‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’

‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’
November 07 15:29 2022

महान नवम्बर क्रांति अमर रहे

सत्यवीर सिंह
3 नवम्बर, 1917, को रूस की तत्कालीन राजधानी पेत्रोग्राद में, ‘उत्तर रुसी सोविएट्स’ की क्षेत्रीय कांग्रेस चल रही है. अध्यक्ष हैं, बोल्शेविक नेता, कॉमरेड क्राईलेनको. भारी बहुमत से प्रस्ताव पारित होता है “सारी सत्ता अखिल रुसी सोवियट कांग्रेस को सौंपी जाए और जेल में बंद बोल्शेविकों की रिहाई तत्काल की जाए.” रूस में समाजवादी क्रांति पक चुकी है. घटनाक्रम बिजली की रफ़्तार से बदलने लगता है, मानो धरती अपनी धुरी पर अचानक बहुत तेज़ घूमने लग पड़ी हो.

रेल यूनियन, रेल व संचार मंत्री, लिवारोव्सकी का स्तीफा मांग रही है. घोर जन-विरोधी केरेंसकी सरकार के विरुद्ध लोगों की नफऱत और गुस्सा चरम पर हैं. एक मंत्री रोते हुए अपील ज़ारी करता है, “पित्र-भूमि को बचा लो”. कोई ध्यान नहीं देता. 4 नवम्बर, रविवार को देश भर में आम दबे-कुचले लोग, जिन्हें कभी गिनती में नहीं लिया जाता, गंभीर राजनीतिक बहसों में मुब्तला हैं. पेत्रोग्राद सोविएट, सरकारी हमलावर कज़ाक टुकड़ी, जिसे धर्म को मुद्दा बनाकर भडक़ाकर हिंसक जुलूस निकालने को तैयार किया गया था, को अपील जारी करती है, “भाईयो, मज़दूरों और सैनिकों के साथ आपको भिड़ाने की सत्ता की चाल को समझिए..”. रात में भी मज़दूरों की असंख्य टोलियाँ, तीखी बहस करते हुए गस्त कर रही हैं.

5 नवम्बर, बोल्शेविक पार्टी का शीर्ष नेतृत्व, पेत्रोग्राद में स्थित ‘स्मोलनी संस्थान’ में, तेज़ी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रम पर लगातार, दिन-रात मीटिंग कर रहा है. मज़दूर बेचैन हैं, ‘हमें क्या आदेश हैं’. 6 नवम्बर, राजनीतिक तापमान उबाल के बिलकुल नज़दीक पहुँच गया है. केन्द्रीय कमेटी द्वारा एक ख़ुफिय़ा ‘विशिष्ट सेना कमेटी’ बनाई जा चुकी है. अपने प्रिय नेता लेनिन को, जिन्हें एक ख़ुफिय़ा जगह छुपे रहने की हिदायत थी क्योंकि केरेंसकी सरकार उन्हें गिरफ्तार कर मार डालना चाहती थी, ऐलान के साथ सामने लाया जाता है. मज़दूरों-मेहनतक़श किसानों-सैनिकों की हथियार बंद लाल सेना उस पार्टी हेड क्वार्टर को घेरकर चट्टान की तरह खड़ी है, किसी को भी आने नहीं दे रही. “भाईयो, बोल्शेविक गृह युद्ध छेडऩा चाहते हैं, खून-खऱाबा करना चाहते हैं”, केरेंसकी की लाचारी भरी आखऱी गुहार को कोई दो कौड़ी की क़ीमत नहीं दे रहा.

