमेशा चिकित्सा सेवाओं का बेड़ा गर्क करने के मौके की तलाश रहती है। ये अधिकारी कदाचित नहीं चाहते कि तमाम अंशदाता मज़दूरों को पर्याप्त एवं वांछित चिकित्सा सेवा मिल सके। यदि इनकी जरा भी रुचि होती तो इनकी नाक के नीचे स्थित बसई दारापुर के मेडिकल कॉलेज मेंं हजार बेड होने के बावजूद केवल तीन सौ बेड ही न भरे रहते। केवल यही नहीं देश भर में कॉर्पोरेशन द्वारा संचालित अस्पतालों में केवल 38 प्रतिशत बेड ही भरे रहते हैं।

ऐसा नहीं है कि मरीज़ों की कमी के चलते आधे से अधिक बेड खाली पड़े हैं, इसका असल कारण सेवाओं में भयंकर कमी है। कॉर्पोरेशन के धूर्त अधिकारी मज़दूरों से वसूली करना तो जानते हैं परन्तु उन पर खर्च करने की बजाय अपना खजाना भरने में अधिक रुचि रखते हैं। इन्हीं कमियों के चलते दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुडग़ाव, मानेसर तथा अलवर मेडिकल कॉलेज तक के मरीजों को फरीदाबाद की ओर धकेल दिया जाता है। ऐसे धकेले गये मरीजों की संख्या प्रति दिन करीब 500 तक पहुंच जाती है। जबकि इस तरह धकेले गए हजारों मरीज तो चुपचाप अपना इलाज इधर उधर से करा लेते हैं।

इसके चलते एक ओर जहां मरीजों को आवागमन पर खर्च करना पड़ता है वहीं दूसरी ओर यहां के संस्थान पर भारी बोझ बढ़ता जाता है। इसके बावजूद पर्याप्त मात्रा में आवश्यक स्टाफ न देकर मुख्यालय इस संस्थान का गला घोंटने का प्रयास लगातार करता आ रहा है। ऐसे ही प्रयासों में से एक प्रोफेसरों का तबादला भी है।

मुख्यालय में बैठे अधिकारियों की धूर्त मानसिकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर तो वे व्यापारिक अस्पतालों को रेफर करने पर सख्त पाबंदी लगाते हैं तथा दूसरी ओर अपने अस्पतालों में सुपर स्पेशलिटी सुविधाओं के विकास में रुकावटें खड़ी करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते। उनकी तमाम अड़चनों एवं अड़ंगेबाजियों के बावजूद $फरीदाबाद के इस संस्थान ने सुपर स्पेशलिटी के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल की है, उनका संज्ञान लेते हुए तमाम तरह के आवश्यक संसाधानों की आपूर्ति करनी चाहिए थी। इसके विपरीत 510 बेड के इस अस्पताल में जहां भर्ती मरीजों की संख्या 950 तक पहुंच जाती है वहां आवश्यक स्टाफ 500 बेड का भी नहीं है। मुख्यालय की इस धूर्ततापूर्ण नीति से समझा जा सकता है कि वे नहीं चाहते कि यहां कोई सुपर स्पेशलिटी का काम चले, वे नहीं चाहते कि 510 की बजाय 950 तक मरीज़ भर्ती किये जाएंं। उनका अनकहा इशारा यही है कि उनसे कुछ सबक सीखो और अधिक सेवाएं देने की अपेक्षा आधे बेड ही भरा करो।

डॉक्टरों के तबादले में एक और बड़ी समस्या भाषा की आती है। यहां का डॉक्टर यदि तामिलनाडु, कर्नाटक,केरल आंध्रा आदि भेज दिया जाए तो और वहां के डॉक्टर हिंदी भाषी इलाकों मेें बैठा दिए जाएं तो क्या होगा? जाहिर है कि न तो मरीज डॉक्टर की भाषा समझेगा और न ही डॉक्टर मरीज की भाषा समझेगा, ऐसे में कौन किसका क्या इलाज करेगा यह समझने का कभी कोई प्रयास मुख्यालय ने नहीं किया, उन्हें तो केवल तबादला आदेश जारी करके अपने अहम को संतुष्ट करना होता है।

चार वर्ष पूर्व फैकल्टी तबादला नीति असफल रही थी
ईएसआईसी मुख्यालय में बैठे दिमाग से पैदल अधिकारियों ने कुछ समय पहले कोलकाता से एक तथा मुम्बई से पांच प्रोफेसरों का तबादला मेडिकल कॉलेज $फरीदाबाद के लिये कर दिया था। उन में से अब एक भी कॉर्पोरेशन की नौकरी में नहीं है। केवल कोलकाता वाली प्रोफेसर ने यहां बा-खुशी इसलिये ज्वाइन किया था कि वे कोलकाता से निकल कर दिल्ली के निकट आना चाहतीं थीं। फरीदाबाद आने के कुछ ही माह बाद उन्होंने कॉर्पोरेशन से त्यागपत्र देकर दिल्ली के किसी मेडिकल कॉलेज में ज्वाइन कर लिया।

