दिल्ली में मज़दूरों की हुंकार, लेबर कोड के विरोध में आक्रोश मार्च

दिल्ली में मज़दूरों की हुंकार, लेबर कोड के विरोध में आक्रोश मार्च
November 20 15:01 2022

सत्यवीर सिंह
एक हाथ में लाल झंडा, दूसरे हाथ की मुट्ठी  दृढ़ता से बंधी हुई, चहरे पर आक्रोश और जुबां पर ‘इंक़लाब जिंदाबाद’; हद्दे-नजऱ तक, अनुशासित क़तार बद्ध, बे-खौफ़; दिल्ली की सडक़ों पर, वो जाना-पहचाना दिलक़श नज़ारा नजऱ आने लगा है. ये बिलकुल वही मंजऱ है, जो लुटेरे सरमाएदारों और उनकी ताबेदार सरकारों के दिल में गहरी दहशत पैदा करता है, जिसे वे देखना नहीं चाहते. ये ही वो मंजऱ है, जो बेहाल, दबे-कुचले, कमेरों-मेहनतक़शों के दिलों को उमंग और जोश से सराबोर कर देता है. ऐसे शक्ति प्रदर्शनों में, महसूस होता है, मानो शिराओं में बहता खून, कुछ ज्यादा गर्म हो गया है, दिल कुछ ज्यादा ही लय में धडक़ने लगा है, क़दम अपने आप उठ रहे हैं, सीना कुछ और चौड़ा हो गया है. शरीर और मस्तिष्क का ताल-मेल कुछ ज्यादा ही मधुर, लय-बद्ध हो गया है. सबसे आनंददायक होता है, अपनेपन का वो अहसास, जो अपने इर्द-गिर्द मौजूद, एक दम अंजान साथियों से महसूस होता है. सुर्ख परचम, मज़दूर के ज़हन में, निश्चित, एक जुर्रत को पैदा करता है.

‘मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान, मासा’, के आह्वान पर, 13 नवम्बर को रामलीला मैदान से राष्ट्रपति भवन तक होने वाली, मज़दूरों की ‘अखिल भारतीय आक्रोश रैली’ में भाग लेने के लिए, हरियाणा, पंजाब, यू पी, राजस्थान ही नहीं बल्कि देश भर से, असम, बंगाल, बिहार, उत्तराखंड झारखंड, उड़ीसा, के साथ ही सुदूर दक्षिण के राज्यों, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्णाटक, महाराष्ट्र, आदि से मज़दूरों के जत्थे, 12 की शाम को ही दिल्ली पहुँचने शुरू हो गए थे. दरअसल दो साल तक चली भयानक कोरोना महामारी में, जब लोगों को अपने सगों के अंतिम संस्कार के लिए भी जगह नहीं मिल रही थी, फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने, ‘आपदा को अवसर’ में तब्दील करते हुए, किसानों और मज़दूरों के अधिकारों पर तीखा हमला बोला था. मज़दूरों ने सदियों के संघर्षों और कुर्बानियों की बदौलत, सम्मानपूर्ण जि़न्दगी जीने के लिए, जो 44 अधिकार हांसिल किए थे, उन्हें निरस्त कर, 4 लेबर कोड के क़ानून पास किए थे. देश भर के मज़दूर, जो पहले ही अभूतपूर्व मंहगाई और बेरोजग़ारी में कराह रहे थे, जिनके वेतन तलहटी में पहुँचते जा रहे थे, इस हमले से बौखला उठे. देश भर के 16 क्रांतिकारी मज़दूरों के, साझा प्लेटफार्म, ‘मासा’ ने, जो 2017 में वज़ूद में आया था, मज़दूरों की भावनाओं को समझते हुए साल भर पहले ही, इस आन्दोलन का फैसला ले लिया था. उसी की तैयारी के लिए, पूर्वी भारत, दक्षिणी भारत एवं उत्तरी भारत में अलग-अलग तीन क्षेत्रीय कन्वेंशन भी सफलतापूर्वक आयोजित किए जा चुके थे. छ: सूत्री मांग पत्र के साथ, मासा के सभी घटक संगठनों ने, देश भर में, मज़दूरों के बीच सघन जागरूकता अभियान और पोस्टरों, पर्चों तथा सोशल मीडिया के इस्तेमाल से, ज़बरदस्त प्रचार अभियान चलाया था. ‘मज़दूर मोर्चा’ ने पिछले 4 सप्ताहों के अंकों में, इन चारों लेबर कोड द्वारा मज़दूरों के अधिकारों, स्वास्थ्य, सामाजिक व कार्य स्थलीय सुरक्षा आदि पर कितना भयानक प्रभाव पड़ेगा, इस पर तफ्शील से लिखा है.

