‘मज़दूर मोर्चा’ के सुधी पाठक बखूबी जानते हैं कि मुख्यालय पर काबिज़ जीडीएमओ गिरोह और डीन के बीच पहले दिन से ही छत्तीस का आंकड़ा चला आ रहा है। मज़दूरों से वसूले गये पैसों पर कुंडली मारे बैठा गिरोह कभी नहीं चाहता था कि मेडिकल कॉलेज बने, और बन भी गया तो चलने न पाये। उनके अपने इस लक्ष्य के लिये जीडीएमओ गैंग ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बनी-बनाई बिल्डिंग को कॉर्पोरेट के अलावा हरियाणा सरकार तक को सौंप कर छुटकारा पाने का प्रयास किया था। लेकिन डीन के साथ-साथ स्थानीय मज़दूर संगठनों के सतत प्रयासों के चलते यह मेडिकल कॉलेज विधिवत रूप से चल पाया।
मेडिकल कॉलेज भले ही जैसे-तैसे चल तो गया लेकिन जीडीएमओ गैंग ने हार नहीं मानी। मेडिकल काउंसिल ऑफ इन्डिया के नियमों को धता बताते हुए एमएस (चिकित्सा अधीक्षक) अपने ही गैंग में से लगा कर सारी वित्तीय शक्तियां उसी के हाथ में रखीं ताकि डीन अस्पताल को चलाने के लिये आवश्यक खर्चे न कर सकें। लेकिन डीन ने भी हार नहीं मानी। कभी डीजी, कभी श्रम सचिव तो कभी श्रममंत्री को स्थिति से अवगत करा कर, गिरोह द्वारा खड़ी की गई रुकावटों को धीरे-धीरेे दूर करते चले गये। इसकी बदौलत अस्पताल दिन दूणी-रात चौगुणी उन्नति करता चला गया। मात्र 510 बेड के इस अस्पताल में 950 तक मरीज़ दाखिल हो चुके हैं। प्रति दिन 4000-4500 मरीज़ ओपीडी में इलाज के लिये आते हैं। मज़दूर के कट कर अलग हुए हाथ को जोडऩे का कारनामा हो या हृदय के वाल्व बदलने का, बोनमैरो ट्रांसप्लांट करने का, एंजियोग्राफी- एंजियोप्लास्टी करने का, अस्सी मरीजों का रोजाना डायलीसिस करने का या सैंकड़ों कैंसर मरीजों का सफल उपचार करने का, इसका सारा श्रेय इस संस्थान को जाता है।
इतना ही नहीं प्रति दिन पांच-सात ऑपरेशन थियेटरों में सर्जरी करने, बेहतरीन स्त्री एवं प्रसूति विभाग की सेवाएं तथा आंख का कॉर्निया बदलने जैसे काम जो ईएसआई अस्पतालों में कभी सोचे नहीं जा सकते थे, वे सब यहां हो रहे हैं। और तो और विभिन्न बीमारियों के करीबन 500 मरीज दिल्ली, नोएडा, गुडग़ांव आदि से यहां रैफर कर दिये जाते हैं। इन्हीं कारणों से अस्पताल अपनी कार्य क्षमता से 150 प्रतिशत अधिक पर कार्य कर रहा है।
लेकिन इस सबके बावजूद जीडीएमओ गैंग अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आ रहा। अस्पताल पर आरोप लगाये जा रहे हैं कि यहां पर प्रति बेड खर्चा बहुत हो रहा है। खर्चा क्यों न बहुत हो जब कैंसर मरीजों को न तो रेफर किया जाता था और न ही महंगी दवाईयां दी जाती थी, उन्हें केवल मरने के लिये छोड़ दिया जाता था। यही हाल हृदय रोगियों के साथ भी होता था। सुपर स्पेश्लिटी के इतने काम बढ़ जाने के बावजूद अस्पताल में स्टाफ केवल 300 बेड के बराबर का ही है। ऊपर से तुर्रा यह कि खर्चा बहुत बढ़ा रखा है। संदर्भवश सुधी पाठक यह भी जान लें कि संस्थान के बेहतरीन काम-काज को देखते हुए अनेकों एनजीओ व औद्योगिक प्रतिष्ठान समय-समय पर करोड़ों रुपये के उपकरण इस अस्पताल को देते आ रहे हैं।
जीडीएमओ गैंग का तर्क यह है कि डीन असीम दास को इतना बेहतरीन काम करने की जरूरत ही क्या है जो यहां मरीजों की इतनी भीड़ जुटा ली है? उन्हें जीडीएमओ गैंग से कुछ सीखना चाहिये ताकि इतनी भीड़ न बढ़े। विदित है कि देश भर में कॉर्पोरेशन द्वारा चलाये जा रहे अस्पतालों में केवल 38 प्रतिशत बेड ही भरे रहते हैं, शेष 62 प्रतिशत इसलिये खाली नहीं रहते कि मज़दूर बीमार नहीं होते बल्कि इसलिये खाली रहते हैं कि उन्हें इलाज देने की बजाय रफा-दफा कर दिया जाता है। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं, दीपिका गोविल मेडिकल कमिश्नर बनने से पहले बसई दारापुर मेडिकल कॉलेज की एमएस थीं जहां 48 प्रतिशत बेड ही भरे हैं। इनसे पहले वाले मेडिकल कमिश्नर दीपक शर्मा भी उसी मेडिकल कॉलेज के एमएस रहे थे तो भी यही हाल था। इस मेडिकल कॉलेज के 1000 बेड में से केवल 600 को ही चालू रखा गया है, 400 बेड को तो पहले ही ताला लगा दिया गया। इन 600 में से भी 300 बेड बमुश्किल भरे रहते हैं। एक और मजेदार बात यह भी है कि यहां 18 विषयों में 100 से अधिक डॉक्टर पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं।
डीन : ‘‘मैने किसी को धक्का नहीं मारा, न ही कॉलर पकड़ा’’ ‘सारे मामले पर संस्थान के डीन से पूछने पर उन्होंने कहा कि जब वे लोग मेरे पास दफ्तर में आए तो मैने बाकायदा उनको बैठाया और बातचीत शुरू करने से पहले सूचना मिली कि ये लोग गार्डों के साथ मारपीट करके आए हैं। मुझे ये बुरा लगा, मैने इनसे कहा कि आप लोग जाइए आप से कोई बातचीत नहीं करूंगा, जब ये बाहर नहीं निकले तो मैने कहा कि ठीक है मैं ही जाता हूं और मैं उठकर बाहर जाने लगा, जब मैं निकलने लगा तो मेरे आगे आगे ये भी हो लिए। मैने न किसी को धक्का दिया न कॉलर पकड़ा।’
‘ये लोग कोई पहले ज्ञापन देने वाले नहीं थे यहां तो अक्सर ज्ञापन देने के लिए विभिन्न मज़दूर संगठनों के लोग आते रहते हैं और हम लोग गेट पर जाकर ज्ञापन तो लेते ही हैं और बैठ कर समस्या पर बातचीत भी करते हैं। लेकिन यह कोई तरीका नहीं होता डंडे लेकर फार्मेसी काउंटरों परें दवाई लेने को खड़ी महिलाओं के बीच घुसने और प्रयास करना और रोके जाने पर गार्डों पर हमला करना। यही लोग 30 अक्तूबर को भी मेरे पास उसी मरीज को लेकर आए थे जिसका मैंने तुरंत समाधान किया था। उस दिन राष्ट्रीय स्तर का सुविधा समागम ऑनलाइन चल रहा था जिसे डीजी संबोधित कर रहे थे। यदि कोई समस्या थी भी तो ये लोग भी डायरेक्ट डीजी से संवाद कर सकते थे, वैसे भी हम दिन प्रतिदिन मरीजों की समस्याएं सुुनने के अलावा हर महीने सुविधा समागम का आयोजन करते हैं। जिसमें कोई भी मरीज अपनी समस्या रख सकता है। झगड़ा करने आए लोग बीमाकृत भी नहीं थे।