प्रयागराज के महंत नरेंद्र गिरि की शिष्य के ब्लैक मेल के चलते आत्महत्या से मृत्यु के एक साल बाद सीबीआई/पुलिस ने उनके कमरे को खोला है, जहां से तीन करोड़ रुपये नकद, पचास किलो सोना, नौ क्विंटल घी और करोड़ों रुपये की संपत्ति के कागजात मिले। इतनी संपत्ति एक सामान्य दर्जे के महंत के कमरे से मिली है. इनसे बड़े-बड़े तो भारत में सैंकड़ों महंत होंगे, और कुछ तो और भी बड़े हैं, जिनके पास अकूत संपत्ति जमा है.
बड़े-बड़े पीठाधीश्वर, शंकराचार्य, विशाल मंदिरों के पुजारी, आश्रमों के बाबा, अखाड़ों के संत, ठाकूरबाड़ी के महंत और अनगिनत मंदिरों के स्वामियों के पास न जाने कितनी संपत्ति जमा है. यह सारी संपत्ति देश के लोगों ने ही तो दिया है. पर, इसका कोई भी उपयोग देश की भलाई या जनता के लिए नहीं होता. धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु, संत, महंत, बाबा, जगदगुरु, शंकराचार्य और अध्यात्मिक गुरु बने हजारों लोगों के पास गिरवी पड़ी देश की इतनी विशाल संपत्ति आखिर किस काम की? क्या इनका सदुपयोग देश के विकास के लिए नहीं हो सकता था?
क्यों पत्थरों को पूजने और पुजवाने वाले पुजारियों के पास इतनी संपत्ति यूँ ही बेकार पड़ी रहेगी? क्या इस संपत्ति का देश की जनता के लिए उपयोग अधर्म कहलाएगा?