बीमा योजना के नाम पर स्विगी कंपनी द्वारा मज़दूरों की लूट

बीमा योजना के नाम पर स्विगी कंपनी द्वारा मज़दूरों की लूट
July 16 05:00 2024

स्विगी डिलीवरी मज़दूर राकेश जनवरी 2024 के अंत में दक्षिण भारत के शहर हैदराबाद में भोजन के ऑर्डर पहुचा रहा था। इसी दौरान उसकी पत्नी का फ़ोन आया -वह बहुत दर्द में थी। अगले तीन हफ़्तों में राकेश को उसकी जांच के लिए भाग-दौड़ करनी पड़ी, जिसके कारण उसका काम प्रभावित हुआ। राकेश भारत की दूसरी सबसे बड़ी फ़ूड डिलीवरी ऐप स्विगी के लिए ‘गोल्ड’ स्तर का गिग मज़दूर था। उसने हफ़्ते में कम से कम 100 ऑर्डर दिए, 14-14 घंटे की शिफ़्टों में। काम की बेहतर रैंकिंग ने उसे और उसके परिवार को अन्य सुविधाओं के साथ-साथ कंपनी द्वारा स्पांसर स्वास्थ्य बीमा के लिए योग्य बनाया। राकेश की पत्नी के इलाज का ख़र्च डॉक्टर ने करीब सवा लाख रुपये बताया। लेकिन स्विगी ने अपने बीमे के तहत यह ख़र्च उठाने से इनकार कर दिया। कंपनी ने कहा कि उसकी रैंकिंग गोल्ड से सिल्वर पर गिर गई है। लेकिन यह नहीं देखा गया कि ऐसा उसकी पत्नी की बीमारी के कारण काम प्रभावित होने से हुआ है। इस तरह उसका परिवार कंपनी की सुविधाओं के लिए अयोग्य हो गया।

“मैं बहुत ग़ुस्से में था। मैं स्विगी के लिए दिन-रात काम करता हूं-क्या कंपनी को मेरे परिवार का साथ नहीं देना चाहिए?” हताश राकेश ने मीडिया को बताया। राकेश ने बताया कि स्विगी ने महज कंपनी नीति का हवाला देकर मदद करने से पल्ला झाड़ लिया।

अक्टूबर 2023 में, एक मुंबई स्विगी डिलीवरी राइडर, जिसने कंपनी में सात साल काम किया था, ने अपनी पत्नी की डिलीवरी ख़र्च के लिए 23,000 रुपए का बीमा दावा दायर किया। लेकिन चार महीने बाद, रिलायंस जनरल इंश्योरेंस ने सिल्वर दर्जे का हवाला देकर उस मज़दूर के दावे से इनकार कर दिया। इस तरह कितने ही मज़दूर इस योजना से वंचित रह जाते हैं और इसे कंपनी की नीति कह दिया जाता है।

स्विगी की शुरुआत 2014 में हुई थी और 2023 में इसकी आमदनी 8,625 करोड़ रुपए थी। भोजन डिलीवरी के अलावा इस कंपनी द्वारा किराना डिलीवरी और कूरियर डिलीवरी सेवाएंँ भी दी जाती हैं। 2023 में सामने आए एक आँकड़े के अनुसार स्विगी के भोजन और किराना डिलीवरी सेवा के लिए 500 से अधिक शहरों में लगभग 3 लाख चालक मज़दूर काम कर रहे थे। स्विगी द्वारा सामान पहुंचाने वाले इन मज़दूरों को गिग मज़दूर कहा जाता है। इस तरह के काम में मज़दूर की कोई पक्की तनख़्वाह या दिहाड़ी नहीं होती, बल्कि काम के हिसाब से मज़दूर को वेतन मिलता है। इस काम में कंपनी एक ऑनलाइन ऐप द्वारा मज़दूरों को अलग-अलग काम सौंपती है। मज़दूरों को एक दिन में एक तय लक्ष्य के मुताबिक़ कम से कम काम करने ज़रूरी होते हैं। इस लक्ष्य को कंपनी निर्धारित करती है और किसी भी समय ये लक्ष्य बदले भी जा सकते हैं और बदले जाते हैं। काम शुरू करने के समय मज़दूर के साथ हुए करार को कंपनी किसी भी समय बदल या रद्द कर सकती है। इस काम के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द ‘आज़ाद ठेकेदार’ की पोल तब खुलती है, जब करार की शर्तें तय करने से लेकर बदलने का हक़ सिफऱ् मालिक के पास ही होता है।

गिग मज़दूरों को एक दिन में कम-से-कम 9 से 12 घंटे काम करना पड़ता है और इससे ज़्यादा काम करने पर मालिक कंपनी उन्हें कुछ ज़्यादा पैसे देती है। ऐसे में मालिक बड़े लालच से मज़दूरों का वेतन इतना कम रख देते हैं कि आमतौर पर मज़दूरों को ज़्यादा काम करना पड़ता है। कंपनी मज़दूरों को “आज़ाद ठेकेदार” कहकर मालिक-मज़दूर के असली रिश्ते को छिपाने की कोशिश करती है। काम पर रखने के समय मज़दूर को काम की आज़ादी, अपने मालिक ख़ुद होने जैसे झांसे दिए जाते हैं। अगर कोई मज़दूर एक निश्चित संख्या से अधिक ऑर्डर रद्द करता है, तो कंपनी उसे काम से निकाल सकती है। तथाकथित “आज़ाद ठेकेदार” होने के कारण गिग मज़दूरों को पेंशन, पी.एफ़. की कोई सुविधा नहीं मिलती। काम के दौरान किसी हादसे के कारण अगर बाईक का नुक़सान होता है, तो मरम्मत के लिए भी कंपनी किसी किस्म का कोई भुगतान नहीं करती। पेट्रोल, डीज़ल की क़ीमतें बढऩे के बाद भी मज़दूरों को मिलने वाले पैसे ज़्यादा नहीं बढ़ाए जाते, क्योंकि मुक़ाबले में टिके रहने के लिए ग्राहकों को छूट दी जाती है। इस तरह गिग मज़दूरों का असल वेतन और ज़्यादा नीचे गिर जाता है। इसके अलावा इन मज़दूरों को काम ग्राहकों द्वारा दी गई समीक्षा के आधार पर मिलता है। इस तरह कंपनी की किसी भी ग़लती का नतीजा भी आखिऱ में मज़दूरों को ही भुगतना पड़ता है।

भारत में गिग काम अभी ग़ैर-संगठित क्षेत्र जैसा है, जहां श्रम अधिकार मौजूद नहीं। मज़दूरों को यूनियन बनाने और हड़ताल करने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। यहां तक कि कंपनी के नुमाइंदे मज़दूरों से मांगपत्र भी नहीं लेते। इस काम में मज़दूरों को असुरक्षा का काफ़ी ज़्यादा सामना करना पड़ता है। मज़दूरों पर जल्दी से जल्दी सामान डिलीवरी करने का बोझ लदा रहता है, क्योंकि अगर मज़दूर ट्रैफिक़ के कारण भी देरी से काम पूरा करता है, तो उसके पैसे काट लिए जाते हैं या फिर दर्जाबंदी गिर जाती है। ग्राहकों से अच्छी समीक्षा पाने के लिए उन्हें हमेशा अपनी जान जोखिम में डालकर काम करना पड़ता है। आगे मिलने वाले कामों को पिछले किए गए कामों की संख्या प्रभावित करती है। इसलिए इस तरह के काम में हमेशा ही मज़दूरों पर बहुत ज़्यादा मानसिक बोझ बना रहता है।

स्विगी कंपनी हाल ही में मज़दूरों के लिए एक गतिशील दर्जाबंदी सिस्टम लेकर आई है। इसके आधार पर मज़दूरों और उनके परिवारों को बीमे की सुविधा मिलेगी। यह रेटिंग किए गए काम की संख्या और ग्राहक से मिलने वाली समीक्षा के साथ हर हफ़्ते बदलती रहेगी। गोल्ड रैंक वाले मज़दूर को अपने और अपने परिवार के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना का लाभ मिलेगा। लेकिन सिल्वर रैंक वाले मज़दूर के परिवार को कोई लाभ नहीं मिलेगा। इसी तरह ही कांसे के रैंक वाले मज़दूर को सिफऱ् किसी दुर्घटना की हालत में ही बीमा योजना का लाभ मिलेगा। यह सीधा-सीधा मज़दूरों की जान ख़तरे में डालने वाला काम है, क्योंकि मज़दूरों को इस योजना का लाभ लेने के लिए अपना रैंक बनाए रखना पड़ता है और इससे असुरक्षा बढ़ेगी। यह योजना ख़तरे के समय मज़दूरों की मदद करने के लिए नहीं, बल्कि मज़दूरों की जान ख़तरे में डालने वाली है।

“रेस्ट ऑफ़ वल्र्ड” नामक एक संस्था ने पिछले समय में दिल्ली, मुंबई, जयपुर, बैंगलुरु और हैदराबाद में 40 स्विगी फ़ूड डिलीवरी ड्राइवरों से बात की। उनमें से 65 फीसद ने कहा कि उन्होंने इस बीमा सेवा को ग़लत पाया है। आधे से अधिक चाहते हैं कि स्विगी अपनी पुरानी बीमा प्रणाली बहाल करे। बहुत सारे ड्राइवरों ने यह भी कहा कि बीमे की व्यवस्था बहुत जटिल है और उनके बीमे के दावे को पूरी तरह या आंशिक तौर पर रद्द कर दिया गया था।

गोल्ड रैंक बरकरार रखने के लिए मज़दूरों को संपूर्ण डिलीवरी पर निर्भर होना पड़ता है, जिसका मतलब है कि ग्राहक को बहुत ज़्यादा फ़ोन किए बिना, ऑर्डर को नुक़सान पहुंचाए बिना और देर किए बिना समय पर डिलीवरी करना। मीडिया से बात करने वाले डिलीवरी ड्राइवरों में लगभग 40 फीसदी ने कहा कि उन्हें अपनी गोल्ड रैंकिंग बरकार रखने के लिए ज़रूरी अंक हासिल करने के लिए प्रतिदिन 1-2 घंटे अधिक लगाने पड़ते हैं। उन्हें बहुत बार दिन में 15-16 घंटे काम करना पड़ता है। पूंजीवादी व्यवस्था में जब पूंजीपति ख़ूब मुनाफ़ा कमा रहे होते हैं, तब भी मज़दूरों को सही से वेतन और अन्य सुविधाएं नहीं दी जातीं। लेकिन जब घाटा होता है, तो सबसे पहले मज़दूरों के वेतन और सुविधाओं पर कट लगाया जाता है। स्विगी का यह फ़ैसला भी ऐसा ही है। पूंजीपतियों से हक़ हासिल करने के लिए असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को एकजुट होकर जुझारू संघर्ष करने की ज़रूरत है।
-संजू

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles