बसोनिका यूनियन रजिस्ट्रेशन रद्द करने के हिटलरी फऱमान का पुरजोर विरोध ठेका मज़दूर भी इंसान हैं, हुकूमत को समझना पड़ेगा

बसोनिका यूनियन रजिस्ट्रेशन रद्द करने के हिटलरी फऱमान का पुरजोर विरोध  ठेका मज़दूर भी इंसान हैं, हुकूमत को समझना पड़ेगा
October 03 16:07 2023

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा

छुट्टी के दिन शनिवार 23 सितम्बर को, हरियाणा सरकार को एक बहुत महत्वपूर्ण काम करना था। ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रार सेक्टर 17, चंडीगढ़ स्थित अपने दफ़्तर में हाजिऱ हुए, वह काम निबटाया सरकार बहादुर को सूचित किया उसके बाद ही छुट्टी मनाई!! वह काम था मानेसर स्थित मारुती की सहायक कंपनी बेल्सोनिका की मज़दूर यूनियन ‘बेलसोनिका ऑटो कंपोनेंट्स इंडिया एम्प्लाइज यूनियन, रजिस्ट्रेशन नंबर 1983’ को रद्द करना। ये काम एक दिन बाद सोमवार को भी तो हो सकता था उससे हरियाणा सरकार और ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रार पर कौन सी आफ़त आ जाती!! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता था। ये काम सोमवार तक का इंतज़ार नहीं कर सकता था। इसे छुट्टी के उसी दिन, शनिवार को ही होना था ‘संसद के विशेष सत्र स्टाइल’ में!! कुछ काम हुकूमतों के लिए इतने अहम होते हैं, मूछों के सवाल होते हैं सत्ता किसके हाथ है ये दिखाना होता है कि वे सिर्फ मुकम्मल ही नहीं किए जाते बल्कि एक विशिष्ट अंदाज़ में एक ठोस संदेश देते हुए किए जाते हैं। हरियाणा सरकार राज्य के सरमाएदार आक़ाओं को ये संदेश देना चाहती थी कि आप ही हमारे असली ‘भाग्य विधाता’, माई-बाप हो। आपके मुनाफ़े पर कोई आंच आती हो तो हम छुट्टी क्या दिन-रात भी नहीं देखेंगे। एक टांग पर खड़े रहेंगे, हुज़ूर!!

यूनियन रजिस्ट्रेशन रद्द करने के हुक्मनामे आर-1/2023/26878, दिनांक 23.09.2023 की प्रति क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के पास है। यूनियन का गुनाह: केशव राजपूत नाम के ठेका मज़दूर को यूनियन का सदस्य बनाया। 5.09.22 को ज़ारी हुए कारण बताओ नोटिस के जवाब में यूनियन ने 28.09.22 को लिखा कि ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 का नियम 5, सेक्शन 6, यूनियन बनाने के अधिकार के मामले में स्थाई मज़दूर और ठेका मज़दूर में कोई भेद नहीं करता। ठेका मज़दूर को भी यूनियन बनाने के अधिकार से महरूम नहीं किया जा सकता। रजिस्ट्रार की आपत्ति; यूनियन ने नियम 5 के उक्त सेक्शन की कॉपी नत्थी नहीं की!! ये सेक्शन कहता है ‘वह मज़दूर जिसे कंपनी ने काम पर लगाया है यूनियन का सदस्य बन सकता है। इसमें ऐसा कहां लिखा है कि मज़दूर और ठेका मज़दूर संयुक्त रूप से यूनियन के सदस्य बन सकते हैं।’ क्या कमाल का तर्क भिड़ाया है रजिस्ट्रार ने!! 1926 में जब ट्रेड यूनियन क़ानून बना था तब दुनिया भर के सरमाएदार और उनके रजिस्ट्रार जैसे ताबेदार मज़दूरों की संगठित क्रांतिकारी शक्ति से थर्रा रहे थे, क्योंकि रूस के मज़दूर पूंजी के इस घिनौने तंत्र को उखाडक़र फेंक चुके थे। उस वक़्त उन्हें नहीं मालूम था कि पूंजी की ये विषैली बेल फिर उग आएगी और मालिकों को ‘ठेका प्रथा’ के नाम पर मज़दूरों का खून चूसने की खुली छूट मिलेगी। इसीलिए ये भी कहां लिखा हुआ है कि ठेका मज़दूर यूनियन के सदस्य नहीं बनेंग।

‘ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 के अनुसार ट्रेड यूनियन अपने काम-काज करने के नियम बना सकती है। सदस्यता की पात्रता क्या होगी सदस्यता शुल्क क्या होगा ये तय कर सकती है। ऐसे व्यक्ति को भी अपना पदाधिकारी चुन सकती है जो उस कंपनी में काम नहीं करता।’ ये बातें ख़ुद रजिस्ट्रार ने अपने हुक्मनामे में भी लिखी हैं लेकिन चूंकि, ‘ठेका मज़दूर को सदस्य बनाया जा सकता है’ ये कहीं नहीं लिखा तो आपने ठेका मज़दूर केशव राजपूत को सदस्य क्यों बनाया ये सवाल किया? ट्रेड यूनियन एक्ट कहता है ‘उसी मज़दूर को सदस्य बनाया जा सकता है जो कम्पनी के लिए काम कर रहा हो’। तो फिर ठेका मज़दूर क्या उसी कंपनी बेलसोनिका के लिए काम नहीं कर रहे? उनके उत्पाद को कौन हथियाता है? उन्हें मारुती को बेचकर मुनाफ़ा किसके ताबूत में जमा होता है?

‘ट्रेड यूनियन एक्ट 1926’ के कुल 12 पृष्ठों में कहीं एक बार भी ‘ठेका मज़दूर’ शब्द नहीं आया। ऐसे में हर कारखानेदार ठेका मज़दूरों के नाम पर जो भर्तियां कर रहा है, ठेका मज़दूरों को इंसान का  दर्जा ही नहीं दे रहा, जब तक उसका दिल करता है उनसे काम लेता है, छुट्टियां नहीं देता, वार्षिक वेतन-वृद्धि नहीं देता, मेडिकल छुट्टियां, मातृत्व छुट्टियां नहीं देता, प्रमोशन नहीं देता, पेंशन नहीं देता, मौत हो जाने पर आश्रित को नोकरी, मुआवज़ा कुछ नहीं देता। ऐसा करने वाला हर मालिक ट्रेड यूनियन क़ानून ही नहीं देश के हर श्रम क़ानून, इंसाफ के नैसर्गिक क़ानून, जिंदा रहने के संवैधानिक अधिकार समेत क्या सभी कानूनों का उल्लंघन नहीं कर रहा? एक छुट्टी को काम पर आकर उसकी फैक्ट्री का रजिस्ट्रेशन क्यों रद्द नहीं कर डालते? रजिस्ट्रार को इन सवालों से कोई मतलब नहीं!!

रजिस्ट्रार अपने हुक्मनामे में आगे पृष्ठ 4 पर फऱमाते हैं ‘क़ानून कहता है कि केवल वे मज़दूर ही यूनियन के सदस्य बन सकते हैं जिनके हित समान हैं।’ अलग-अलग और बे-मेल हित वाले मज़दूरों की एक यूनियन नहीं हो सकती…बेलसोनिका के मज़दूरों पर बेलसोनिका की सेवा-शर्तें लागू होती हैं लेकिन ठेका मज़दूरों पर ठेकेदार की सेवा शर्तें लागू होती है।’ वाह जी वाह इसे कहते हैं चित भी मेरी और पट भी मेरी!! बेलसोनिका के नियमित मज़दूरों और ठेका मज़दूरों के हित कैसे भिन्न हुए रजिस्ट्रार जी? हमारा तो कहना है कि बेलसोनिका मारुती, लखानी क्या किसी भी कंपनी के मज़दूरों के हित भिन्न नहीं हैं। सारी दुनिया के मज़दूरों के हित एक समान हैं। आपने वो नारा नहीं सुना ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’!! मालिकों के हित अलग-अलग होते हैं। वे एक दूसरे के पेट पर पांव रखकर ऊपर जाते हैं एक-दूसरे के खून के प्यासे होते हैं। और ये जो आखऱी वाक्य में आपने ठेका मज़दूरों की बात जोड़ी है, वह ट्रेड यूनियन एक्ट में कहां लिखी है? क्या ये आपकी उपजाऊ खोपड़ी की उपज नहीं है??

