भारतीय कृषि के खिलाफ साम्राज्यवादी साजिश को शिकस्त

भारतीय कृषि के खिलाफ साम्राज्यवादी साजिश को शिकस्त
December 17 13:05 2021

रवींद्र गोयल
भारतीय किसानों ने मोदी सरकार को तीनों कृषि कानून वापिस लेने को बाध्य कर दिया। ये किसानों की जीत न केवल दुनियाके पैमाने पर अनोखी जीत है बल्कि तय है की यह जीत दुनिया भर में पिछले तीस/ चालीस सालों से हावी दिवालिया नवउदारवादी अर्थशास्त्र और टपक बूँद सिद्धांत के कफन में एक महत्वपूर्ण कील साबित होगा।

बेशक नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध दुनिया, खास कर लैटिन अमरीका, के लोग बहादुराना संघर्ष लड़े हैं लेकिन वो ज्यादातर प्रयास चुनावों में साम्राज्यवाद परस्त सरकारों को हराने की दिशा में रहे हैं। ज्यादातर आंदोलनों ने सरकारों को बदलने में अपनी ताकत लगायी है। इन संघर्षों में जनता ने आम तौर पर लंबे समय तक हड़ताल या घेराव जैसे प्रत्यक्ष कार्रवाई के माध्यम से अपनी मांगों को नहीं मनवाया। इससे अलग भारतीय किसानों ने प्रत्यक्ष कार्रवाई के जरिये नव-उदारवादी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध सरकार को पीछे हटने को मजबूर किया। यह जीत नयी पहलकदमियां खोलेगी, नए आन्दोलनों को जनम देगी और दूरगामी तौर पर दुनिया के पैमाने पर नवउदारवादी नीतियों की जकड़ ढीला करने का कारक बनेगी। इन्हीं अर्थों में किसान संघर्ष और उसकी जीत का ऐतिहासिक महत्व भी है।

इस आन्दोलन के दौरान भारतीय कृषि पर अधिपत्य स्थापित करने के अम्बानी अडानी जैसे एकाधिकारी कॉरपोरेट पूंजीपति के व्यापक मंसूबों, उनकी हितैषी मोदी सरकार के जनविरोधी चरित्र और कलमघिस्सू बुद्धिजीवी तथा बिके हुए गोदी मीडिया का पर्दाफाश खूब जमकर हुआ और भगतों को छोड़ दिया जाये तो आम जन की चेतना में भी गुणात्मक विकास हुआ। इन सबसे इतर एक और महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है। वो पहलू है किसानों कि जीत का अमरीकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी दुनिया के वैश्विक वर्चस्व की योजनाओं को एक बहुत ही मौलिक अर्थ में झटका। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पश्चिमी मीडिया मोदी सरकार के कानून वापिस लेने के निर्णय से नाखुश है और आलोचना कर रही है।

साम्राज्यवादी देश दुनिया के सभी खाद्य पदार्थ, कच्चामाल के स्रोत, पेट्रोलियम के स्रोत आदि की तरह तीसरी दुनिया के देशों की कृषि लायक भूमि पर सम्पूर्ण वर्चस्व चाहते हैं ताकि वो अपनी जरूरतों के हिसाब से उस भूमि का इस्तेमाल कर सकें और अपने शोषण तंत्र को कायम रख सकें, उसका विस्तार कर सकें। इस में यह ध्यान देने योग्य है की तीसरी दुनिया के देशों की जमीनी विविधताऔर मौसम सम्बन्धी खासियत वहां की भूमि को कई किस्म की फसल पैदा करने के उपयुक्त बनती है। ऐसा साम्राज्यवादी देशों में संभव नहीं है।

उपनिवेशवाद का जमाना इस हिसाब से साम्राज्यवादियों के लिए सबसे ज्यादा मुफीद था। उन्होंने उपनिवेशों के जमीन पर कब्जा कर उसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने के लिए नीतियां बनाई। नील, अफीम और कपास उन जमीनों पर जबरदस्ती उगवाया गया जिस पर पहले खाद्यान्न पैदा होता था। किसानों के बेतहाशा शोषण उस समय का यथार्थ था। दीनबंधु मित्रा द्वारा उन्नीसवीं सदी के बंगाली नाटक ‘नील दर्पण’ में नील उत्पादकों की दुर्दशा इतने मार्मिक तरीके से बयान की गयी थी कि नाटक देखते समय समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने नील के खेती कराने वाले व्यापारी की भूमिका निभा रहे अभिनेता पर गुस्से में अपनी सैंडल फेंक दी थी!

लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद चली उपनिवेशवाद विरोधी लहर में ज्यादातर उपनिवेश खत्म हो गए। तीसरी दुनिया के देशों में राजनितिक आजादी के साथ जो सत्ताएं शासन में आई वो ज्यादातर पूंजीवादी होते हुए भी अपनी राजनितिक स्वंत्रता के प्रति सचेत थी और उन्होंने नग्न पूंजीवाद को आवारा होने से रोका। उसपर लगाम लगायी। इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष था कृषि में, खासकर खाद्यान्न के उत्पादन के लिए, एक हद तक कीमत का समर्थन ताकि बहुसंख्यक किसानों के दरिद्रीकरण को रोक कर कृषि क्षेत्र की जमीन और उस पर क्या उत्पदन किया जायेगा सम्बन्धी सवालों को बाजार यानी पूंजीवादी, साम्राज्यवादी प्रभुत्व में जाने से रोका जा सके।

साम्राज्यवाद और उसके देसी भाई बंदों को ये नीति पसंद नहीं थी। वो तो चाहते थे कृषि भूमि और उसपर क्या उगाया जायेगा के निर्णय करने कि ताकत लेकिन सरकारी नीतियों के चलते उनकी पसंदीदा नीति को लागू करने का मंसूबा नाकामयाब रहा।

1990 में नवउदारवादी चिंतन के प्रभावी होने के बाद साम्राज्यवाद और उसके देसी भाई बंदों को ऐसा शासन मिला जो उनकी मांग को पूरा कर सकता था। साम्राज्यवाद चाहता था मूल्य-समर्थन की प्रणाली का पूर्ण उन्मूलन, और इसके अतिरिक्त, किसानों के फसल उगाने के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए बाजार द्वारा संचालित एक वैकल्पिक तंत्र।

मोदी सरकार द्वारा लाये गए तीनों कृषि कानून अपने अति राष्ट्रवादी शब्दाडम्बर के बावजूद यही काम करता था। इन कानूनों के जरिये खेती का निगमीकरण होता जिसके ऊपर साम्राज्यवादियों और उसके देसी दोस्तों का वर्चस्व स्थापित होता और वो किसानों से अपनी बाजार की सुविधा के हिसाब से खेती करवाते. यहाँ बता दें की इस मानवद्रोही सरकार/देसी पूंजीपति/साम्राज्यवादी गिरोह का पहला हमला 90 के दशक में भूमि अधिग्रहण के सवाल पर हुआ था। आदिवासियों और अन्य आबादी के तीव्र विरोध के चलते तत्कालीन कांग्रेस सरकार को अपना भूमि कब्जों अभियान रोकना पड़ा। 2013 में 1894 भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ सुधार करके उसे थोडा सख्त बनाया गया। मोदी सरकार ने 2014 में सरकार में आते ही उस कानून पर हमला किया। लेकिन जनता खासकर किसानों के तीव्र विरोध के चलते केंद्र सरकार को पीछे हटना पड़ा। और अब किसानों ने अपने आन्दोलन के जरिये एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीती है और सरकार को बाध्य किया है कि वो अपनी नापाक गतिविधियों के जरिये इस देश के खेती को साम्राज्यवाद और पूंजीपतियों को न सौंपे। बेशक रूस्क्क की कानूनी गारंटी बिना ये लड़ाई अधूरी है और जब तक ये पूँजी परस्त निगाम नहीं नेस्तनाबूद किया जायेगा तब तक खेती और किसान को देसी विदेशी पूँजी का गुलाम बनाने का अंदेशा बना रहेगा। लेकिन फिर भी तीन काले कानूनों के खिलाफ किसानों की जीत एक महत्वपूर्ण जीत है।

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Mazdoor Morcha
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