दमन और प्रतिकार में भी द्वंद्वात्मक सम्बन्ध है. आज मज़दूरों का शोषण चरम पर है. बतौर सबूत, फऱीदाबाद के तीन उदहारण प्रस्तुत हैं. एक कारखाना मालिक ने अपने दो मज़दूरों को 5 महीने का वेतन नहीं दिया. वह मालिक देश का कोई श्रम क़ानून नहीं मानता. आन्दोलन हुआ, श्रम विभाग का इंस्पेक्टर मौक़ा-मुआयना करने पहुंचा. मालिक द्वारा श्रम कानूनों की कोई परवाह ना करने के सारे सबूत, फैक्ट्री में खुद चीख़ रहे थे. इंस्पेक्टर ने नजऱंदाज़ किया. वरिष्ठ अधिकारी को उसकी शिकायत हुई. क़ानून-उल्लंघन की इस वारदात पर, वरिष्ठ अधिकारी ने कोई उत्तेजना ना दिखाते हुए, फऱमाया- इंस्पेक्टर ने कुछ भी ग़लत नहीं किया. ‘हमें सरकार के लिखित आदेश हैं, कि बिना हेड ऑफिस की अनुमति लिए और बिना मालिक को पूर्व सूचना दिए, कोई भी निरिक्षण करने, कारख़ाने में जाना ही नहीं. ‘हम क्या करें, अपना दर्द किसे बताएं!!’ अब, ये सिद्ध करने के लिए कि मालिक को अपने मज़दूरों के वेतन का भुगतान करना चाहिए, तारीखें लग रही हैं. दोनों मज़दूरों को अपनी दिहाड़ी गंवाकर वहां जाना पड़ रहा है.
ये दास्तां छोटे कारखाने की थी. दूसरा वाकय़ा, लखानी नाम के दो बड़े कारख़ानों का है. छोटे भाई ने, पीएफ में कंपनी अंशदान की तो बात छोडिए, अपने हज़ारों मज़दूरों के वेतन से काटा गया पीएफ़ का पैसा भी, 2012 के बाद सरकारी खज़ाने में जमा नहीं किया. वह व्यक्ति जेल में नहीं, अपनी कोठी में निवास करता है. सरकारी भाषा में वह ‘फऱार’ है. उसके सारे कारखाने उसका बेटा चलाता है. उसके पास आज भी अकूत संपत्ति है. सेक्टर 24, 14, 21 में अनेक कोठियां हैं. बैंक अधिकारी उसकी एक संपत्ति बेचकर, अपने कज़ऱ् की वसूली करके चले गए. पीएफ विभाग के सारे अधिकारीयों-मंत्रियों-संतरियों के लाखों के वतन, सरकारी गाडिय़ाँ, कोठियां उसी तरह हैं. वहां भी ‘ज्ञापन’ दिया गया था, मीटिंग हुई थी. पीएफ अधिकारी ने ईमानदारी से ये तो कबूल नहीं किया, कि सरकार ये ही चाहती है, लेकिन अधिकारीयों की बॉडी लैंग्वेज बता रही थी कि वे सरकारी आदेशों का पालन कर रहे हैं.
छोटे लखानी को देखकर बड़ा लखानी भी ‘समझदार’ हो गया. उसने भी दो सालों से पीएफ का पैसा जमा नहीं किया. ऐसे गुनाह करने वाला, लखानी अकेला नहीं है. ऐसी जानकारियाँ, अनेकों कारखानों से मिल रही हैं कि मालिक आवश्यक कटौतियां, मज़दूरों के वेतन से करने के बाद, निर्लज्जता से डकार रहे हैं.
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष हथकंडे अपनाकर, काम से निकाले जाने वाले मज़दूरों के वेतन, ओवरटाइम, बोनस आदि का भुगतान नहीं कर रहे. मज़दूरों को, ‘जा, जो तुझे करना है, कर’, बोलकर भगा दिया जा रहा है. मज़दूर कुछ दिन चिल्लाते हैं, बिलखते हैं लेकिन उससे ज्यादा भूख बरदाश्त न कर पाने की वज़ह से, कहीं दूसरी जगह काम करने, मतलब खुद को फिर से ठगे जाने को प्रस्तुत करने को मज़बूर हैं. मालिक और मज़दूर के बीच का ये संघर्ष कोई नई बात नहीं है. ये जंग उतनी ही पुरानी है, जितनी इस रिश्ते की उम्र है. फर्क ये ही है कि कभी ये लड़ाई ‘सामान्य’, ‘साधारण’ और ‘शांतिपूर्ण’ नजऱ आती है और कभी असामान्य, असाधारण और कड़वी, मारने-मरने जैसी. जब तक पूंजीवाद संकट में नहीं फंसता, तब तक ये भिड़ंत सामान्य परिधि में रहती है, क्योंकि इस अवस्था में, ये मुनाफ़ाखोर व्यवस्था, मज़दूर के लिए ‘न्याय’ करने के मुगालते बनाए रख पाती है. श्रम ‘कल्याण’ के क़ानून बनते हैं, उन्हें लागू कराने की मशीनरी सुचारू रूप से चलती है. मालिक भी, एक के बाद दूसरी फैक्ट्री लगाते जाते हैं. उन्हें मज़दूरों की सतत आपूर्ति चाहिए, इसलिए उनके दिल में भी मज़दूरों के प्रति प्रेम-अनुराग उमड़ता रहता है. मूलभूत सच्चाई, उस वक़्त भी जब ये ‘युद्ध-विराम’ लागू होता है, वही रहती है; ‘मालिक का मुनाफ़ा, मज़दूर के श्रम की चोरी से ही आता है’.
कौन जानता था, कि किसान जो 2014 और 2019 में, मोदी को सत्ता में प्रस्थापित करने के लिए झूम रहे थे, वे उसकी छाती पर ऐसे चढक़र बैठेंगे कि साँस लेना मुश्किल कर देंगे. सारी 56 इंची हेंकड़ी रफू चक्कर हो जाएगी और साहिब-ए-मसनद को विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनकर, हाथ जोडक़र, माफ़ी मांगते हुए, नया क़ानून बनाकर, पहले बनाए काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ेगा. मज़दूर, इस सरकार के सामने उससे भी बड़ी चुनौती प्रस्तुत करने वाले हैं. ‘लेबर कोड लागू नहीं होने देंगे’, ये लड़ाई अब बे-मानी हो गई. लेबर कोड भी, मालिक को, मज़दूर का वेतन या पीएफ कटौती डकार जाने की इज़ाज़त नहीं देते, लेकिन कोई भी ‘कोड’ आज लागू नहीं है. सरकार क्या कहती है, इसका अब कोई अर्थ ही नहीं बचा. सरकार जो कहती है, वह नहीं करती और जो करती है वह नहीं कहती. काले कृषि कानून वापस होकर भी वापस नहीं हुए , आज भी लागू हैं. लेबर कोड भी, लागू न होकर, लागू हैं. काम-काज की सरलता के नाम पर, मालिक वर्ग को आज पूरी छूट मिली हुई है.
मज़दूरों-मज़लूमों के विरुद्ध, इस सरकार ने, एक तरह का युद्ध छेड़ा हुआ है, जिसका मुकाबला मज़दूर-किसान, छात्र-अध्यापक अकेले नहीं कर सकते. सारे मेहनतक़श वर्ग को ही आज संघर्ष की भट्टी में झोंक दिया गया है; लड़ो या मैदान से भाग जाओ, मतलब, फ़ासिस्टों के खेमे में चले जाओ; दो ही विकल्प हैं. जैसे किसानों ने अपने नेताओं को इक_े होकर लडऩा सिखा दिया, ठीक वैसे ही मज़दूर भी सिखाएँगे और जल्दी ही सिखाएँगे. करोड़ों मज़दूरों की क्रियाशीलता से उत्पन्न ऊर्जा से ही, मज़दूरों का असली हथियार, सही क्रांतिकारी पार्टी जन्म लेगी, ये ज़रूर होगा और जल्दी ही होगा. पूंजीवाद मानवता की आखऱी मंजि़ल नहीं हो सकता. -सत्यवीर सिंह