अडानी की दौलत का काला साम्राज्य

अडानी की दौलत का काला साम्राज्य
January 01 16:18 2023

सत्यवीर सिंह
“बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में”, ‘पानसिंह तोमर’ फिल्म का ये डायलॉग बहुत मक़बूल हुआ था, हॉल में ऐसी तालियाँ गूंजी थीं, मानो किसी ने लोगों के दिल की बात कह दी हो!! गौतम अडानी के कोयले के विराट काले साम्राज्य और सरकारी खज़ाने की नंगी लूट के बारे में, अमेरिका में प्रकाशित, जाने-माने अख़बार, ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में 9 दिसंबर को छपी शानदार रिपोर्ट पढक़र, ज़हन में फिल्म का ये दृश्य जीवंत हो जाता है. दूसरी भावना जो दिमाग में घुमड़ती है, वो है, भारतीय मीडिया की रीढ़विहीनता और सरकार-भक्ति का ये आलम है, कि जिस रिपोर्ट को छापना, तहकीक़ात करना, सरकारी खज़ाना लुटने से बचाना और लूट में शामिल सभी छुपे अपराधियों को जनता के सामने नंगा करना, उसकी जि़म्मेदारी थी, ना सिफऱ् उसने वह नहीं निभाई, बल्कि इस धमाकेदार रिपोर्ट के छपने के बाद भी ऐसी चुप्पी साध ली, मानों सांप सूंघ गया हो!! गणेशा शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार पैदा करने वाला ये मुल्क, आज कैसे सड़ांध वाले गटर में पहुँच गया है, कि घिन आती है.

झारखंड के गोड्डा जि़ले की ज़मीन, जहाँ आदिवासी किसान बेइंतेहा ग़ुरबत में जी रहे हैं, कोयले के कच्चे माल से मालामाल है. कोयला, ऊर्जा का प्रमुख स्रोत रहा है हालाँकि इस प्रक्रिया में प्रदूषणकारी कार्बन का उत्सर्जन अधिकतम होता है. मुनाफ़े की हवस ने, आकाश के इस सबसे खूबसूरत ग्रह, पृथ्वी को दमे का मरीज़ बना दिया है. सबसे ज्यादा क़सूरवार कोयला ऊर्जा है. इसीलिए कोयले को ऊर्जा का गन्दा स्रोत कहा जाता है, और धीरे- धीरे इसे समाप्त कर, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की ओर लौटना धरती बचाने के लिए ज़रूरी हो गया है.
एक ओर देश जहाँ, भुखमरी और कंगाली में सोमालिया के नज़दीक 107 वें नंबर पर पहुँच गया है, वहीं, मोदी सरकार का सबसे चहेता धन-पशु, गौतम अडानी, दुनिया के रईसों की फ़ेहरिस्त में दूसरे नंबर पर है. जैसे-जैसे कंगाली पसर रही है, वैसे-वैसे अडानी की दौलत कुलाचें भर रही है. देश की गऱीबी और अडानी की अमीरी की कहानी को, गोड्डा के अडानी पॉवर प्लांट की हकीक़त से समझा जा सकता है.

2014 का लोकसभा चुनाव, देश की दशा और दिशा बदलने वाला, एक तारीखी चुनाव था. सारी दुनिया ने देखा, कि उस चुनाव में मोदी को देश के कोने-कोने में घुमाकर, शाम को गांधीनगर पहुँचाने वाला एक अत्याधुनिक, शानदार निजी विमान था, जिसपर बहुत मोटे अक्षरों में ‘अडानी’ लिखा हुआ था. उससे पहले, देश की सत्ताधारी पार्टियाँ, सरमाएदारों से अपने रिश्तों और उनकी ताबेदारी करने की शर्मिंदगी को छुपाया करती थीं. ये भी पहली बार हुआ कि देश का होने वाला प्रधानमंत्री, डंके की चोट पर ये घोषणा करता नजऱ आया, “हाँ, मैं अडानी के जहाज का इस्तेमाल कर रहा हूँ”. देश के शासन-तंत्र को एक स्पष्ट सन्देश दिया जा रहा था.

चुनाव के तुरंत बाद उसका असर दिखना ही था. झारखंड के गोड्डा जि़ले में अडानी के पॉवर प्लांट की बुनियाद, प्रधानमंत्री के कर कमलों द्वारा, 2015 की उनकी बांग्लादेश दौरे के दौरान रखी गई. सारा देश जानता है, उस वक़्त उनके विदेश दौरों में गौतम अडानी ज़रूर तशरीफ़ ले जाते थे. ये महज़ एक कोयला कारखाने की नीव ही नहीं रखी जा रही थी, दौलत के ऐसे साम्राज्य का उदय हो रहा था जिसे बहुत दूर जाना था. इस साम्राज्य के रास्ते में जो भी रोड़ा बना, वो रुई की तरह उड़ता चला गया, सबने देखा है. अडानी के गल्ले में आज 8 हवाई अड्डे और 13 बंदरगाह हैं. उसकी कुल माल-मत्ता जो 2020 में $9 बिलियन थी, नवम्बर 2022 में $127 बिलियन पहुँच गई. इसे कहते हैं विकास!! इस तूफ़ानी मुनाफ़े का 60 प्रतिशत भाग उसके कोयले के साम्राज्य से ही आता है. अडानी के पास आज 4 कोयला चालित बिजली घर हैं, 18 कोयले की खानें हैं. देश में कुल कोयला खपत का 75 प्रतिशत हिस्सा, अडानी द्वारा ही मुहैया कराया जाता है.

गोड्डा के जंगलों में उठता-पसरता कोयले का गुब्बार यूँ ही बे-वज़ह नहीं है. ज्यों ही इस आदिवासी भाग में अडानी के, 1600 मेगावाट बिजली पैदा करने वाले, $1.7 बिलियन बजट वाले कारखाने की नाप-तोल शुरू हुई, सैकड़ों गावों के किसान, जिन्हें रोज़ी-रोटी उसी ज़मीन से मयस्सर होती थी, इक_े हो गए. संगठित होकर ज़बरदस्त आन्दोलन किया, जो दिन-रात चला. एक दिन तडक़े 4 बजे, पुलिस और सशस्त सुरक्षा दलों की फौज ने उनपर हमला बोल दिया और लाठियां बरसाकर उनकी टाँगें तोड़ दीं. सैकड़ों आन्दोलनकारियों को जेलों में ठूंस दिया गया. उन्हें मालूम नहीं था, किस ‘महामानव’ से पंगा ले रहे हैं. आजकल तो ऐसा होना बंद हो गया है कि कोई विधायक या सांसद, अडानी की किसी परियोजना का विरोध करने की जुर्रत करे, लेकिन 2015 में परिदृश्य इतना स्पष्ट नहीं हुआ था, इसलिए ‘झारखंड विकास मोर्चा-प्रजातान्त्रिक’ के स्थानीय विधायक, प्रदीप यादव ने प्रभावित गऱीब किसानों की तहरीक का साथ दिया. उन्हें भी पुलिस की ‘ख़ातिरदारी’ झेलनी पड़ी और 6 दिन जेल में बिताने पड़े.

मोदी जी के, ‘सर्वप्रथम पड़ोसी’ मिसन के तहत, बांग्लादेश यात्रा का मक़सद था- ‘एक जिग़री दोस्त, पड़ोसी मुल्क के साथ सांस्कृतिक रिश्ते गहरा करना’!! मोदी जी ने अपनी विशेष वेश-भूषा और विशिष्ट अंदाज़ में, पहले ढाका में धाकेश्वरी हिन्दू मंदिर में पूजा अर्चना की, 40 साल पुराने सीमा विवाद को सुलझाया और फिर धंधे के लिए मेज पर बैठ गए. बगल में गौतम अडानी स्वाभाविक रूप से मौजूद थे. उस मेज से दोनों महापुरुष, बांग्लादेश द्वारा भारत की निजी कंपनियों को बिजली के उत्पादन, हस्तांतरण और वितरण के क्षेत्र में व्यवसाय करने की छूट देने तथा अडानी की कंपनी द्वारा बांग्लादेश को बिजली आपूर्ति करने की $4.5 बिलियन डॉलर’ की डील पर हस्ताक्षर करके ही उठे.

