क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा ‘अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमारे देश के कृषि अनुसंधान का अजेंडा तय करने का अवसर प्राप्त हो गया है…इनका एक मात्र लक्ष्य भारतीय कृषि को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चरागाह बनाना है’
विदेशी कंपनियों को मार भगाओ, ये हमें लूट रही हैं। डब्ल्यूटीओ, आईएमएफ, वल्र्ड बैंक ही मेहनतक़शों के असली दुश्मन हैं। इन नारों/ मांगों को भावनाओं में बहकर नहीं, अच्छी तरह सोच-समझकर उठाने की ज़रूरत है। कुछ लोग इन मांगों को इस तरह उठा रहे होते हैं, मानो, बेचारे देसी सरमाएदार क्या कर सकते हैं, जब विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन्हें लूट रही हैं! कई बार तो पढक़र लगता है, मानो मोदी सरकार जो भी किसान-विरोधी, मज़दूर-विरोधी काम कर रही है वह इनके दबाव में ही कर रही है!
वह तो भला काम करना चाहती है लेकिन कैसे करे अमेरिका नहीं करने देता! सरकार सब कुछ, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में कर रही है! इस तर्क को और आगे बढ़ाया जाए तो वहीं पहुंचेगा, ‘राष्ट्रीय’ बुर्जुआजी पश्चिमी देशों से शोषित है! यह कुतर्क आज के साम्राज्यवादी शोषण के चरित्र को समझने में ग़लती से पैदा होता है। मोदी सरकार या कोई भी दूसरी सरकार किसी के दबाव में कुछ नहीं करती। जो भी शासक वर्ग के सबसे प्रभुत्वकारी सेक्शन इजारेदार वित्तीय कॉर्पोरेट पूंजी के हित में होता है उनकी ताबेदार सरकार बिलकुल वही करती है। उनके हित में ना हो तो एक इंच भी टस से मस नहीं होती; भले अमेरिका कितने भी पांव पटक ले!
उदाहरणों से पहले एक हकीक़त: दरअसल जिन कंपनियों को ‘अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां’ कहा जाता है उनमें भी या तो इंडियन कॉर्पोरेट की हिस्सेदारी है या यहां दी गई लूट की छूट के बदले यूरोप अथवा अमेरिकी बाज़ार में हिस्सेदारी ली जानी होती है। ज़बरदस्ती से डांट-डपटकर कुछ नहीं हो रहा, जो भी हो रहा है मिली भगत से ही हो रहा है।
क्या आप जानते हैं कि मोदी सरकार ने डब्ल्यूटीओ के ‘ट्रेड फेसिलिटेशन एग्रीमेंट’ पर अभी तक साइन नहीं किए हैं? अमेरिका 2015 से कई बार धमकी भी दे चुका लेकिन इंडिया नहीं माना क्योंकि इसके तहत हर वस्तु के आयात पर कस्टम ड्यूटी कम करने को कहा गया है। इंडिया ने आज तक न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफरेशन ट्रीटी, कंप्रीहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी पर साइन नहीं किए। महाबली मोदी की बात नहीं आईएमएफ में नौकरी कर चुके विनम्रता की मूर्ति, जेंटलमैन मनमोहन सिंह ने भी अमेरिका को धीमी आवाज़ में लेकिन सख्ती से कह दिया था नहीं करेंगे, जो करना है करो।
