बहस-तलब : हंगामा और विरोध तब क्यों नहीं जब आरोपी सजातीय हों?

बहस-तलब : हंगामा और विरोध तब क्यों नहीं जब आरोपी सजातीय हों?
September 06 14:24 2022

विद्याभूषण रावत
दलित महिलाओं या दलितों पर हमले पर लोग तभी बोलेंगे जब आरोपी गैर-दलित होंगे। यदि आरोपी गैर-दलित नहीं होता है तो लोगों की प्रतिक्रिया बदल जाती है। मैंने पहले भी कई बार कहा कि यदि हम मानव अधिकारों के लिए ईमानदारी से और बौद्धिक रूप से समर्पित हैं तो हमें हर व्यक्ति के अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना होगा। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत
अभी हाल ही में राजस्थान के जालोर जिले में नौ साल के दलित इंद्र मेघवाल की मौत की घटना पर हम सभी आक्रोशित थे और सभी ने इस प्रश्न पर पूरे देश भर मे अपने गुस्से का इजहार सोशल मीडिया और सडक़, दोनों जगह पर किया। नतीजा यह हुआ कि राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार और उसके अधिकारियों को इस मामले में संज्ञान लेना पड़ा और मामले की जांच जारी है। लेकिन हाल ही में राजस्थन की राजधानी जयपुर में ही एक दलित शिक्षिका के उपर पेट्रोल डालकर जिंदा जलाने की कोशिश की गई और आठ दिन बाद पीडि़ता ने दम भी तोड़ दिया, इसके बावजूद इस मामले में कोई विशेष विरोध नहीं दिखा। दरअसल, गत 10 अगस्त, 2022 को अनीता रैगर अपने स्कूटर पर अपने बच्चे को लेकर स्कूल जा रही थीं, तभी रास्ते में लोगों ने सरेआम उनके उपर पेट्रोल उड़ेलकर आग लगा दी। घटना के एक सप्ताह बाद 18 अगस्त को अनीता की सरकारी अस्पताल मे मौत हो गई।
सोशल मीडिया पर कुछ देर के लिए इस घटना के विरोध में हंगामा हुआ। लेकिन जल्द ही वह खत्म हो गया। यहां तक कि दलित-बहुजनों की राजनीति करनेवाले नेताओं ने भी अपना मुंह नहीं खोला। हालांकि लोगों की चुप्पी का कारण संभवत: यह भी कि आरोपी अनीता के रिश्तेदार ही हैं, जिन्हे उसने दो लाख रुपए दिए थे और वह उन्हे नहीं लौटा रहे थे।
इसका मतलब यही निकलता है कि दलित महिलाओं या दलितों पर हमले पर लोग तभी बोलेंगे जब आरोपी गैर-दलित होंगे। यदि आरोपी गैर-दलित नहीं होता है तो लोगों की प्रतिक्रिया बदल जाती है। मैंने पहले भी कई बार कहा कि यदि हम मानव अधिकारों के लिए ईमानदारी से और बौद्धिक रूप से समर्पित हैं तो हमें हर व्यक्ति के अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना होगा।

लगभग एक दशक पूर्व मैं झारखंड के गिरिडीह शहर में था। मेरे मित्र रामदेव विश्वबंधु ने वहां एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसका मैं मुख्य अतिथि था। लेकिन जब मैं वहां पहुंचा तो होटल मे उनके एक मित्र ने मुझे एक बेहद हृदयविदारक घटना की जानकारी दी और कहा कि कोई दलित-पिछड़ संगठन उस प्रश्न को नहीं उठा रहा है और उसने मुझसे उसे उठाने की उम्मीद व्यक्त की।