मज़दूरों की मांगें इस तरह हैं;
1) मज़दूर विरोधी चार श्रम संहिताएँ तत्काल रद्द करो. श्रम कानून में मज़दूर पक्षीय सुधार करो.
2) बैंक, बीमा, कोयला, गैस-तेल, परिवहन, रक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि समस्त सार्वजनिक क्षेत्र-उद्योगों- संपत्तियों का किसी भी तरह का निजीकरण बंद करो;
3) सभी श्रमिकों को बिना शर्त, यूनियन गठन व हड़ताल-प्रदर्शन का मौलिक व जनवादी अधिकार दो. छटनी, तालाबंदी, ले-ऑफ गैरकानूनी घोषित करो;
4) ठेका प्रथा ख़त्म करो, फिक्स टर्म-नीम ट्रेनी आदि ठेका आधारित रोजग़ार बंद करो – सभी मज़दूरों के लिए 60 साल तक स्थाई नोकरी, पेंशन- मातृत्व अवकाश सहित सभी सामाजिक सुरक्षा और कार्यस्थल पर सुरक्षा की गारंटी दो. गिग-प्लेटफ़ॉर्म वर्कर, आशा-आंगनवाड़ी-मिड डे मील आदि स्कीम वर्कर, आईटी, घरेलू कामगार आदि को, सरकारी मज़दूर का दर्जा सहित, सभी अधिकार दो.
5) देश के सभी मज़दूरों के लिए दैनिक न्यूनतम मज़दूरी रु 1,000/ तथा न्यूनतम मासिक वेतन रु 26,000/ देना सुनिश्चित करो. बेरोजग़ारों को, रु 15,000/ मासिक बेरोजग़ारी भत्ता लागू करो. समस्त ग्रामीण मज़दूरों को पूरे साल कार्य की उपलब्धता की गारंटी दो.
6) प्रवासी व ग्रामीण मज़दूरों सहित सभी मज़दूरों के लिए पक्का आवास, पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य-क्रेच की सुविधा और सार्वजनिक राशन सुविधा सुनिश्चित करो.
मोदी सरकार का मज़दूर-विरोधी घिनौना चेहरा फिऱ हुआ बेनक़ाब
सुबह 11 बजे तक रामलीला मैदान, लाल झंडे, बैनरों, मज़दूरों के गाने-बजाने के उत्सव जैसे माहौल के बीच, मासा के घटक संगठनों के मज़दूर नेताओं के ज़ोरदार भाषणों से गूँजने लगा था. भले ‘राष्ट्रीय दरबारी गटर मीडिया’ ने, अपने चरित्र के अनुसार मज़दूरों के इस ऐतिहासिक जमावड़े को पूरी तरह नजऱंदाज़ कर चुप्पी साध ली, 25-25 पेज के बड़े बैनर के अख़बारों में, इसके बारे में एक शब्द भी नजऱ नहीं आया लेकिन मज़दूर इसका महत्व समझते हैं. वैकल्पिक मीडिया, जैसे वर्कर्स यूनिटी, मज़दूर समाचार आदि बड़ी तादाद में मौजूद थे. वैसे भी स्मार्टफोन के फेसबुक लाइव ने, ख़बरों को रोकना, आज नामुमकिन बना दिया है. देश भर के मज़दूर ये मंजऱ लाइव देख रहे थे. 2 बजे के कऱीब स्टेज के भाषण समाप्त होने से पहले ही, आकाश गुंजाते नारों के बीच, मज़दूरों ने ‘आक्रोश मार्च’ के लिए, सेना की तरह कतार बद्ध होना शुरू कर दिया था. उधर, दिल्ली पुलिस अपना ‘फज़ऱ्’ निभा रही थी. उसने पहले ही, रामलीला मैदान के पश्चिम वाले प्रमुख गेट पर, ऊँचे-ऊँचे बेरिकेड अड़ा दिए थे. बाक़ी सारे गेट तो पहले से बंद ही थे. पुलिस का इरादा रैली को गेट से बाहर निकलने ही नहीं देने का था, लेकिन मज़दूरों के आक्रोश को समझाने में पुलिस ने कोई ग़लती नहीं की और द्वार से पीले दैत्याकार बेरिकेड तत्काल साइड को सरका दिए.

मज़दूर रैली पूरी शान-ओ-शौक़त के साथ आगे बढ़ी, लेकिन जैसे ही वह ज़ाकिर हुसैन कॉलेज वाली लाल बत्ती पर पहुंची, पुलिस फिर आगे अड़ गई. मज़दूरों के संयम एवं अनुशासन की दाद देनी पड़ेगी, कि पूरे जोश-ओ-खऱोश और आक्रोश के बावजूद और दिल्ली पुलिस की इस भडक़ाऊ हरक़त के बाद भी कोई अनुशासनहीनता नहीं की, ज़बरदस्ती आगे बढऩे की जि़द नहीं की, बल्कि तुरंत वहीँ सडक़ पर बैठ गए. पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं था. रैली की अगली कतार में चल रहे मज़दूर नेताओं और दिल्ली पुलिस के अधिकारीयों के बीच गरमागरम बहस होती रही. पुलिस धीरे-धीरे थोड़ी पीछे हटती रही लेकिन एक साल पहले घोषित कार्यक्रम के घोषित रूट के बावजूद, रैली को वहीँ रामलीला मैदान के इर्द-गिर्द ही रोके रखा. अंत में मासा के 5 नेताओं के प्रतिनिधिमंडल को ज्ञापन देने के लिए, राष्ट्रपति भवन ले जाया गया, जहाँ सरकारी अधिकारीयों ने राष्ट्रपति महोदया की ओर से ज्ञापन को स्वीकार किया. उसके पश्चात ही मज़दूर आक्रोश रैली का समापन हुआ.

आज, ये सरकारी दस्तूर एकदम स्पष्ट हो गया है कि मज़दूरों के किसी भी विरोध कार्यक्रम को मंजूरी मत दो. एक साल पहले घोषित, मज़दूरों की इस शांतिपूर्ण एवं अनुशासित रैली को उस भाजपा-संघ सरकार ने नहीं निकलने दिया, जो अभी हाल ही तमिलनाडु में, जहाँ उनका कोई आधार नहीं है, नाज़ी परेडों के अंदाज़ में कुल 50 रैलियां निकालने के मुद्दे पर पूरी तरह अड़ी रही. 44 स्थानों पर रैलियां निकालने की इज़ाज़त मिलने के बाद भी, बाकी 6 स्थानों पर, आर एस एस की वर्दीधारी रैलियां निकालने की अनुमति मिलने तक, मोदी सरकार, तमिलनाडु राज्य सरकार की बांह मरोड़ती रही, ई डी/ सी बी आई की धमकियां देती रही, ‘न्याय व्यवस्था’ पर दबाव बनाती रही, और अंत में सभी रैलियां कर के मानी. दिल्ली हो या यू पी, हथियार लहराते हुए, उन्मादी-दंगाई भगवाधारियों की रैलियां, अक्सर होती रहती हैं. पुलिस अनुमति ना होने के बावजूद भी पुलिस उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है, उनकी आव-भगत को तैयार और तत्पर नजऱ आती है. कई बार उन भडक़ाऊ रैलियों का अंजाम खूनी दंगों में होता आया है. जहांगीरपुरी इसका ताज़ा उदहारण है. लेकिन वह भाजपा है, वह कुछ भी कर सकती है!! उनके लिए कैसा क़ानून और कैसा लोकतंत्र! कैसा भी दुर्दांत हत्यारा, बलात्कारी, फ्रौडिया हो, भाजपा का पट्टा गले में डालते ही संत हो जाता है! 13 नवम्बर को, मज़दूर रैली के मामले में, केंद्र सरकार की दिल्ली पुलिस का रवैया इसके बिलकुल विपरीत था क्योंकि वो मज़दूरों की रैली थी!! घोषित रैली के कार्यक्रम में लाख रुकावटें झेलने के बाद भी मज़दूरों ने संयम नहीं खोया, अनुशासन नहीं तोड़ा क्योंकि वे अपना फज़ऱ् जानते हैं.