6 नवम्बर, दोपहर के बाद, बोल्शेविक पार्टी की सर्वोच्च ‘फौज़ी क्रांतिकारी कमेटी’ की वह अपील ज़ारी होती है, जिसका इन्तेज़ार, रूस के मज़दूर-किसान और मित्र सैनिक ही नहीं, इतिहास कर रहा था. “सैनिको, मज़दूरो और प्यारे नागरिको, जनता के दुश्मन, कल रात से हमलावर हो गए हैं. मार-काट मचवाने के लिए, हत्यारों, कोर्निलोव (ख़ूनी फ़ौजी जनरल) के लगुए-भगुओं को, देश भर से इकठ्ठा किया गया है. मज़दूरों की ‘फौज़ी क्रांतिकारी कमेटी’ ये निर्देश देती है कि षडयंत्रकारियों के हमलों का जवाब दिया जाए. पेत्रोग्राद के सारे सर्वहारा और उनकी फौजी टुकड़ी, दुश्मन का फन कुचलने के लिए तैयार हैं और सक्षम है. आप सभी को ये आदेश दिया जाता है; इसी वक़्त से, पार्टी के सारे संगठन और जन-संगठन लगातार आपातकालीन चौकसी के साथ तैयार रहेंगे, दुश्मन की हर चाल पर पैनी नजऱ रखेंगे, एक भी मज़दूर-सैनिक बिना इज़ाज़त कहीं नहीं जाएगा. हर टुकड़ी से 1 और हर सोविएट वार्ड से 5 सैनिक तत्काल यहाँ स्मोलनी हेड क्वार्टर भेजे जाएँ.

पेत्रोग्राद सोविएट के सभी डेलिगेट जल्दी ही यहाँ पहुँच रहे हैं. प्रति-क्रांति को कुचलना है. मज़दूरों के सारे ख़्वाब ख़तरे में हैं. लेकिन क्रांतिकारी शक्तियां क्रान्ति की दुश्मन शक्तियों से कहीं ज्यादा ताक़तवर हैं. इस देश का भविष्य अब आपके मज़बूत हाथों में है. कोई शंका नहीं, कोई चिंता नहीं. पूरी मज़बूती, ताक़त, हिम्मत और अनुशासन के साथ डट जाओ. क्रांति अमर रहे!!

ये ऐतिहासिक आदेश, मज़दूरों के गौरवशाली इतिहास का आगाज़ करने वाला दस्तावेज़ था. रूस के मज़दूर, पूंजीवादी लुटेरों, उनके भाड़े के टट्टुओं और सबसे ज्यादा उनके ‘भक्त समुदाय’ से, बहुत पुराना हिसाब बराबर करने को बेताब थे. हाथों में लाल झंडे और जो हाथ लगा उसे लेकर, उसी वक़्त से दुश्मन वर्ग पर टूट पड़े.

कालजयी समाजवादी क्रांति काफ़ी हद तक तो 6 और 7 नवम्बर की रात ही संपन्न हो चुकी थी. सभी अहम इदारों, जैसे डाक व तार विभाग, रेलवे, रुसी स्टेट बैंक पर सुबह लाल झंडे लहरा रहे थे. बोल्शेविक लड़ाकों और ट्रेड यूनियनों ने, ये दफ़्तर अपने क़ब्ज़े में ले लिए थे.

7 नवम्बर की सुबह, लेनिनग्राद की नेव्हा नदी में लंगर डाले, ‘क्रूजऱ औरोरा’ की तोप गरज़ उठी और रूस के सदियों से दबे-कुचले, मज़दूरों-मेहनतक़श किसानों ने शीत प्रासाद पर धावा बोल दिया. गुस्से में तमतमाई, हाथों में लाल झंडे थामे, लाल सेना ने, अपने महान नेता लेनिन की रहनुमाई में, उस दिन वो कर दिखाया, जो कोई नहीं कर पाया था. सचमुच दुनिया हिल उठी थी. देशी और विदेशी लुटेरे थर्रा गए. ये क्या हो गया? ये लोग चाहते क्या हैं? क्या मांग रहे हैं? रूस के जांबाज़ लड़ाके, उस दिन मांगने नहीं निकले थे. बहुत हुआ मांगना! बहुत दिनों झेली थी, वो जि़ल्लत, अब नहीं! राज सत्ता चाहिए; कोई सौदेबाज़ी नहीं, कोई पंचायत नहीं. सारा उत्पादन, हम करते हैं, हम उपभोग करेंगे. मुनाफ़ाखोर बिचौलियों का क्या मतलब? हम मालिक हैं, हम सत्ता संभालेंगे; उस दिन ये समझाने निकली थीं बोल्शेविकों की अनंत टुकडिय़ाँ. आज मांगने की बारी थी, लुटेरा जमात की, जिसे मज़दूर ना-मंज़ूर कर चुके थे. ना भूलेंगे, ना माफ़ करेंगे. शाम होने तक सत्ता के केंद्र, शीत प्रासाद पर लाल झंडा शान से लहराने लगा था. रूस के मेहनतक़श आज सारा हिसाब बराबर करने निकले थे, बे-खौफ़, बेझिझक. अपने प्रिय नेता की रहनुमाई में उस दिन, वे, इतिहास गढ़ रहे थे, वह सुनहरा इतिहास, जिसे 46 साल पहले, फ्ऱांस के दिलेर कोम्युनार्ड गढ़ कर भी नहीं गढ़ पाए थे.
सर्वहारा के महान नेता, लेनिन की विलक्षण क्रांतिकारी नेतृत्वकारी क्षमता का ही नतीज़ा था कि क्रांति को पूरा पकने दिया. उस नाज़ुक वक़्त को, उस अवसर को पढऩे में कोई चूक नहीं की, जो इतिहास रोज़-रोज़ नहीं देता. ‘हमें इसी वक़्त क्रांति करनी होगी वर्ना ये सर्वहारा वर्ग से गद्दारी होगी’, लेनिन वह देख पा रहे थे जिसे ‘स्वयं घोषित लेनिन’ नहीं देख पाते. ना सिर्फ  वस्तुगत परिस्थितियों को पढऩे में कोई ग़लती नहीं की, बल्कि महान लेनिन ने, एक निहायत ही पिछड़े देश में, जहाँ औद्योगिक विकास नहीं हुआ था, अपनी पार्टी, ‘रुसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी (बोल्शेविक)’ को बहुत ही कठिन परिस्थितियों में, बहुत ही थोड़े समय में, उस स्तर तक मज़बूत बनाया, जो बिना किसी खून खऱाबे के सत्ता हांसिल करने में क़ामयाब रही. लेनिन के व्यक्तित्व की विशालता और महानता की एक और मिसाल देखिए. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि समाजवादी क्रांति पहले औद्योगिक रूप से विकसित देशों जैसे, फ्रांस, इंग्लैण्ड में होगी.

लेनिन ने कहा कि ये पूंजीवाद की अंतिम चरम अवस्था साम्राज्यवाद का युग है, और इस ज़ंजीर को वहां से तोडऩा आन होगा जहाँ कड़ी सबसे कमजोर है.

रूस में समाजवादी क्रांति सबसे पहले हो, ये संभव है. यही आज का मार्क्सवाद है. लेनिन ने मार्क्सवाद का विस्तार किया, ये कहना अकारण नहीं है.

“जो सदियों में नहीं हुआ, क्रांतिकारी परिस्थितियों में वह सप्ताह में घटता है”, क्रांति के वक़्त की सामाजिक प्रसव पीड़ा की सटीक व्याख्या की, लेकिन इस कथन को जुमला बनाकर, अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिए सुरक्षा कवच की तरह कभी इस्तेमाल नहीं किया. 1902 से 1912 के बीच के 10 कठिन सालों में उनकी पार्टी पहले टूटी, फिर एक हुई और फिर टूटी. तीनों वक़्त ‘जनवादी केन्द्रीयता’ की अलग-अलग व्याख्या की और हर बार सही साबित हुए. ये लेनिन ही कर सकते थे. मेन्शेविक नेता मार्तोव को भी ये कहना पड़ा; ‘कभी-कभी लेनिन, हमसे भी ज्यादा मेंशेविकों जैसी बातें करते हैं!!’ हमारे देश में मौजूद कम से कम 30-35 ‘लेनिन’, उनकी उन्हीं व्याख्याओं को अपनी सुविधानुसार, संगठन बनाने में अपनी नाकामियों के बचाव में, कार्यकर्ताओं में इस विषय पर बहस को छिडऩे से रोकने के लिए, दनादन इस्तेमाल करते जाते हैं. लेनिन के उद्धरणों को, पार्टी में आतंरिक जनवाद, कार्यशैली पर उठने वाले सवालों, उनके व्यक्तिगत जीवन से सम्बंधित सवालों पर, मतभेद का गला घोंटने के लिए रस्सी की तरह इस्तेमाल करते हैं.