मामला यह था कि एक गांव मे रविदासी समाज की एक महिला को उसकी बदचलनी के आरोप मे उसी समाज की महिलाओं ने मुंह काला कर सारेआम बाजार मे घुमाया और फिर उसके बाल काट दिए। जब मै उस पीड़ित महिला से मिलने गया तो सारा गांव इकठ्ठा हो गया और उसके चरित्र के विषय में बताने लगा। गांव मे एक विवाह में उस महिला के मायके से आई बारात के किसी पुरुष से मिलना उस महिला, जिसकी उम्र अभी बहुत कम थी, को भारी पड गया। उसके ससुराल के किसी व्यक्ति ने उसे तथाकथित दूसरे मर्द से बात करते देख लिया और फिर उसने गांव की महिलाओं के एक समूह को इसकी जानकारी दी। सबसे खतरनाक बात यह थी कि इस महिला का अपमान करनेवालों मे स्वयं सहायता समूह की महिलाएं थीं। जब मैं उससे बात कर रहा था तो गांव के युवा लडक़े उसके चरित्र पर टिप्पणियां कर रहे थे। गांव की महिलाओं ने अपनी ‘हरकतों’ को सही बताया और उसके चरित्र पर लांछन लगाया। मैंने उनसे पूछा कि उन्हें इस महिला के अपमान का अधिकार किसने दिया। सबसे दुखद बात यह रही कि झारखंड के दलित संगठनों ने भी इस मसले पर कुछ नहीं कहा।

उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित किशोरी के साथ बलात्कार और हत्या के विरोध में प्रदर्शन करती एक महिला अभी बिलकिस बानो का मामला हमारे सामने है। जिस महिला ने इतनी बड़ी हैवानियत झेली हो कि दूध पीती बच्ची को पटक-पटक कर उसकी आंखों के सामने मार दिया गया हो, उसके परिजनों को मार दिया गया हो और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया हो, उसके दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा न केवल रिहा कर दिया गया बल्कि फूल-मालाओं से सम्मान किया गया। यह यही बताता है कि देश में हालात कैसे हो चुके हैं। देश का जो समाज और मीडिया निर्भय कांड के समय सबसे मुखर था, उसने बिलकिस बानो के परिवार के हत्यारों और बलात्कारियों को छोड़ देने पर बेहद ही शर्मनाक चुप्पी साध लिया है। और आरएसएस के लोग सोशल मीडिया पर शहबानो मामले और अन्य मसलों पर सवाल पूछ रहे हैं, जिनमें आरोपी मुसलमान रहे हैं। मतलब अब सही और गलत कुछ नहीं रहा, केवल यह महत्वपूर्ण बन गया है कि हत्यारा कौन है, उसकी जाति क्या है और धर्म क्या है।

यदि हम एक सभ्य समाज है तो हमे हर उस व्यक्ति के साथ खड़े रहना चाहिए जो जातिवादी सांप्रदायिक और पितृसत्तात्मक समाज के सामूहिक या व्यक्तिगत अपराधों का शिकार होता है। मतलब यह कि हिंसा या अपमान केवल इसलिए माफ नहीं किए जा सकते, क्योंकि वह घर के अंदर के मामले हैं या किसी भी हिंसा या अपमान की क्रूरता या अपराध इसलिए कम नहीं हो सकता क्योंकि वो ‘बिरादरी’ के अंदर का मामला है। लेकिन इस समय बदलते भारत की यही तस्वीर है। यहां जातीय या खाप पंचायतों के गैर-कानूनी और अमानवीय निर्णयों पर कोई सवाल खड़े करने के बजाय लोग अपनी-अपनी जाति पंचायतों के मसलों को छुपा देते हैं तथा केवल तभी ‘क्रांतिकारी’ बनते हैं, जब मामला दूसरी जाति का होता है।
दरअसल ऐसी चुप्पी और उन्हें सही ठहराने की घटनाएं केवल एक बात साबित करती है कि हम कोई बदलाव के वाहक नहीं, अपितु अपनी-अपनी जातियों की पुरुषवादी खोली में बैठे हैं और वहीं से तीर चला रहे हैं। बर्बरता और असभ्यता हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनते जा रहे हैं, क्योंकि हमारी संवेदनाए भी हमारी जातिगत सोच का हिस्सा बन चुकी है और उसका नतीजा यही होता है हम क्रांतिकारी तभी हैं जब अपराधी हमारी बिरादरी का नहीं है। आखिर बाबा साहब के जातीय का विनाश या जोतीराव फुले के सत्य सत्यशोधक समाज और पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन का लक्ष्य क्या था? यदि हम अपने आप को इन सभी पुरोधाओं की परंपरा का मानते हैं तो हर प्रकार के अपराध, जातिवादी हिंसा और महिला हिंसा का प्रतिकार करना ही होगा तभी समतामूलक समाज का निर्माण हो सकेगा।

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles