राजनेताओं व अधिकारियों की आपराधिक उदासीनता फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) भयंकर गर्मी के चलते बीते दिनों 56 लोगों के मरने की सूचना है। इनमें से 21 लोग लावारिस अथवा अज्ञात बताये जा रहे हैं। 100 साल पुराने कानून के अनुसार इस तरह के शवों को जि़ला अस्पताल के मुर्दा-घर में जमा कराने का प्रावधान है। इसी नियम के तहत जि़ला पुलिस ने तमाम शवों को बीके अस्पताल के मुर्दा-घर में जमा करा दिया है। नियमानुसार पोस्टमार्टम के बाद इन शवों को 72 घंटे मुर्दा-घर में रखकर मृतकों के वारिसान का इन्तजार किया जाता है। जिस शव को लेने कोई वारिस नहीं पहुंचता तो उसका नगर निगम अथवा किसी एनजीओ के माध्यम से क्रियाकर्म करा दिया जाता है।
सर्वविदित है कि बीके अस्पताल के मुर्दा घर में शवों को सुरक्षित रखने के लिये 10 डीप फ्रीजर तो हैं लेकिन ये अक्सर खराब हालत में रहते हैं। इसकी वजह से शवों का सडऩा स्वाभाविक है। अचानक हुई इन मौतों के अलावा रूटीन में भी पोस्मार्टम के लिये दर्जनों शव प्रतिदिन आते रहते हैं। इन हालात में बखूबी समझा जा सकता है कि इस मुर्दा-घर की दुर्दशा से आस-पास का वातावरण कितना प्रदूषित हो रहा है।
अस्पताल के इस मुर्दा घर की यह दुर्दशा कोई नई बात नहीं है। इसके बावजूद भी तमाम उच्चाधिकारी तथा स्थानीय राजनेता पूरी तरह से उदासीन बने हुए हैं। जब भी कोई इस विषय पर इनसे सवाल करता हैतो इनका रटा-रटाया एवं घिसा-पिटा जवाब यही होता है कि मजबूरी है, संसाधनों की कमी है, इस दिशा में प्रयास जारी है आदि-आदि। लेकिन वास्तव में न तो कोई प्रयास किया जा रहा है और न ही इसकी कोई सम्भावना है क्योंकि यह समस्या इनके एजेंडे में ही नहीं है।
यदि नीयत हो तो समाधान भी है बीके अस्पताल के बगल में ही केन्द्र सरकार द्वारा संचालित ईएसआई कॉर्पोरेशन का मेडिकल कॉलेज मौजूद है। इसमें न केवल पचासों शव रखे जाने की बेहतरीन व्यवस्था है बल्कि सही मायने में पोस्टमार्टम करने की समुचित व्यवस्था भी है। सन्दर्भवश सुधी पाठक समझ लें कि बीके अस्पताल में पोस्टमार्टम के नाम पर केवल खानापूर्ति के लिये बेगार काटी जाती है। अनुभव एवं साधन विहीन डॉक्टर ेये काम रोते पीटते करते हैं। सड़े हुए शवों को चीरने-फाडऩे के लिये सफाईकर्मी को शराब पिलाई जाती है जिसके बाद कोई साधारण एमबीबीएस डॉक्टर सरसरी नज़र मारकर कागजों में खानापूर्ति कर देता है। इसके विपरीत मेडिकल कॉलेज में विशेषज्ञ डॉक्टर अपने छात्रों को साथ लेकर सही ढंग से न केवल चीर-फाड़ करते हैं बल्कि फोरेंसिक नियमों के अनुसार सही रिपोर्ट तैयार करते हैं।
विदित है कि मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई में शवों की चीर-फाड़ एवं पोस्टमार्टम करना पाठ्यक्रम का एक अनिवार्य भाग है। इसके लिये, आवश्यकतानुसार छात्र अपने प्रोफेसरों के साथ करीब ढाई किलोमीटर का चक्कर काट कर, मेडिकल कॉलेज से बीके अस्पताल पहुंचते हैं क्योंकि अगल-बगल होते हुए भी इन्हें जोड़ा नहीं गया है। और विपरीत परिस्थितियों में पोस्टमार्टम सीखते हैं। बात इतनी भर भी नहीं है, बीते करीब पांच साल से मेडिकल कॉलेज प्रशासन लगातार चंडीगढ़ स्थित हरियाणा सरकार के चक्कर केवल इस बात के लिये लगा रहा है कि शवों का रख-रखाव एवं पोस्टमार्टम का सारा नहीं तो कुछ काम उन्हें दे दिया जाए। लेकिन सरकारी बाबूगीरी को तो मुफ्त में कोई काम करने की आदत है नहीं, ऐसे में भला मेडिकल कॉलेज के तर्क उन्हें कैसे समझ में आ सकते हैं?
संदर्भवश कुछ शव ऐसे भी होते हैं जिन्हें विशेष तौर पर मेडिकल कॉलेज में ले जाना आवश्यक होता है। इस काम के लिये उन्हें रोहतक अथवा नंूह स्थित मेडिकल कॉलेज में ले जाना अधिक ‘सुविधाजनक’ लगता है।
दुर्दशा के बजाय लावारिस शवों का सदुपयोग भी हो सकता है बीके अस्पताल में पर्याप्त व्यवस्था न होने के बावजूद जहां लावारिश शवों को रखना किसी मुसीबत से कम नहीं है, वहीं इनकादाह-संस्कार आदि करना भी कोई बहुत सुगम नहीं होता। जो संस्थाएं यह काम करती भी हैं उन्हें सरकार से पर्याप्त पैसा न मिलने की वजह से, वे भी रो-पीट कर ही यह काम करती हैं। इसके विपरीत मेडिकल कॉलेज में इन शवों को महीनों तक रखने में कोई दिक्कत नहीं होती। किसी वारिस के न आने पर इन शवों को छात्रों द्वारा अध्ययन के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। विदित है कि शवों के अभाव में प्रशिक्षक एवं प्रशिक्षु काफी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। परन्तु शासकों व प्रशासकों को इन सब बातों से क्या लेना-देना?