आज अंतर-राष्ट्रीय व्यापर समझौते किस तरह हो रहे हैं, ये रहस्य भी इस ‘ऐतिहासिक समझौते’ से स्पष्ट हो जाता है. बांग्लादेश अपनी ज़रूरत से अधिक बिजली पैदा कर रहा है. उसे आज बिजली की बिलकुल ज़रूरत नहीं. इस समझौते के मुताबिक़, बांग्लादेश बिजली खऱीदे या ना खऱीदे, अडानी का बिजली कारखाना जैसे ही उत्पादन शुरू करेगा, बांग्लादेश को उसे हर साल $450 मिलियन देने ही पड़ेंगे!! बांग्लादेश ने अडानी की बिजली खऱीदी भी, तो वो 5 गुना मंहगी होगी. बांग्लादेश के लोग विरोध कर रहे हैं, विशेषज्ञ विरोध कर रहे हैं, लेकिन 163 पृष्ठ के इस बिजली समझौते को देश-हित में बताते हुए, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की तकऱीर देखिए. “बांग्लादेश को गऱीब मुल्क के स्तर से उठाकर मिडिल क्लास वाले मुल्क में पहुँचाना है. 2030 तक बांग्लादेश का कपड़ा उद्योग और उसके शहर 3 गुना बढ़ जाएँगे. तब उसे बहुत ज्यादा बिजली की ज़रूरत होगी. हम दूरदृष्टि से काम कर रहे हैं, भविष्य के लिए बिजली का इंतेज़ाम अभी से कर रहे हैं!!” मुमकिन है अगले चुनाव में शेख़ हसीना भी अडानी के हवाई ज़हाज़ में बैठी चुनाव प्रचार करती नजऱ आएं!! वैसे भी अडानी साहब की ख़ासियत है, चुनावों में उनके दोस्तों को पैसे की किल्लत कभी नहीं रहती; शेख हसीना भी ये सच्चाई शायद जान चुकी हैं!!

बांग्लादेश के पर्यावरणविद, हसन मेंहेदी का कहना है कि उनके देश में उद्योगों के इतने ख़स्ताहाल हैं, और बिजली की मांग इतनी गिर गई है, कि मौजूदा बिजलीघर 60त्न क्षमता पर ही चल रहे हैं. दूसरी मुसीबत ये है,कि ये समझौता बांग्लादेश के बिजली उत्पादन के भविष्य को भयानक प्रदूषणकारी स्रोत, कोयले से बांध देगा.

धरती के सबसे प्रदूषित क्षेत्र को, बहुत मंहगी कोयला बिजली इस्तेमाल करने को मज़बूर करेगा. बांग्लादेश के बिजली विभाग के भूतपूर्व निदेशक, बी डी रहमतुल्लाह ने इस तथाकथित ऐतिहासिक समझौते की असलियत ही खोल दी. उनका कहना है की शेख हसीना जानती हैं कि ‘ये समझौता बांग्लादेश के लिए विनाशकारी है, लेकिन हम तो भारत के एक सूबे के बराबर भी नहीं, हम मोदी को नाराज़ नहीं कर सकते.’ इसे कहते हैं साम्राज्यवादी शोषण. कुछ वामपंथी विद्वान जो, पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी शोषण से, देसी सरमाएदारों की मुक्ति की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं, वे चाहें तो अपनी आँखों पर बंधी यांत्रिक सोच की पट्टी खोल सकते हैं. आज कुछ साम्राज्यवादी मुल्क गऱीब देशों के सरमाएदारों को ‘दलाल पूंजीपति’ बनाकर शोषण नहीं कर रहे.

वह वक़्त पीछे छुट गया. पूंजी का चरित्र ही आज साम्राज्यवादी हो गया है. भारत आज इलाकाई चौधरी की भूमिका में है. ख़ुद साम्राज्यवादी शोषक बन चुका है. पडौसी देशों के साथ रिश्ते खऱाब होने की ये ही वज़ह है. 1991 में शुरू हुए ‘उदारीकरण’ की पैदाइश है; गौतम अडानी 1991 में जब नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने, दरबारी मीडिया और सरमाएदारों की तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच, अर्थव्यवस्था को ‘मुक्त’ कर ‘उदारीकरण’शुरू किया था, तब गौतम अडानी गुजरात में बजाज स्कूटर पर घूमता था. अमेरिकी कंपनी ‘कारगिल’ ने गुजरात के समुद्र किनारे बसे गाँव, ‘मुंद्रा’ में नमक की खानें खऱीदने के लिए गुजरात सरकार को प्रस्ताव किया तो उसका बिचौलिया गौतम अडानी था. ‘डील’ पट गई और बतौर बिचोलगिरी, अडानी को सफ़ेद बंजर, कच्छ में 2000 एकड़ ज़मीन हाथ लगी, जिसपर उसने गहरे समुद्र वाला बंदरगाह बनाना शुरू कर दिया. एक और बहुमूल्य ज्ञान जो अडानी ने हांसिल किया, जो आगे बहुत काम आया, वह था, ‘शासन तंत्र काम कैसे करता है’!! आज वह पोर्ट अत्याधुनिक तकनीक के साथ 10 मील तक फैला, दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में एक है, जहाँ अडानी का साम्राज्य फैला हुआ है.

भूतपूर्व वित्त सचिव, सुभाष चन्द्र गर्ग के अनुसार, अडानी, क़ामयाबी के ऐसे गुर जानता है कि वह नाकामयाब हो ही नहीं सकता. देश में कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहाँ अडानी मौजूद नहीं. अडानी समूह के भूतपूर्व प्रशासनिक अधिकारी नारायण हरिहरन का कहना है कि आज भारत की अर्थव्यवस्था में, अडानी समूह की हिस्सेदारी उस स्तर को छू चुकी है, कि अगर वो डूबा तो समझो देश की अर्थव्यवस्था की ऑक्सीजन की आपूर्ति ही रुक जाएगी. अडानी दूसरे कॉर्पोरेट जैसा नहीं है, जिनके कारोबार सत्ता बदलने से ख़तरे में पड़ जाते हैं.
उसके रिश्ते, भाजपा ही नहीं कांग्रेस से भी उतने ही मधुर हैं, भले आज राहुल गाँधी उसे देश के गरीबों का दुश्मन बताकर खूब तालियाँ बटोर रहे हैं. वह अच्छी तरह जानता है, कि मंत्री-संत्री किस धुन पर नाचते हैं!! फिर भी ये निर्विवाद है कि 2002 से 2014 के बीच, गुजरात में जैसी जुगलबंदी, मोदी-अडानी की बनी, उसका तोड़ नहीं!! ‘तेज़ औद्योगिक विकास’ के लिए ‘विशेष आर्थिक ज़ोन (स्श्र्वं)’ बनाने की प्रथा, उसी वक़्त परवान चढ़ी. ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ का मतलब है कि वहां उद्योगपतियों का ही राज़ होगा. कोई सरकारी दखल नहीं, कोई श्रम कानून नहीं, कोई कर नहीं!! इसीलिए सभी सरमाएदार मगरमच्छ, उस वक़्त, मनमोहनसिंह की आरती उतारा करते थे. अडानी ने मुंद्रा में विशाल एसईज़ेड बनवाया और 10 वर्ग किमी ज़मीन, मोदी से लगभग मुफ्त में प्राप्त की, जिसे उसने बाज़ार भाव से बेच अकूत धन कमाया.

झारखंड के क़ानून के मुताबिक, जो कंपनी भी वहां बिजलीघर लगाएगी, वह उत्पादित बिजली का 25त्न अत्यंत रियायती दर पर राज्य को देगी. अडानी ने ये क़ानून मानने से इंकार कर दिया. इससे राज्य को हर साल $240 मिलियन का नुकसान हो रहा है. चूँकि अडानी उस बिजली को बांग्लादेश में बहुत ज्यादा दर पर बेचेगा, उसे इससे कुल $1.1 बिलियन का मुनाफ़ा होगा. इसी वज़ह से 2016 में ये परियोजना अटक गई थी लेकिन गौतम अडानी के छोटे भ्राताश्री, राजेश अडानी तुरंत अपने सूटकेस लेकर रांची पहुंचे. अगले दिन झारखंड के मुख्यमंत्री, रघुबर दास अपने अधिकारीयों, मंत्रियों, पर्यावरण विशेषज्ञों को ये समझाते नजऱ आए, कि इस परियोजना में कोई अड़ंगा नहीं चाहिए. ये वैसे ही मंज़ूर होगा जैसे अडानी साहब चाहेंगे!! झारखंड सरकार ने वह 25 प्रतिशत वाला क़ानून बदल डाला.

झारखंड में धुंवा और राख़ फ़ैलाने वाली और बांग्लादेश को 5 गुनी मंहगी दर से बिजली बेचने वाली यह परियोजना, पर्यावरण मंजूरी के लिए बनी उच्च स्तरीय कमेटी में भी अटक गई थी. 5 महीने तक जब वह कमेटी ‘विचार-विमर्श’ से आगे नहीं बढ़ी तो वह कमेटी ही बदल दी गई. तत्कालीन पर्यावरण मंत्री अनिल दवे (2016) ने नई कमेटी बनाई जिसने ‘व्यापार की सरलता’ संस्कृति के तहत, तुरंत वह परियोजना किसी अगर-मगर के बिना मंज़ूर कर दी!! 2018 में परियोजना वैसे ही मंज़ूर हो गई जैसे अडानी चाहता था. लेकिन एक अड़चन फिर भी रह गई; हर साल अडानी को करोड़ों डॉलर का टैक्स देना बनता था. टैक्स देना, अडानी को बिल्कुल पसंद नहीं!! समाधान तुरंत प्रकट हो गया. तत्कालीन पर्यावरण मंत्री सुरेश प्रभु (2018) ने उस क्षेत्र को एसईज़ेड घोषित कर दिया, जबकि क़ानून है कि किसी भी एक कारखाने को एसईज़ेड घोषित नहीं किया जा सकता. ये क़ानून भी बदल डाला गया. भले वहां एक कारखाना है लेकिन है तो अडानी का!! टैक्स देने का अब कोई झंझट ही नहीं रहा!! एक सचिव फाइल पर दस्तख़त करने में आनाकानी कर रहा था, उसे चलता कर दिया गया.
एसईज़ेड बनने से, अकेले कोयले के आयात से अडानी को हर साल $35 मिलियन डॉलर का लाभ हो रहा है क्योंकि कोयले के आयत पर $5 प्रति टन का टैक्स लगता है, जो अब बिलकुल नहीं लगता. ये परियोजना पर्यावरण की ऐसी-तैसी कर देने वाली है. हर दिन 18,000 टन कोयला जलता है. 3.6 करोड़ घन लीटर पानी हर साल इस्तेमाल हो रहा है. 900 फुट ऊँची चिमनियों से लगातार फैलते धुंवे से 8 किमी दूर तक अँधेरा छाया रहता है. लेकिन प्रदूषण तो सिफऱ् किसानों द्वारा पराली जलाने से होता है!!! भारत ही नहीं, अडानी की कोयला परियोजना को ऑस्ट्रेलिया के पर्यावरण कार्यकर्ता भी नहीं रोक पाए. प्रधानमंत्री, जब, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पृथ्वी को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए ऊर्जा के ‘गंदे’ स्रोत कोयले के इस्तेमाल को समाप्त करने के लिए लच्छेदार भाषण पेल रहे थे, भारत में अडानी की ये परियोजना, चिमनी भरकर गहरे घने धुंवे के बादल बना रही थी!!

(स्रोत एवं साभार- वाशिंगटन पोस्ट में दिनांक 9 दिसंबर को छपी, निर्भीक पत्रकार गेरी शीह, निहा मासीह की अनंत गुप्ता रिपोर्ट; “How political will often favors a coal billionaire and his dirty fossil fuel”)

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Mazdoor Morcha
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