कोई भी सवाल उठाया, मतलब गद्दार!! लेनिन, वस्तुगत परिस्थितियों (subjective condition), मतलब अपना पार्टी संगठन ना बना पाते, ‘दस दिन में वो हो जाएगा जो दशकों में नहीं हुआ’ सोचकर, किसी भी आन्दोलन की लहरों पर सवार होने के ख़्वाब का इन्तेज़ार करते बैठे होते, तो क्या क्रान्ति कर पाते? क्रांतिकारी परिस्थितियां परिपक्व हैं लेकिन क्रांतिकारी संगठन नदारद है, क्या ये बे-वज़ह होता है? इस गंभीर मसले पर गंभीर अप्रिय बहस को छोड़, क्रांतिकारी लहरों पर कैसे सवार हुआ जा सकता है?

रुसी क्रांति को ‘अक्तूबर क्रांति’ कहा जाए या ‘नवम्बर क्रांति’? इस प्रश्न के उठने की वज़ह ये है कि उस वक़्त रूस में जूलियन कैलेंडर चलता था, जो सारी दुनिया में इस्तेमाल हो रहे ग्रेगोरियन कैलेंडर से 13 दिन पीछे था. रुसी क्रांति जो 7 नवम्बर 1917 को हुई, वह वहां के उस वक़्त के केलिन्डर के अनुसार 25 अक्तूबर को हुई. फरवरी 1918 के बाद वहां भी, दुनियाभर की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर ही इस्तेमाल होने लगा है. इसलिए अब इसे नवम्बर क्रांति कहना ही उचित है.

रुसी क्रांति 25 अक्तूबर की बजाए 18 अक्तूबर को शुरू होनी थी लेकिन इस गोपनीय और अत्यंत संवेदनशील जानकारी को केन्द्रीय कमेटी के ही दो सदस्यों, जिऩोविव और कामानिव ने अखबार में लेख लिखकर ज़ाहिर कर दिया. लेनिन गुस्से में आग-बबूला हो गए क्योंकि इससे हज़ारों कार्यकर्ता मारे जा सकते थे. उन्होंने उन दोनों को केन्द्रीय कमेटी और पार्टी से निकाल दिया. बाद में ग़लती मान लेने पर उन्हें वापस उसी पोजीसन में ससम्मान वापस लिया. किसी मीटिंग में केन्द्रीय कमेटी के किसी फैसले पर सवाल उठाने पर वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को, जिनमें कई, क्रांति के लिए, अपना घरबार छोड़ चुके होते हैं; गद्दार, पेटी बुर्जुआ कीटाणुग्रस्त बताकर, ज़लील कर पार्टी से निकाल डालने वाले, कितने ‘लेनिन’ ऐसा कर पाएँगे? क्या ये बे-वज़ह है कि खुद को सर्वहारा का राष्ट्रव्यापी ठेकेदार बताने वाली पार्टियों की तरफ़ सर्वहारा उमड़ नहीं पड़ रहा?