मुम्बई से आने वाले प्रोफेसरों ने $फरीदाबाद ज्वाइन करते ही नौकरी छोडऩे के लिये तीन माह का नोटिस दे दिया जो कि एक जरूरी प्रक्रिया होती है। जाहिर है इसके बाद वे पांचों न फरीदाबाद के रहे और न ही मुम्बई के। दरअसल फैकल्टी स्तर के डॉक्टरों की मांग सरकारी संस्थानों के अलावा निजी संस्थानों में काफी रहती है। इसलिये ऐसे लोगों को कोई भी हाथों-हाथ ले लेता है। कॉर्पोरेशन की ऐसी ही बेहूदगियों के चलते मुम्बई मेडिकल कॉलेज की हालत लगभग छांयसा वाले अटल बिहारी मेडिकल कॉलेज जैसी हो चुकी है। संदर्भवश, अकेले मुम्बई शहर में 20 लाख से अधिक मज़दूर ईएसआई से जुड़े हैं, जिनके इलाज की कोई संतोषजनक व्यवस्था वहां नहीं है। कोलकाता वाले मेडिकल कॉलेज अस्पताल की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है।

प्रत्येक मेडिकल संस्थान उत्तम से अति उत्तम फैकल्टी रखने के लिये उन्हें अच्छी से अच्छी सुविधाएं प्रदान करते हैं ताकि वे उन्हें छोडक़र अन्यत्र कहीं भी जाने की न सोचें। इसके विपरीत ईएसआई कॉर्पोरेशन की नीति फैकल्टी को विशेष सुविधाएं देना तो दूर, अधिक से अधिक तंग करने की रहती है। इसी के चलते यहां के अनेकों एसोसिएट प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर यानी एक दर्जा नीचे होकर दिल्ली के संस्थानों में जा चुके हैं। कॉर्पोरेशन की ऐसी ही नीतियों के चलते अति उत्तम श्रेणी के अभ्यार्थी इनकी नौकरी में आने से गुरेज करते हैं; मजबूरी में केवल वही लोग इनकी नौकरी में आते हैं जिन्हें कहीं और जगह न मिले। इतना ही नहीं मजबूरी में आए लोग उचित अवसर मिलते ही यहां से भाग निकलने की जुगत में रहते हैं। जाहिर है इन हालात में कभी भी यहां बेहतरीन फैकल्टी विकसित नहीं हो सकती, जो थोड़ी बहुत हो पा रही है उसे उजाडऩे में जुटा है मुख्यालय।

लेकिन इन सब बातों से कॉर्पोरेशन को क्या लेना-देना जब उनका असल लक्ष्य अपने अंशधारकों को वांछित सेवा प्रदान करना ही न हो? कॉर्पोरेशन में काबिज धूर्त अफसरों का एक मात्र लक्ष्य मज़दूरों से अधिक से अधिक वसूली करके उन पर कम से कम खर्च करना है। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे न तो पर्याप्त एवं बेहतरीन स्टाफ रखना चाहते हैं और न ही इस्तेमाल होने वाले साजो-सामान व दवाएं आदि रखने को प्राथमिकता देते हैं। उनका यही उद्देश्य उन तमाम अस्पतालों में पूरा हो रहा है जहां 50 प्रतिशत से अधिक बेड खाली पड़े हैं कॉर्पोरेशन द्वारा की जा रही लापरवाही एवं उदासीनता के चलते मज़दूर अंशदान देने के बावजूद इलाज के लिये इनके पास जाने से गुरेज करते हैं बस, यही तो धूर्त अधिकारी चाहते हैं। फरीदाबाद का संस्थान उनकी इस धूर्ततापूर्ण इच्छा के विपरीत क्षमता से दोगुणे मरीजों का न केवल इलाज कर रहा है बल्कि सुपरस्पेशलिटी के वे इलाज भी कर रहा है जो एम्स सरीखे अस्पतालों में होते हैं। जाहिर है ऐसे में यहां का खर्चा तो बढ़ेगा ही जिससे मुख्यालय को बड़ी भारी तकलीफ रहती है।

दिल्ली में जितने भी मेडिकल संस्थान हैं, चाहे वे केन्द्र सरकार के हों या दिल्ली सरकार के, किसी में भी फैकल्टी का तबादला नहीं किया जा सकता। सफदरजंग, लेडी हार्डिंग तथा राम मनोहर लोहिया, ये तीनों डीजीएचएस के अधीन होने के बावजूद किसी भी फैकल्टी का एक दूसरे में तबादला नहीं कर सकते। एम्स की तो बात ही छोड़ दीजिये, वह तो अपने आप में ही एक स्वायत्त संस्थान है, यहां से तो तबादले का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसी के चलते सभी लोग इन संस्थानों में नियुक्ति को प्राथमिकता देते हैं।

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Mazdoor Morcha
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