विवेक कुमार फरीदाबाद (म.मो.) अखबार में फोटो देकर अपनी राजनीति कर लेने में सरकारों को कोई गुरेज नहीं होता क्योंकि इस देश में नया-नया पनपा मध्यम वर्ग के लिए आदिवासी का मतलब सिर्फ हिन्दी सिनेमा में बने जोकरों तक है। वे मानते हैं कि सिनेमा में जो जोकर मुंह पर काला नीला सफेद पेंट करके झींगा लाला झूँ झूँ करते हैं वही आदिवासी हैं। इससे अधिक कोई सोचता है तो बस ये कि 26 जनवरी के दिन अपने सिर पर सींग लगा कर और ढोलक बजा कर नाचने वाले आदिवासी होते हैं, इससे अधिक की आदिवासी पहचान तथाकथित गोबरपट्टी के भद्रजनों में कम ही है। यही मध्यम वर्ग अखबार भी पढ़ता है और उसमे मोदी जी की तस्वीर इन्ही अक्ल के अंधों के लिए छपती भी है। वरना क्या मजाल जो एक बहरूपिया जिनको उजाड़ रहा है उनके नाम पर वोट मांग सकता।
14 नवंबर की सुबह अखबार उठाया तो देखा मोदी के फुल साइज़ फोटो से लेकर अंदर तक के सभी पन्नों पर हरियाणा मुख्यमंत्री खट्टर, मध्यप्रदेश के बच्चों के मामा शिवपाल, झारखंड के मुख्यमंत्री सबने आदिवासियों को उनके दिवस पर बधाई दी और भरभर के अपनी फोटो छपवाई। मोदी सरकार ने लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में आदिवासी दिवस के फुल साइज़ पन्ने वाले विज्ञापन बांटे। पिछले साल इसी तरह ही ठीक भारत छोड़ो आन्दोलन दिवस के दिन मूल निवासी दिवस मनाने का ड्रामा मोदी सरकार ने शुरू किया था अमूमन आदिवासी ही मूलनिवासी भी हैं पर उनके हाल क्या हैं ये आंकड़ों की जुबानी देखें तो बढिय़ा रहेगा।
यूएनडीआरआईपी नाम से बने मसौदे को 22 सालों की जद्दोजहद के बाद यूएन जनरल असेम्बली ने 1. सितम्बर 2007 को आत्मसात किया। मात्र चार देशों अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड, और ऑस्ट्रेलिया को छोडक़र भारत समेत 144 देशों ने इसकी शर्तों पर हस्ताक्षर किये। इस मसौदे में मूलनिवासियों के लिए कुल 46 अधिकारों का प्रावधान है जिनमे मुख्य पांच प्रावधानों में आर्टिकल 4-आतंरिक व स्थानीय मामलों में आत्मनिर्भरता का अधिकार, आर्टिकल 5- राजनीतिक, और सांस्कृतिक मामलों में संस्था गठन का अधिकार, आर्टिकल 14- अपनी शैक्षणिक व्यवस्था बनाने का अधिकार जिसमे सरकारें उनकी मदद करेंगी, आर्टिकल 16 अपनी जबान में मीडिया बनाने और हर मीडिया हाउस में बिना भेदभाव पहुँच का अधिकार जिसे सरकार सुनिश्चित करवाए और आर्टिकल 0 कहता है कि आदिवासी इलाकों में कोई सैन्य गतिविधि नहीं होगी।
हालाकि यूएन के नियम बाध्यकारी नहीं हैं पर 144 देशों ने अपने राष्ट्र प्रतिनिधियों को महंगे नाश्ते और कबाब खिला, मोटा खर्चा कर ही दिया तो नैतिकता स्वरुप ही कम से कम कुछ लाज तो अपने ही खर्च की रखी जाती, जबकि ऐसा नहीं हुआ। इससे बेहतर तो वे देश थे जिन्होंने इस मसौदे को मानने से साफ़ मना कर दिया। भारत जैसे देश जिसके संविधान में आदिवासियों के लिए कई प्रावधान मौजूद हैं, ने यूपीए सरकार में वाह-वाही के लिए इसपर दस्तखत तो ज़रूर किये पर न खुद कांग्रेस ने इसे लागू कराया और मोदी ने तो इसपर विचार करना भी अपनी शान और सोच के खिलाफ समझा।
भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासी बाहुल्य इलाकों की पहचान की गई है और वहां रहने वाले आदिवासियों को कई विशेषाधिकार दिए गए हैं जैसे कि आदिवासी सलाह परिषद् का गठन जो आदिवासी अधिकारों से जुडी सलाह रा’यपाल को देंगे और इसी माध्यम से राष्ट्रपति तक भी सलाह पहुंचेगी जिसपर वह आदेश लागू करवा सकता है। आर्टिकल 29 भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा का अधिकार भी देते हैं। 1996 में पेसा कानून बना जो पांचवी अनुसूची के दायरे में रहने वाले आदिवासियों को कई पंचायती अधिकार प्रदान करता है। 2006 में एक वन अधिकार कानून भी बना जिसके तहत जंगल में खेती, लकड़ी बीनने जैसे कई हक़ दिए गए।
इन सबके बावजूद आदिवासियों के ज़मीनी हालत बद से बदतर होते गए हैं। दरअसल यह सभी अधिकार सजावटी गुलदस्ते बन कर रह गए हैं। आदिवासी हक़ में बने यूएनड्रिप और भारतीय संविधान व् अन्य विशेषाधिकारों के उलट भारत में यदि सीमावर्ती इलाकों को छोड़ दें तो आदिवासी इलाकों में ही सबसे अधिक सैन्य गतिविधियाँ होती हैं, जो पूंजीपतियों द्वारा की जाने वाली खनिज की लूट को सुचारु बनाते हैं। साथ ही आज तक भारत की मुख्य मीडिया में कोई भी आदिवासी मीडिया या किसी मुख्य मीडिया में उनका स्थान नहीं बना है। स्वशासन का अधिकार भी एक मजाक बन कर रह गया है। शिक्षा व्यवस्था के नाम पर मूलनिवासियों को क्या मिला ये किसी से छिपा नहीं है। आरक्षण के माध्यम से जो प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का काम सरकार का था उसी आरक्षण को सरकार तोड़-मोड़ के समाप्त भी कर रही है।
सरकार को अत्याचार में पीछे छोड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट भी वर्ष 2021 के अपने एक आदेश में आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का फरमान जारी कर दिया जिसका असर लगभग 11 लाख आदिवासियों पर पडऩा है। सामाजिक कार्यकर्ताओं की याचिकाओं के बाद फि़लहाल इस फैसले पर सिर्फ रोक लगी है जबकि फैसला जस का तस बना हुआ है। मजबूत वनाधिकारों व कानूनों के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार ने आदिवासी हकों को कोर्ट में डीफेंड नहीं किया, क्योकि सरकार वास्तव में चाहती ही नहीं कि मूलनिवासियों के अधिकार सुनिश्चित हों।