रजनीश की बौद्धिक बेईमानी

रजनीश की बौद्धिक बेईमानी
July 16 05:14 2024

तंजलि योगसूत्र के अंतिम भाग में एक सूत्र आता है – “जात्यंतर परिणाम: प्रकृत्यापूरात।” इसकी व्याख्या हिन्दू पण्डितों सहित रजिस्टर्ड भगवान ओशो रजनीश ने इस तरह की है –
“एक वर्ण/जाति या वर्ग से दूसरे वर्ण या जाति में प्रवेश (अगले जन्म में) प्राकृतिक शक्तियों के अतिरेक से होता है।” यह सूत्र मनुष्यों के बारे में है। मानव समाज के बारे में है।

अक्सर ही ये माना जाता है कि पतंजलि योगसूत्र रहस्यवाद या मनोविज्ञान का ग्रन्थ है, जिसमें धर्म या समाज की राजनीतिक बकवास की गन्दगी नही है; लेकिन इस सूत्र से आपको पता चलेगा कि पतंजलि का तथाकथित गहन योग भी, आपके समाज की मूर्खताओं को कायम ही रखता है। उन्हें बदलने की प्रेरणा नही देता। उपरोक्त उद्धृत सूत्र पर गौर कीजिये; पतंजलि भी मानते हैं कि “एक जाति/वर्ण और वर्ग से दूसरी (ऊंची जाति वर्ण वर्ग) में जाने के लिए प्राकृतिक शक्ति यानी “प्राण” का अतिरेक यानी अधिकता आवश्यक है!”
भगवान रजनीश भी इसकी व्याख्या करते हुए आधुनिक जीव विज्ञान और मानव विज्ञान सहित समाजशास्त्र की किसी भी स्थापना का सहारा नही लेते और बहुत साफ़ शब्दों में पतंजलि और उनके समय जन्मी सामाजिक भेदभाव की मानसिकता को ही आगे बढ़ाते है।

चूँकि योग और योगसूत्र पुरुषों के लिए है, इसलिए शायद पतंजलि या रजनीश ने ये लिखना उचित नही समझा कि प्राण की अधिकता से ही स्त्री, अगले जन्म में पुरुष बनती है!
हालांकि जैन शास्त्रों में ये साफ़ लिखा है कि स्त्री शरीर से मोक्ष नही हो सकता, उसके लिए स्त्री को योग का पालन करके, अगले जन्म में पुरुष का जन्म लेना होगा और फिर उसका कुछ हो सकता है!

भगवान रजनीश ने जैनों की इस मान्यता की निंदा की है और कहा है कि “जैन शास्त्र स्त्री विरोधी हैं!”
लेकिन यही रजनीश, जब हिंदुओं की भीड़ जुटाने के लिए, उनसे धन और राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए गीता और योगसूत्र पर प्रवचन करते हैं, तब वर्ण व्यवस्था को वैज्ञानिक व्यवस्था सिद्ध करते हैं, और पतंजलि की व्याख्या करते हुए जाति/वर्ण और वर्ग को भी एक “मेटाफिजिकल रियालिटी” बनाकर पेश करते जाते है! आश्चर्य की बात ये है कि रजनीश का दावा है कि उन्होंने दुनिया की सारी महत्वपूर्ण किताबे पढ़ ली थीं। लेकिन वे इस सूत्र की व्याख्या में पश्चिमी समाज की व्यवस्था को या डार्विन और लैमार्क को बिल्कुल अनुमान में नही ले रहे होते हैं। यही उनकी बौद्धिक बेईमानी का सबूत है। जब उन्हें पैसे जुटाने थे, तब उन्होंने सब मूर्खताओं का समर्थन किया। अंत में जब उनके आश्रम दुनिया के सबसे मालदार आश्रम बन गए,तब उन्होंने सब धर्मों और शास्त्रो की निंदा शुरू की! उनके भक्त ये सब जानते हैं लेकिन वे इसकी बात नही करते! इस सूत्र में पतंजलि और रजनीश दोनों ये कह रहे हैं कि “ऊंचे वर्ण/ जाति और वर्ग में प्रवेश, प्राण की अधिकता से होता है”; इसलिए इन दोनों के अनुसार इसका अर्थ ये हुआ कि “उच्च वर्ण में प्रवेश करना हो तो योग और प्राणायाम करो।”

इसका एक अन्य अर्थ ये है कि “सामाजिक आर्थिक बदलाव की बजाय प्राणायाम अधिक जरुरी है! इसीलिये रजनीश के सन्यासी इस समाज को बदलने ने रत्ती भर का काम नही करते।
वे फोकट के ध्यान/समाधि प्राणायाम में उलझे रहते हैं और दुनिया की सबसे प्रगतिशील प्रेरणाओं को भी रजनीश की विरोधाभासी व्याख्याओं में उलझाकर खत्म कर देते हैं।
रजनीश ने खुद कहा है कि “दुनिया जैसी है, वैसी ही रहेगी; उसको बदलने में खुद को मत उलझाना, चुपचाप अपना ध्यान/साधना करते रहो!” गौर से देखिये, यही भारत का पूरा धर्म हजारों साल से करता आया है, इसी ने भारत को गुलाम/गरीब और अंधविश्वासी बनाया है। रजनीश इस मानसिकता को तोड़ नही रहे, बल्कि और मजबूत ही कर रहे हैं! अब जिन लोगों को ये गलतफहमी है कि पतंजलि और भगवान रजनीश प्रगतिशील और सुलझे हुए आदमी थे, वे अपनी मान्यताओं पर दुबारा विचार कर लेना चाहें!

संजय श्रमण

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