मज़दूर-आन्दोलन की प्रचंड लहर खड़ी करने के लिए, संकीर्णतावादी सोच त्यागना ज़रूरी है
देश के मज़दूर आन्दोलन की सबसे तक़लीफ़देह कमज़ोरी ये है, कि देश में मज़दूर वर्ग की सही क्रांतिकारी पार्टी मौजूद नहीं है. इसी का नतीजा है, कि इस विशाल देश में अनगिनत क्रांतिकारी संगठन/ दल/ मंच अपने-अपने निश्चित दायरे में मौजूद हैं, जो किसी विशेष क्षेत्र अथवा किसी विशेष उद्योग के बीच कार्य कर रहे हैं. अकेले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में, जहां औद्योगिक मज़दूरों की कुल तादाद 2 करोड़ से भी ज्यादा है, ऐसे सैकड़ों क्रांतिकारी समूह/ मंच काम कर रहे हैं. मासा के 16 संगठन मिलकर भी, कुल क्रांतिकारी ऊर्जा के एक छोटे से हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका तरीका सही है, कि आपसी सैद्धांतिक मतभेदों पर चर्चा-डिबेट करते बैठने के बजाए, मुद्दों पर क्रांतिकारी कार्यक्रम के तहत काम की एकजुटता क़ायम हो, आन्दोलन के रास्ते में आगे बढ़ें और साथ ही वैचारिक डिबेट भी ज़ारी रहे जिससे एक सही लेनिनवादी क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा जाए. इस प्रक्रिया को इसकी अंतिम परिणति तक पहुँचाने के लिए, लेकिन, ये ज़रूरी है कि इस मंच का लगातार विस्तार होता जाए. छोटे दलों/ मंचों में भी और बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों में भी. ज्यादा से ज्यादा मज़दूरों को उनकी मुक्ति के संघर्षों से रु ब रु होने का मौक़ा मिले, जिससे अपनी राजनीतिक समझदारी बढ़ाते हुए और अपनी वर्ग चेतना के आधार पर वे ‘अपने’ दलों/ संगठनों को भी परख सकें. किसान आन्दोलन में हम देख चुके हैं कि संयुक्त किसान मोर्चा के अखिल भारतीय संयोजक, जब संघर्षरत किसानों को छोडक़र मोदी सरकार के सुर में सुर मिलाने लगे तो उन्हीं के संगठन ने उन्हें दुत्कार दिया, कोई उनके साथ नहीं गया, बस गाज़ीपुर बॉर्डर पर स्थित टेंट से उनकी तस्वीर फाड़ दी गई. खरपतवार की ऐसी निराई-गुड़ाई मज़दूर संगठनों में भी होनी तय है.

मासा के घटक संगठनों ने इस आन्दोलन की तैयारी के सिलसिले में, अनेक स्थानों पर साझा प्रचार अभियान भी चलाए लेकिन उनका तरीका उसी तंगनजऱी से ग्रस्त नजऱ आया, जिससे उनके संगठन जूझ रहे हैं. उनकी ओर से, उनके अपने उस संकीर्ण संगठनात्मक दायरे से बाहर झाँकने का कोई प्रयास नहीं हुआ. मसलन, एक स्थान पर, अगर मासा के किसी एक घटक की ही उपस्थिति है, तब भी सबने उसी दायरे में बंधकर ही प्रसार किया.

वहां मौजूद किसी भी स्थानीय संगठन से इस अभियान में शामिल होने को कहा भी नहीं गया. बल्कि, ऐसी अहेतियत बरती गई कि इस अभियान की भनक भी किसी अन्य मज़दूर को नहीं लगनी चाहिए. मज़दूर संगठनों में भी कुछ उसी तरह की प्रतियोगिता नजऱ आती है, जैसी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में होती है. ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ नारा लगाते रहो लेकिन नजऱ बस ‘अपने-अपने’ मज़दूरों पर ही केन्द्रित रखो!! दुनिया के मज़दूरों को एक होने में कोई दिक्क़त नहीं, लेकिन मज़दूर नेताओं को, मज़दूर संगठनों को बहुत बड़ी दिक्क़त है!! ये रोग क्रांतिकारी पार्टी की अनुपस्थिति से उपजे के कीटाणुओं से फैला है, जिसका उपचार होता नजऱ नहीं आ रहा. देश के स्तर पर, आन्दोलन में, विशाल पैमाने पर मज़दूरों की क्रियाशीलता की गरमाहट ही सही क्रांतिकारी पार्टी को जन्म देगी. वह मंजि़ल आनी भी निश्चित है.

