फरीदाबाद (म.मो.) सबसे पहले घरेलू गैस सब्सिडी हड़पने के बाद रेल यात्रा में बुजुर्गों को मिलने वाली सब्सिडी हड़पी। उसके बाद उन बुजुर्गों की पेंशन डकारी जिनके घर में कोई कमाने वाले मौजूद हैं। अब लुटेरी सरकार की गिद्घ दृष्टि दिव्यांगों को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं पर है।
जुमलेबाज़ी में माहिर भारतीय जुमला पार्टी के प्रधानमंत्री ने विकलांगों को नया जुमला दिव्यांग तो दे दिया। लेकिन अब इन दिव्यांगों की जेब काटने की पूरी तैयारी चल रही है। बीते बीसियों वर्ष से विकलांगता प्रमाणपत्र लिये हुए लोगों से कहा जा रहा है कि 31 अगस्त तक पुन: अपनी विकलांगता का प्रमाणपत्र लेने के लिये अस्पतालों के चक्कर लगायें, वर्ना पहली सितम्बर से उन्हें मिलने वाले वे सब लाभ बंद कर दिये जायेंगे जो उन्हें विकलांगता के आधार पर सरकार से मिलते हैं।
लोगों की सुख-सुविधाओं को हड़पने का कोई मौका न छोडऩे की ताक में रहने वाली भाजपा की खट्टर सरकार ने अपनी इस षडय़ंत्र के पीछे यूडीआईडी बनाने का तर्क दिया है। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि यूडीआईडी पहचानपत्र बनने के बाद विकलांगों को बहुत अधिक लाभ एवं सुविधायें मिलने लगेंगी। दरअसल यह तो केवल एक बहाना है, इसके पिछे असल मकसद तो विकलांगों पर खर्च होने वाले बजट को घटाना है। यदि सरकार की नीयत नेक होती तो यही यूडीआईडी कार्ड विकलांगों को चक्कर कटाये बगेैर भी बनाये जा सकते थे।
निर्धारित समय सीमा के भीतर-भीतर दोबारा से सम्बन्धित डॉक्टरों के सामने पेश होकर विकलांगता का प्रमाणपत्र बनाने के लिये सैंकड़ों की संख्या में स्थानीय बीके अस्पताल तथा इसी प्रकार हर जि़ले के अस्पताल में विकलांग धक्के खा रहे हैं। इसके लिये सबसे पहले तो उन्हें 10 रुपये खर्च करके ओपीडी कार्ड बनवाने के लिये लम्बी कतार में लगना होता है। उसके बाद फार्म जमा कराने के लिये एक अन्य लाइन में लगना होता है। घंटों लाइन में खड़े रहने के बाद जब नम्बर आता है तो काऊंटर पर बैठा बाबू कहता है कि आज जितने फार्म लेने थे ले लिये बाकी कल आना।
उसके बाद जैसे-तैसे सम्बन्धित डॉक्टर के पास जाने का नम्बर आता है तो वहां भी लम्बी लाइन लगी होती है। लम्बे इन्तजार के बाद जब नम्बर आता है तो डॉक्टर साहब कहते हैं कि आज का कोटा जो 30 लोगों का था वो पूरा हो गया, अब अगले हफ्ते आना। विदित है कि अस्पताल में इस काम के लिये केवल बुद्ध तथा शुक्रवार ही रखे गये हैं। ऐसे में कई अंजान विकलांग जो अन्य कार्य दिवसों पर पहुंच जाते हैं उन्हें बैरंग वापस लौटना पड़ता है।
इसके अलावा आज कल ऑनलाइन के नाम पर भी विकलांगों के साथ काफी क्रुर मजाक किया जा रहा है। ऑनलाइन की यह व्यवस्था बनाई तो इसलिये गई थी कि किसी को भी घर से बाहर चक्कर न काटने पड़े, घर बैठे-बैठे ही ऑनलाईन अपना आवेदन भेज सकें। अब्बल तो 90 प्रतिशत लोगों के घरों मेेेेेेेेेेेेें यह सुविधा होती नहीं है, इसके लिये उन्हें पैसे खर्च करके किसी साइबर कैफे की सेवा लेनी पड़ती है। दूसरा भयंकर मजाक यह होता है कि विकलांग अपनी सभी दस्तावेज फोटो-कॉपी अस्पताल में जमा कराये।
पुराने विकलांगों के साथ-साथ नये विकलांग भी प्रमाणपत्र बनवाने को अस्पतालों में पहुंच रहे हैं। जाहिर है इसके चलते काम का बोझ कई गुणा बढ़ जाता है। डॉक्टरों एवं अन्य स्टाफ की भारी कमी के चलते, यदि डॉक्टर अपने तमाम अन्य कामों को छोडक़र, जो कि सम्भव नहीं है, केवल विकलांगों का ही काम करता रहे तो भी इस काम को निपटा पाना आसान नहीं है। दरअसल सरकार भी नहीं चाहती कि लोगों के काम आसानी से निपट जायें, वर्ना क्या सरकार को वस्तु स्थिति का ज्ञान नही है? सरकार को क्या मालूम नहीं कि अंधे, बहरे, लंगड़े, लूलों के लिये इस तरह से चक्कर लगाना कितना दुखदायी होता है? सरकार चाहती है कि जनता को इन्हीं चक्करों में ब्यस्त रखा जाये ताकी वे किसी प्रकार की जागरूकता प्राप्त करने की सोच भी न सके।
नई आईडी बनवाने का असल मकसद विकलांगों की विकलांगता का दर्जा घटाकर उनको मिलने वाले आर्थिक लाभों को घटाना है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार धीरज जो पहले 100 प्रतिशत विकलांग था उसे 80 प्रतिशत कर दिया जिसके चलते उसका बस व रेल पास और फैमिली पेंशन समाप्त कर दी गयी। सूरज सुपुत्र श्री रमेश चंद जो पहले 70 प्रतिशत विकलांग था उसे घटाकर 55 प्रतिशत कर दिया गया। देखो विकलांगों के भी अच्छे दिन आ गये न।