आंगनवाड़ी: शासकों की लूट कमाई का साधन बन कर रह गयी

आंगनवाड़ी: शासकों की लूट कमाई का साधन बन कर रह गयी
October 18 03:41 2021

फरीदाबाद (म.मो.) जब शासन-प्रशासन की नस-नस में भ्रष्टाचार भरा हो व लूट कमाई एकमात्र मकसद हो तो फिर गरीब बच्चों के नाम पर मिलने वाले राशन को हड़पने में भी किसी को कोई शर्म महसूस नहीं होती। इस शहर में उन गरीब बच्चों के लिये 1200 आंगनवाड़ी हैं जिनके मां-बाप मज़दूरी करने के लिये सुबह से शाम तक घर से बाहर रहने को मज़बूर होते हैं। इसलिये अधिकतर आंगनवाडिय़ां मज़दूरों की स्लम बस्त्तियों में ही बनाई गयी हैं।

आंगनवाड़ी में बच्चों के तीन वर्ग बनाये गये हैं। पहले में एक से डेढ, दूसरे में डेढ से तीन और तीसरे में तीन से छ: वर्ष तक के बच्चों को रखा जाता है। इनमें बच्चों की कुल संख्या 40 से 70 तक कुछ भी हो सकती है। इसलिये औसतन 1200 आंगनवाडिय़ों में कुल बच्चों की संख्या 60000 से 70000 तक हो सकती है। इनका सर्वे करने पर पाया गया कि तीसरे वर्ग यानी तीन से छ: वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के ही नाम अधिक दर्ज हैं और पहले वर्ग में न के बराबर। सबसे मजेदार बात जो पहाड़ी पर स्थित नेहरू कॉलोनी में यह देखने को मिली कि वहां नाम 68 बच्चों के दर्ज हैं जो 8×8 के कमरे में बैठना तो दूर खड़े तक भी नहीं हो सकते। लगभग सभी आंगनवाड़ी केन्द्रों की यही स्थिति है। इसका स्पष्ट अर्थ यह निकलता है कि बच्चों की दर्ज संख्या फर्जी है, जो कुल दर्शायी गयी संख्या का एक चौथाई भी नहीं है।

फर्जी संख्या दिखाने के पीछे असल उद्देश्य, प्रति बच्चे के हिसाब से मिलने वाले राशन को हड़पना है अर्थात तीन चौथाई से अधिक फर्जी बच्चों के नाम पर मिलने वाला राशन हड़प लिया जाता र्है। इस लूट में से केन्द्रों पर कार्यरत कामगारों को तो मात्र खाना भर ही नसीब होता है, असल माल तो ऊपर तक बैठे अधिकारी लोग बाहर की बाहर यानी खरीदारी करते वक्त ही डकार जाते हैं।

प्रत्येक केन्द्र पर एक वर्कर जिसका वेतन 12000 मासिक है तथा एक हेल्पर 4000 मासिक पर रखे हैं। इनका काम बच्चों की देखभाल व उनके साथ बातचीत करना व हो सके तो कुछ पढ़ाना-लिखाना होता है। खाना पकाने के लिये स्वयं सहायता ग्रुप के नाम से एक टोली है। जिसे एक रुपया प्रति बच्चे के हिसाब से पैसे मिलते है। इस ग्रुप में दो से अधिक महिलायें कभी नहीं होती। एक बस्ती में बने दो से तीन केन्द्रों को ये ग्रुप बड़ी आसानी से सम्भाल लेते हैं। सुधी पाठक समझ गये होंगे कि बच्चों की चौगुणी संख्या दर्शाने से इनकी दिहाड़ी भी ठीक-ठाक बन जाती है। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि रखे गये उक्त स्टाफ में से अधिकांश की शैक्षणिक एवं आवासीय वैरिफिकेशन आज तक नहीं हुई। इन केन्द्रों का तयशुदा समय प्रात: नौ बजे से सांय तीन बजे तक है, लेकिन कोई भी केन्द्र 10 बजे से पहले चालू नहीं होता। इसी तरह शाम को भी समय से पहले ही बंद कर दिये जाते हैं। इन केन्द्रों की निगरानी करने के लिये 17 सुपरवाइज़र तो तैनात हैं पर नौ पद अभी रिक्त पड़े हैं। सुपरवाइज़रों के ऊपर 6 पद सीडीपीओ के हैं जिनमें से चार अभी रिक्त हैं। इसके ऊपर एक प्रोग्राम अफसर यानी जि़ला महिला एवं बाल विकास अधिकारी होती है। इन सबके ऊपर जि़ला उपायुक्त अपने अतिरिक्त उपायुक्त एवं एसडीएम के माध्यम से नियंत्रण रखते हैं।

सब मिल कर कैसा नियंत्रण एवं प्रशासकीय देख रेख कर रहे हैं उसका यह एक छोटा सा उदाहरण मात्र है।

नियमानुसार यह केन्द्र किसी कार्यकर्ता अथवा कर्मचारी के अपने या रिश्तेदार के घर पर नहीं चलाया जा सकता, परन्तु अधिकांश केन्द्र इसकी उल्लंघना करके ही चलाये जा रहे हैं। दर-असल इस तरह के प्रोजेक्ट में जब न तो किसी को न्यूनतम वेतन मिले और न ही किसी किस्म की सरकारी सुविधा, जो अन्य कर्मचारियों को मिलती है तो नियमों का उल्लंघन करके ही कार्यकर्ता एवं कर्मचारी अपनी गुजर-बसर कर सकते हैं। ऊपर बैठे अधिकारीगण इनकी अनियमितताओं को नजरंदाज करते हैं तो चुपचाप माल भी डकार जाते हैं।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार बच्चों की गिनती के हिसाब से दाल, चावल, गेहूं, सरसो का तेल, रिफाइंड तेल, चीनी, मूंगफली, सोयाबीन आदि अनेकों चीजें बच्चों के नाम पर खरीदी जाती हैं। समझा जा सकता है कि तमाम खरीद तो होती है, पर रजिस्टरों में दर्ज बच्चों की संख्या के आधार पर वितरित होती है मात्र एक चौथाई से भी कम बच्चों में। स्पष्ट है कि बाकी माल वे सब अधिकारी डकार रहे हैं जिनकी ड्यूटी इस चोरी को रोकने की है। यानी अधिकारीगण ठीक वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे कि बिल्ली दूध की रखवाली करती है।

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Mazdoor Morcha
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