‘क्रांति’ शोषित-पीडि़त बहुसंख्य समाज की अधिकतम क्रियाशीलता से संपन्न होने वाली एक जटिल प्रक्रिया है. देश जितना विशाल होगा, विविधतापूर्ण होगा, ये प्रक्रिया उतनी ही जटिल होगी. हर किसी की, ‘अपनी-अपनी क्रांति’ नहीं हो सकती. क्रांति पूर्व-निर्धारित (structured) तरीक़े से भी नहीं होती. मज़दूर वर्ग, निसंदेह, क्रांति का सबसे अगुवा दस्ता है. इसीलिए, ‘देश के, संगठित व असंगठित, सब मज़दूर हमारे साथ हों, जो साथ नहीं हो सकते वे नज़दीक हों, जो नज़दीक नहीं हो सकते वे भी हमारे बारे में सचेत हों, जागरुक हों’, इस लक्ष्य को लेकर चले बिना, हम अपनी मंजि़ल तक नहीं पहुँच सकते. ‘रस्म अदायगी नहीं, निर्णायक संघर्ष के लिए कमर कसो’, अगर हम ये रस्म अदायगी के लिए नहीं कह रहे, तो इसी नज़रिए से चलना होगा. इसके लिए हमें अपनी सारी संकीर्णताओं, जैसे असलियत उजागर होने के डर से कार्यकर्ताओं के बारे में होने वाली तुच्छ व ओछी ‘डील’, अमुक मंच को दूर रखने की हमारी बात माननी पड़ेगी क्योंकि हम मासा के पुराने ‘नम्बरदार’ हैं, आदि की चिंताओं से मुक्ति पानी अनिवार्य शर्त है. मासा एक सही प्रयोग है, तेज़ गति से अथवा अपेक्षाओं के अनुरूप ना सही, लेकिन 6 साल से सतत क्रियाशील है. इसके उजले पक्ष के साथ-साथ इसके भूरे पक्ष की भी पड़ताल करना ज़रूरी है, जिससे ये मंच और अधिक सशक्त हो, ज्यादा प्रभावशाली हो; हमारी इस समालोचना का यही मक़सद है.

क्रांति की वस्तुगत परिस्थितियां (objective condition) परिपक्व हैं. मौजूदा व्यवस्था अब दु:ख-तक़लीफों, बदहाली-कंगाली, मंहगाई-बेरोजग़ारी के सिवा, कुछ भी देने की स्थिति में नहीं रही. व्यवस्थाजन्य संकट असाध्य है, अगले साल और विकराल होगा; दरबारी सेवादार ‘विशेषज्ञ हकीम’ भी ये ही कहते नजऱ आते हैं. आत्मगत परिस्थितियां (subjective condition) तैयार करना हमारी सबकी ऐतिहासिक जि़म्मेदारी है.

हमारे देश में क्रांति सफल होने का मतलब, अकेले हमारे देश में ही नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया में क्रांति की ज्वाला का फैल जाना है. इतना ही नहीं, ये देश, 1917 का रूस भी बन सकता है. सही अर्थों में, चौथे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को भी जन्म दे सकता है जिसके परिणामस्वरूप, शोषण-उत्पीडन की ये मानवद्रोही पूंजीवादी-साम्राज्यवादी-फ़ासीवादी व्यवस्था, इस खूबसूरत धरती से ही विदा हो, सूपड़ा साफ़ हो, हमेशा- हमेशा के लिए, कभी ना लौटने के लिए. ‘मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान, मासा’, इस परियोजना में एक बहुत अहम भूमिका निभाएगा, इस उम्मीद के साथ हम उन्हें क्रांतिकारी बधाई, लाल सलाम प्रेषित कर रहे हैं.

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Mazdoor Morcha
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