अवसर खोकर बने थे वह प्रेमचंद

अवसर खोकर बने थे वह प्रेमचंद
May 12 12:59 2024

विष्णु नागर
प्रेमचंद ने अपने जीवन में तीन बड़े अवसर खोना पसंद किया। पहले वह डिपुटी सब इंस्पेक्टर थे मगर बाद में वह अध्यापक बन गए। शिवरानी देवी से विवाह के एक महीने बाद ही वह सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए थे। अफ़सरी उन्हें पसंद नहीं थी। उनका कहना था कि अफसर बन कर इंसान, इंसान नहीं रह जाता। वैसे यह नौकरी मौज की थी। कष्ट एक ही था, दौरे पर जाना होता था। जब वे महोबा में नियुक्त थे, तो उनकी इच्छा होती थी कि शिवरानी देवी भी उनके साथ चला करें, घर में अकेली न रहें। दौरे पर उनकी रावटी लगती थी। खाना पकाने के लिए एक महाराज साथ रहता था। एक चपरासी भी साथ होता था। दौरे पर जाने के लिए घोड़ा भी मिलता था। भत्ता भी मिलता था। दूध, घी, बर्तन सब मिलते थे। बेगार लेने का भी महोबा में नियम-सा था। रईस तिलक लगाकर अफसर को कुछ धन देते थे। धन लेना वह सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे। उन्होंने कभी पैसे नहीं लिये। बहुत मनाने पर वह दूध ले लेते थे। कहते थे, इसे मैं तो नहीं खाऊंगा। मेरे नौकर खाएंगे। दूध इतना होता था कि नौकर इसका खोया बना कर खाते थे।

घंटे भर में दौरे का काम पूरा हो जाता था। बाकी पूरे दिन फुर्सत होती थी मगर शिवरानी जी को झिझक होती थी कि दौरे पर अफसर की बीवी,अफसर के साथ घूमे। वह एक ही बार कोई मेला देखने पति के साथ गई थीं।

खैर महोबा उनके स्वास्थ्य की दृष्टि से रास नहीं आया। पेट ठीक नहीं रहता था। तबादले की मांग की। वहां से उनका स्थानांतरण बस्ती कर दिया गया। बीच- बीच में दो बार आधी तनख्वाह पर पेट की समस्या के कारण छुट्टी ली। जब तीसरी बार भी स्थानांतरण चाहा तो अफसर ने परेशान होकर कहा कि मास्टरी मंजूर हो तो कर लो। मंजूर है? अफसर थे तो सौ रुपए महीना मिलने लगे थे। मास्टरी में केवल चालीस मिलने की बात थी। पति- पत्नी में विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि मास्टरी की जाए। दौरा करने से तो बचाव होगा। बाद में खैर नौकरी ही छोड़ दी।

खैर मास्टरी स्वीकार करने का फैसला तो एक तरह से मजबूरी थी पर दो बार इससे बहुत बड़े प्रस्ताव सैद्धांतिक आधार पर ठुकराए। 1924 में प्रेमचंद लखनऊ में थे। उन दिनों उनका उपन्यास ‘रंगभूमि’ छप रहा था। इस दौरान अलवर रियासत के राजा की चिट्ठी लेकर 5-6 आदमी उनके पास आए। अलवर के राजा प्रेमचंद को अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते थे। तनख्वाह 400 रुपए प्रतिमाह थी। साथ में मोटर और बंगला देने का प्रस्ताव था। प्रेमचंद ने मना कर दिया। राजा के लोगों से कहा कि ये बहुत बागी आदमी है। उधर उन्होंने विनम्रतापूर्वक राजा साहब को पत्र लिखा कि मैं आपका धन्यवाद देता हूं कि आपने मुझे याद किया। मैंने अपना जीवन साहित्य सेवा के लिए लगा दिया है। मैं जो कुछ लिखता हूं ,उसे आप पढ़ते हैं ,इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूं। आप जो पद मुझे दे रहे हैं, मैं उसके योग्य नहीं हूं। मैं इतने में ही अपना सौभाग्य समझता हूं कि आप मेरे लिखे को ध्यान से पढ़ते हैं। अगर हो सका तो आपके दर्शन के लिए कभी आऊंगा।

एक और प्रसंग है । लखनऊ का ही। गवर्नर हेली ने अपने एक हिंदुस्तानी मित्र से पत्र लिखने के लिए कहा कि वह प्रेमचंद को रायसाहबी देना चाहते हैं क्योंकि वह भारत के सबसे बड़े लेखक हैं। जिनसे गवर्नर ने कहा था, वह स्वयं प्रेमचंद की किताबों के बड़े भक्त थे। उन्होंने इन्हें पत्र लिखा कि गवर्नर साहब आपको रायसाहबी का खिताब देना चाहते हैं, आप उनसे मिल लीजिए। प्रेमचंद ने इसे स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि तब मैं जनता का आदमी न रहकर, सरकार का पिट्ठू  हो जाऊंगा। अभी तक मेरा सारा काम जनता के लिए हुआ है। तब गवर्नमेंट मुझसे जो लिखवाएगी और वो लिखना पड़ेगा। उन्होंने शिवरानी जी से बात करके मना किया था। उन्होंने धन्यवाद का पत्र लिखा कि मैं जनता का तुच्छ सेवक हूं। अगर जनता की रायसाहबी मिलेगी तो सिर आंखों मगर गवर्नमेंट की रायसाहबी की कोई इच्छा नहीं है। गवर्नर साहब को मेरी तरफ से धन्यवाद दे दीजिएगा। सोचिए आज ऐसे कितने लेखक हैं,जो इतने बड़े प्रस्ताव को ठुकरा सकें? (शिवरानी देवी की पुस्तक ‘ प्रेमचंद घर में’ से?)

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