विडम्बना देखिए, रजिस्ट्रार ने अपने हुक्मनामे में ‘एस्कॉर्ट्स एम्प्लाइज यूनियन’ मामले में चंडीगढ़ उच्च न्यायलय के आदेश का उल्लेख किया है। आप और आपके आक़ा क़ानून का भी सम्मान नहीं करते सर। अगर करते होते तो बेलसोनिका यूनियन का ये मुद्दा भी तो उसी चंडीगढ़ उच्च न्यायलय में लंबित है जिसका जिक़्र रजिस्ट्रार कर रहा है। अदालत का फैसला आने का भी सब्र नहीं हुआ!! ‘मामला सब-ज्युडिस है’ ये जुमला मज़दूरों को धमकाने के लिए ही है क्या? अदालत का फ़ैसला आने तक रुक जाते तो कौन सा पहाड़ टूट पडऩे वाला था!! ‘दो संस्थानों के मज़दूर एक यूनियन के सदस्य नहीं हो सकते’। बेलसोनिका कंपनी और उसका ठेकेदार दो अलग-अलग संस्थान हैं ये कैसे सिद्ध होगा? काम की जगह एक है, मशीनें एक हैं, कच्चा माल एक है, उत्पाद पर मालिकाना एक है, उसके मुनाफ़े को हड़पने वाला मालिक एक है; तो, ये दो संस्थान हुए कैसे?

मज़दूरों को महीने की मज़दूरी रु 50,000 रुपये की जगह, मात्र 12,000 रुपये देकर डबल काम लिया जाएगा कोई श्रम अधिकार नहीं दिया जाएगा इसीलिए तो मालिकों और उनकी सरकार की मनमानी से मज़दूरों की हत्यारी ठेका प्रथा लागू है। ठेका प्रथा लादने में मज़दूरों की अनुमति कभी ली गई है क्या? मालिकों की मनमानी का खामियाज़ा मज़दूर क्यों भुगतेंगे?

इसी रजिस्ट्रार ने 13.08.2021 के पत्र द्वारा ट्रेड यूनियन क़ानून के नियम 5 की व्याख्या इस तरह की है; ‘साधारण सदस्य के सम्बन्ध में रुल 5:‘बेलसोनिका ऑटो कंपोनेंट्स इंडिया प्रा. लिमिटेड प्लाट नं. 1, फेज 3ए, आई एम टी मानेसर, गुडगांव-122051’ में कार्यरत कोई भी मज़दूर यूनियन का सदस्य बन सकता है बशर्ते कि वह प्रति माह 50 रु चंदा दे तथा सदस्यता की समस्त अवधि में केवल एक बार 100/- सदस्यता शुल्क का भुगतान करे।’ यूनियन ने सदस्यता रद्द करने की धमकी वाले पत्र दिनांक 26.12.22 के जवाब में दिनांक 27.02.23 को अपने जवाब में अगर ख़ुद ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रार द्वारा दिए गए ज्ञान का उल्लेख कर दिया तो कौन सा गुनाह कर दिया? रजिस्ट्रार द्वारा ज़ारी लिखित दिशा-निर्देश का उल्लंघन कहां हुआ? रजिस्ट्रार ने छुट्टी के दिन यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द करने का हुक्मनामा कहीं इस डर से तो ज़ारी नहीं किया कि चंडीगढ़ उच्च न्यायलय मज़दूरों के पक्ष में फ़ैसला सुना सकता है? रजिस्ट्रार ने अपने दिशा-निर्देश में ये कहां लिखा है कि ठेका मज़दूर सदस्य नहीं बनाए जा सकते?

रजिस्ट्रार द्वारा लिखित निर्देश दिए जाने के बाद ही 6 मज़दूरों केशव राजपूत, सद्दाम, राजकुमार, केशर कुमार सिंह, अजय वर्मा और धर्मेन्द्र ने यूनियन के समक्ष सदस्यता ग्रहण करने की अजऱ्ी दी जिसे यूनियन ने स्वीकार कर लिया। ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 तथा औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 दोनों क़ानून यूनियन सदस्यता के सम्बन्ध में नियमित मज़दूर और ठेका मज़दूर के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। वैसे भी ‘समान काम के समान दाम’, हर नागरिक का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ‘बोकाजन सीमेंट कारपोरेशन एम्प्लाइज यूनियन’ वाले मामले में ये फैसला सुना ही चुकी है कि किसे सदस्यता देना है और किसे नहीं देना यूनियन का अधिकार है। इसमें कोई बाहरी दखलंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। लेकिन रजिस्ट्रार फिर भी दखलंदाज़ी करेंगे क्योंकि वे माननीय सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर हैं!! तब तो ये अदालतें बंद कर दी जानी चाहिएं। जो मालिक के मुंह से निकल गया वही क़ानून है, ऐसा फऱमान ज़ारी कर दिया जाना चाहिए। हुकूमतें लेकिन वह भी नहीं करेंगी क्योंकि तब तो मज़दूरों को ये समझ आ जाएगा कि न्याय पाने के लिए उन्हें क्या करना है। ऐसा तो सोचते ही मालिकों को पसीने छूटते हैं। मुगालता भी रहना चाहिए धुंधलका भी रहे जिससे आगे का रास्ता साफ़ नजऱ ना आए!!

‘यूनियन को, एक ही सांस में आग-बबूला और नरम नहीं होने दिया जा सकता’। आग-बबूला तो आप हो रहे हैं रजिस्ट्रार जी। मज़दूर तो नरम ही ह। मज़दूरों की गर्मी आपने देखी ही कहां है अभी। मज़दूर जिस दिन आग- बबूला होंगे उस दिन आप और आपका ये जर्जर तंत्र, उन्हें नहीं रोक पाएगा। मज़दूर अगर एक हो गए जैसे कि इमकानात नजऱ आ रहे हैं तो, सदियों का पुराना हिसाब बराबर कर डालेंगे। मालिकों और उनके रंगबिरंगे ताबेदारों को सडक़ों पर दौड़ा लेंगे्र और उस दिन मज़दूर किसी रजिस्ट्रार से अनुमति नहीं लेंगे। फुर्सत मिले तो इतिहास पढि़एगा। रजिस्ट्रार आगे फऱमाते हैं; ‘अदालत में मामला लंबित है’, मात्र इतना कहने से वैधानिक सरकार को फैसला लेने से नहीं रोका जा सकता’ तो फिर अदालत की अवमानना क्या होती है मिस्टर रजिस्ट्रार? सरकार वैधानिक है तो क्या अदालत अवैधानिक है?

1मज़दूरों को, ‘मई दिवस’ का नया संस्करण लिखना होगा
शिकागो के अमर शहीद मज़दूरों द्वारा, 1886 के मई के पहले सप्ताह में, अपने खून से लिखी गई, इबारत की दास्तां पुरानी हो गई. बाज़ी, आज, पूरी तरह पलटी जा चुकी है. मज़दूरों के शोषण-उत्पीडऩ की तीव्रता, उतनी ही हो चुकी है, जितनी मई दिवस से पहले थी. हर तरफ़, स्थाई मज़दूरों की भर्तियां बंद हैं, और ठेका मज़दूरों की तादाद बढ़ती जा रही है. ना सिफऱ्, भर्तियां नहीं हो रहीं, बल्कि, किसी ना किसी बहाने, स्थाई मज़दूरों को काम से निकाला जा रहा है. ठेका मज़दूरों को इंसान ही नहीं समझा जा रहा. ना काम के घंटे तय हैं, ना कोई दूसरी सेवा-शर्तें. ऐसे में, लेबर कोड रद्द कराने वाली लड़ाई भी बेमानी हो गई है. इसीलिए, मोदी सरकार, लेबर कोड लागू करने पर ज़ोर भी नहीं दे रही. ठेका मज़दूर मतलब, उतने अधिकार भी नहीं, जितने लेबर कोड में मयस्सर होंगे.

बेलसोनिका मानेसर के बहादुर मज़दूरों ने, ठेका मज़दूरों को अपनी यूनियन की सदस्यता देकर, बहुत ही साहसिक और सही फैसला लिया है. बहुत क्रमबद्ध तरीक़े और अनुशासित ढंग से, उन्होंने अपना आन्दोलन चलाया है. उकसावे के बावजूद, शांति भंग नहीं होने दी. इसी साल, जून महीने में, उन्होंने लम्बी क्रमिक भूख हड़ताल की. उसके बाद, श्रम विभाग, डीसी और कंपनी प्रबंधन ने मिलकर, समझौते का रास्ता निकाला, जिसे यूनियन ने पूरी विनम्रता से स्वीकार किया. यूनियन पदाधिकारियों को, वापस काम पर नहीं लिया गया था, फिर भी आंदोलन वापस ले लिया गया था. हरियाणा सरकार ने, यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द कर, मज़दूरों के सामने ही नहीं, बल्कि समूचे मज़दूर वर्ग के समक्ष, एक चुनौती प्रस्तुत की है. ये एक भडक़ावे की कार्यवाही है. बेल्सोनिका यूनियन ने, रजिस्ट्रेशन रद्द होने का हुक्मनामा प्राप्त होते ही, 26 सितम्बर को, गुडगाँव डीसी कार्यालय तक, शानदार मोर्चा निकालकर और ज्ञापन देकर, बहुत सही जवाब दिया है. इस लड़ाई को, लेकिन, कोई भी यूनियन अकेले नहीं लड़ सकती. मज़दूरों को, ये अधिकार खैरात में नहीं मिले. मज़दूरों ने, अक्षरस: अपने खून से इनकी क़ीमत चुकाई है. सभी मज़दूर यूनियनों को, हरियाणा सरकार की, इस हिटलरशाही का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए, गोलबंद होना होगा. ठेका मजदूरों को संगठित करने का सवाल बहुत अहम सवाल है.

यह, आगे, ट्रेड यूनियन आंदोलन की दिशा तय करने वाला मसला है. इसे उतनी ही संजीदगी से लिया जाना ज़रूरी है. मजदूरों को अपने संघर्षों की पिच ऊपर उठानी होगी. उसके लिए, इस मुद्दे से वाजिब, दूसरा मुद्दा नहीं हो सकता. एक बात तय है, बेलसोनिका यूनियन अगर हार गई, और ठेका मज़दूरों को मिली यूनियन की सदस्यता, रद्द हुई, तो मज़दूर आंदोलन, इस हमले से, लम्बे समय तक नहीं उबर पाएगा. किसी भी उद्योग में, यहाँ तक कि सरकारी निकायों, सरकारी विभागों में भी, आज, स्थाई कर्मचारी, उत्पादन रोकने की स्थिति में नहीं रहे. उत्पादन रोके बगैर, मालिक उनकी किसी भी मांग पर, एक नजऱ देखने को भी तैयार नहीं होते, मानना तो दूर रहा.

“ठेका प्रथा रद्द करो, वर्ना ठेका मजदूरों को यूनियनों में शामिल किया जाएग”, इस मांग पर, सभी यूनियनों को, एक साझा मंच के तले, संगठित होना होगा. बेलसोनिका यूनियन का, संयुक्त किसान मोर्चे को, अपने आंदोलन में आमंत्रित करने का फैसला भी बुद्धिमत्तापूर्ण है, स्वागत योग्य है. किसानों-मज़दूरों का इक_ ही, इस मग़रूर, फ़ासिस्ट सरकार की चूलें हिला सकता है. मज़दूर, देश के उद्योग जगत में, अमन-चैन क़ायम रखना चाहते थे, लेकिन सत्ता को वह नहीं चाहिए. वह, मज़दूरों द्वारा, लगातार पीछे हटते जाने से नहीं होगा. तथाकथित अमन- चैन भी, एक युद्ध-विराम ही तो है, वर्ना राजनीति शास्त्र का (एंटायर पोलिटिकल साइंस का नहीं) हर विद्यार्थी जानता है, कि पूंजीवादी निज़ाम में, श्रम और पूंजी के बीच, कैसा ‘अमन-चैन’. साहिर लुधियानवी की एक मक़बूल नज़्म का ये शेर, मज़दूरों का तकिया क़लाम होना चाहिए;

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Mazdoor Morcha
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