क्रांति क़ामयाब होने के बाद, प्रथम विश्वयुद्ध से रूस को अलग करना, गृह युद्ध को जीतने के लिए बहुत अहम था. उसके लिए जर्मनी से युद्ध संधि होनी ज़रूरी थी. जनवरी 1918 में ट्रोट्स्की को ब्रेस्ट लितोव्स्क संधि पर दस्तख़त करने भेजा गया. वे वहां जाकर उसके लिए राज़ी नहीं हुए. लेनिन के कहने के बाद भी हस्ताक्षर नहीं किए, वापस आ गए. उन्हें फिर संतुष्ट कर भेजा गया. जर्मनी ने और अपमानजनक शर्तें रखीं. संधि हुई. वे वापस आए और पार्टी में उसी पोजीशन पर बने रहे. क्या कोई भी देसी ‘लहरी क्रांतिकारी’ अपनी पार्टी में ऐसा सोच सकता है? मैक्सिम गोर्की, लेनिन की नीतियों की आलोचना करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे. उनकी नज़दीकी, लेनिन की पार्टी के साथ वैसी ही बनी रही, एक बार भी उनके सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली बात पार्टी में नहीं हुई. ‘हम असली क्रांतिकारी, बाक़ी सब डुप्लीकेट’, हम ‘सच्चे लेनिनवादी बाक़ी सब संशोधनवादी’, वाली ज़मात ये बर्दाश्त करे; सवाल ही पैदा नहीं होता, भले सारी पार्टी में एक बस में सवार होने लायक ही क्यों ना रह जाएँ. किसी भी मुद्दे पर मतभिन्नता, गद्दारी है, सोच की ये सैद्धांतिक विकृति, हमारे देश जैसी प्रचंड शायद हीकहीं रही हो. कम्युनिस्ट संगठनों की दुर्दशा में इस बीमारी का बहुत अहम योगदान है. सम्प्रदायवाद (sectarianism) का घातक रोग इसी से पनपता है.
क्रांति का मतलब क्या है? इतिहास में क्रांतियाँ क्यों हुई हैं और आगे भी क्यों होंगी?

‘एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग से राज सत्ता छीन लेना’, क्रांति की सबसे संक्षिप्त परिभाषा है. मौजूदा समाज के गर्भ में समाजवादी क्रांति पल रही है. मतलब, पूंजीपति वर्ग को बलात सत्ता से उखाडक़र, सर्वहारा वर्ग सत्ता संभालेगा. ये कब होगा, नहीं कहा जा सकता लेकिन इसका होना लाजि़मी है, अवश्यम्भावी है. ऐसा कहने की क्या वज़ह है? क्या ये ज्योतिषियों द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणी है या वैज्ञानिक कथन है? इन सवालों का जवाब जानने के लिए कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स द्वारा 1848 में रचित मात्र 40 पृष्ठ की पुस्तिका ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ (Communist Manifesto) से बेहतर स्रोत नहीं हो सकता. “जिन हथियारों से बुर्जुआ वर्ग ने सामंतवाद को पराभूत किया था, वे अब स्वयं बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध ही तन जाते हैं. किन्तु बुर्जुआ वर्ग ने केवल ऐसे हथियार ही नहीं गढ़े हैं, जो उसकी मृत्यु को नज़दीक लाते हैं, बल्कि उसने उन लोगों को भी पैदा किए हैं जिन्हें इन हथियारों को इस्तेमाल करना है—आज के मज़दूर, सर्वहारा वर्ग…जिन पेशों के सम्बन्ध में अब तक लोगों के मन में आदर और श्रधा की भावना थी, उन सभी का प्रभामंडल बुर्जुआ वर्ग ने छीन लिया है. डॉक्टर, वकील, पुरोहित कवि और वैज्ञानिक, सभी को उसने अपने वेतनभोगी उजरती मज़दूर बना लिया है. बुर्जुआ वर्ग ने परिवार के ऊपर से भावुकता के परदे को उतर फेंका है और पारिवारिक सम्बन्ध को मात्र एक धन-सम्बन्ध में बदल दिया है.”

मार्क्स एंगेल्स आने वाले वक़्त की सटीक व्याख्या इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होंने सामाजिक विकास के मूल दर्शन ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ को महज़ विकास को जानने के लिए ही नहीं, बल्कि उसे बदलने के लिए किया. मार्क्स-एंगेल्स आगे लिखते हैं. “मध्यवर्ग के निचले स्तर-छोटे व्यापारी, छोटे दुकानदार और सामान्यत: किरयाजीवी, दस्तकार और किसान—ये सब धीरे-धीरे सर्वहारा की कतारों में लीन होते जाते हैं,….लेकिन उद्योग के विकास के साथ-साथ सर्वहारा की सिर्फ संख्या में ही वृद्धि नहीं होती, बल्कि वह बड़े-बड़े संस्थानों में केन्द्रित होता जाता है, उसकी ताक़त बढाती जाती है और उसे अपनी इस ताक़त का अधिकाधिक एहसास होने लगता है…अंत में जिन दौरों में वर्ग संघर्ष निर्णायक घडी के नज़दीक पहुंच जाता है, उनमें शासक वर्ग के भीतर, वस्तुत: सम्पूर्ण पुराने समाज के भीतर चल रही विघटन की प्रक्रिया इतना प्रचंड और सुस्पष्ट स्वरूप ग्रहण कर लेती है कि शासक वर्ग का एक छोटा-सा अंशक उससे अलग हो जाता है और क्रन्तिकारी वर्ग के साथ, उस वर्ग के साथ, जिसके हाथ में भविष्य होता है, आ मिलता है.”

पूंजीवाद के मौजूदा साम्राज्यवादी दौर में क्रांति की अनिवार्यता और उसके अन्तर्निहित नियम को रेखांकित करते हुए कार्ल मार्क्स अपनी ऐतिहासिक रचना, ‘पूंजी’ (खंड 1) क्रांति की अनिवार्यता बताते हुए लिखते हैं. “विकास के सारे मुनाफ़े को अकेले ही निगल जाने वाले, तादाद में लगातार कम होते जाते, पूंजी के पहाड़ों के साथ-साथ; दुख, उत्पीडऩ, गुलामी, पतन और कंगालीकरण का महासागर भी बढ़ता जाता है; और इसके साथ ही बढ़ता जाता है मजदूर वर्ग का विद्रोह भी, ऐसा वर्ग जो तादाद में हमेशा बढ़ता जाता है, और पूंजीवादी उत्पादन के नियम के तहत ही अनुशासित, एकजुट और संगठित होता जाता है. पूंजी की इज़ारेदारी उत्पादन प्रक्रिया, उसकी बेडिय़ाँ बन जाती हैं, जो इसी से पैदा होकर फली-फूली हैं. उत्पादन के साधनों का अधिकाधिक केंद्रीकरण और श्रम का अधिकाधिक समाजीकरण, अंत में एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाता है, जहां उसका अपने पूंजीवादी आवरण के साथ तालमेल बैठना असंभव हो जाता है. बेडिय़ाँ तब टूटकर बिखर जाती हैं. पूंजीवाद का खोल चटक जाता है. लुटेरे लुट जाते हैं.”

क्रांति की वस्तुगत परिस्थितियां आज पक चुकी हैं. इस व्यवस्था की सड़ांध निोंदिन तीखी होती जा रही है. मंहगाई, बेरोजग़ारी, अफऱातफऱी सर्वव्यापी होती जा रही है. इनमें कोई समस्या सुलझेगी, ऐसा दावा अब इस निज़ाम के ताबेदार सेवकों, सरकारों ने भी करना बंद कर दिया है. मुट्ठीभर  हिस्से को छोड़, सारे समाज का कंगालीकरण घनघोर हो रहा है. शोषित-पीडि़त लोग आक्रोशित हैं लेकिन क्या करें, किधर जाएँ, समझ नहीं आ रहा. मनोगत परिस्थितियों मतलब सही क्रांतिकारी पार्टी की कमी ना सिफऱ् तूफ़ान और सैलाब को उठने से रोक रही है, बल्कि इस आक्रोश और बेचैनी को फ़ासीवादी अँधेरी गली की तरफ़ मुड़ जाने की आशंकाएं प्रबल कर रही है.

व्यवस्था का असाध्य संकट क्रांतियों को जन्म देता है, लेकिन अगर मनोगत परिस्थितियां उसके अनुरूप ना हों तो प्रति-क्रांतिकारी फासीवादी विनाश की अँधेरी गुफ़ा खुल जाती है, जैसा होता, अब दुनियाभर में हर तरफ़ नजऱ आ रहा है. मनोगत परिस्थितियों की एकमात्र कमज़ोरी, सही क्रांतिकारी पार्टी का अभाव है. सामाजिक झल्लाहट और उत्तरोत्तर तीव्र होती प्रसव पीड़ा को समायोजित कर, सही दिशा देने वाले संगठन का अभाव, एक ख़तरनाक शून्य पैदा कर रहा है. उस दिशा में कोई प्रगति होती भी नजऱ नहीं आती. लगता है जैसे अँधेरे में रास्ता खोज रहे हैं.

सांगठनिक ठहराव, ठहरे पानी की तरह सडऩ पैदा कर रहा है. अनेकों ‘लेनिन’ अपने-अपने संगठनों को ‘लघु एवं सूक्ष्म व्यवसायिक प्रतिष्ठानों’ जैसे लिए बैठे हैं. इससे उठने वाली दुर्गन्ध, क्रांतिकारी वर्ग को इन ‘क्रांतिकारी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों’ से दूर धकेल रही है. दिनोंदिन बढ़ते जा रहे सत्ता के दमन के बावजूद, संयुक्त-साझा मोर्चा बनाने के ईमानदार प्रयास भी नहीं हो रहे. ‘एकता-वार्ताएं’ भी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों जैसी ही हो रही हैं. मसलन, ‘क क्रांतिकारी’ और ‘ख क्रन्तिकारी’ के बीच होने वाली सैधांतिक डिबेट, लेनिन के क्रांतिकारी मॉडल से शुरू होकर, तुरंत यहाँ पहुँच जाती है: ‘अमुक कार्यकर्ता हमारे संगठन से निकाला गया, आप उसे अपने साथ क्यों जोड़ रहे हैं?, उसे तुरंत दुत्कारिए वर्ना एकता वार्ता यहीं अटक जाएगी’. ‘ख’ क्रांतिकारी को, फिर अपने कैडर को उस कार्यकर्ता को दुत्कारने के लिए तैयार करना है. ईमानदारी का इस प्रक्रिया में भी कोई मतलब ही नहीं. ये नहीं कहा जा सकता कि ऐसी ‘डील’ हुई है!! निहायत ही घटिया, स्वार्थपूर्ण बात को द्वंद्वात्मक भौतिकवादी शब्दावली में उचित ठहराने की, अब दयनीय कसरत शुरू होती है जो उत्तरोत्तर घिनौनी होती जाती है. एकता वार्ताएं, दरअसल, कार्यकर्ताओं या भौतिक संसाधनों की छीना झपटी बन गई हैं. ये वीभत्स ‘खेल’ अब पारदर्शी होता जा रहा है. आंतंरिक पोल-पट्टी उजागर होने का डर, क्रांति की ज़रूरत पर हावी हो रहा है. ये पैंतरेबाज़ी भी अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाली क्योंकि सामाजिक बेचैनी, सामाजिक तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है. ये अब उबाल बिन्दू के बिलकुल नज़दीक जा पहुंचा है.

वस्तुगत परिस्थितियों की आंच, आन्दोलन को इसी जगह रुकने नहीं देगी. जल्दी ही इन ‘क्रांतिकारी’ पार्टियों के ‘बंधुवा’ कैडर अपने ही पार्टी हेडक्वार्टर के खि़लाफ़ बग़ावत करते नजऱ आएँगे. महान रुसी क्रांति अपना उजाला इसी तरह फैलाती जाएगी. आईये, महान महान नवम्बर क्रांति को लाल सलाम करते हुए , उस ख़ूबसूरत इतिहास से सीखें और जुट जाएँ अपना फज़ऱ् निभाने में. फिर तामीर करें, मेहनतक़शों की वो हसीन दुनिया, साकार करें वो दिलक़श ख़्वाब!! कारवां, लाजि़मी, आगे बढेगा. क्रांतियों को हमेशा के लिए ना रोका जा सका है और ना रोका जा सकेगा. सर्वहारा का सैलाब फिर उठेगा, पहले से भी ज्यादा विशाल और पहले से भी ज्यादा व्यापक. लाल सुबह दूर नहीं.

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Mazdoor Morcha
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