इंडिया ने रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप पर दस्तख़त करने से साफ़ इनकार कर दिया था आज तक नहीं किए। ‘पेरिस अकॉर्ड ऑन क्लाइमेट चेंज, 2020’ पर साइन करने से साफ इनकार किया हुआ है, क्योंकि इसके तहत, कोयले के उत्पादन और उपयोग पर पाबंदी लगाने की बात थी, जिसका असर सीधा महाबली के महाबली अडानी पर होने वाला था। इंडिया ने अमेरिका से डंके की चोट पर कहा; कोयले पर कोई भी पाबंदी मंज़ूर नहीं आप अपना देखिए, हमें मत सिखाइए बिलकुल यही भाषा इस्तेमाल की गई थी। अमेरिका, ईरान को दुनिया के नक्शे से मिटा डालना चाहता है, क्योंकि वह बाक़ी अरब देशों की तरह उसके आगे नहीं गिड़गिडाता। अरब में अमेरिका के एकछत्र राज क़ायम होने को ईरान ने ही रोका हुआ है। अमेरिका का ख़ूनी कुत्ता इजराइल सिफऱ् उसी से डरता है। ईरान पर अमेरिका ने ऐसे प्रतिबंध लगाए हुए हैं कि अगर इंडिया और चीन उससे व्यापार न करें तो भूखा मर जाएगा। इंडिया ने अभी 10 दिन पहले चाहबार बंदरगाह का ठेका लिया है भले बाईडेन के कान लाल हो गए थे।
यूक्रेन पर हमले के बाद रूस पर अमेरिका ने बहुत सख्त पाबंदियां लगाई हुई हैं। इतनी सख्त कि अगर इंडिया उससे कच्चा तेल और हथियार न खरीदता तो अब तक उसकी हालत पतली हो जाती। युद्ध न लड़ पाता। दो साल से भयानक युद्ध चल रहा है लेकिन रूस मज़े में है जबकि अमेरिका और यूरोप की सांसें फूलने लगी हैं, मुंह में झाग आने लगे हैं। अमरीकियों के हर दबाव को ठुकराते हुए इंडिया ने ऐलानिया कहा हम बिल्कुल नहीं सुनेंगे हम अपने अडानी अम्बानियों की लूट में एक नए पैसे का नुकसान नहीं होने देंगे।
साम्राज्यवादी स्वरूप धारण कर चुकी पूंजी के शोषण के राज को सुचारू रूप से ज़ारी रखने के लिए जो डब्ल्यूटीओ, आईएमएफ, वल्र्ड बैंक जैसे इदारे हैं, इनका विरोध, देश में शासक वर्ग के सबसे वर्चस्वकारी सेगमेंट के विरोध से ही किया जा सकता है। इस तरह नहीं कि लगे कि दबंग अमेरिकी कॉर्पोरेट बेचारे देसी कॉर्पोरेट और उनकी ताबेदार सरकार का कान पकडक़र जन-विरोधी, कृषि-विरोधी काम करा रहे हैं। डब्ल्यूटीओ से बाहर आने की मांग भी इस सच्चाई को समझाते हुए ही उठाई जानी चाहिए कि कृषि में सब्सिडी ख़त्म करना कृषि को मुक्त बाज़ार बना देना, आयत-निर्यात निर्बाध बना दिया जाना, जो डब्ल्यूटीओ की नीतियां हैं, ठीक वही अडानी अंबानी टाटा बिरादरी चाहती है।
हमारे किसी भी आंदोलन से अगर देसी कॉर्पोरेट लुटेरों के प्रति हमदर्दी झलक रही हो वे शोषित-पीडि़त जन-मानस के क्रोध और घृणा से बच रहे हों, तो उस रणनीति या आंदोलन के लब्बोलुआब को चेक करना ज़रूरी है, कि कहीं ग़लती तो नहीं हो रही। इंडियन बुर्जुआजी बहुत शातिर और काइयां है। गुटनिरपेक्षता का झंडा उठाकर इसने 1947 से ही रूस और अमेरिका दोनों ख़ेमों से रियायतें हासिल की हैं और अपने मुनाफ़े को विकराल बनाया है। यह वर्ग सबसे तीखी नफऱत का हक़दार है। ये वही चाहते हैं, जो डब्ल्यूटीओ चाहता है। साम्राज्यवादी शोषण के मौजूदा स्वरूप में देसी और विदेशी कंपनियों का भेद मिट चुका है। इनका क्या देसी और क्या विदेशी? दोनों मिलजुल कर लूट रहे हैं। अगर हम हर वाक्य में, सिफऱ् विदेशी कंपनियों को ही गरियाएंगे, उन्हें ही विलेन बनाएंगे तो देसी लुटेरे मुस्कुराएंगे जिसके वे क़तई हक़दार नहीं हैं।
मज़दूरों का खून चूसकर देसी लुटेरे, विदेशियों, अमेरिकी, यूरोपीय लुटेरों से भी ज्यादा मोटे हो चुके हैं। आज के शासक वर्ग के सबसे प्रभुत्वकारी एवं वर्चस्वकारी तब$के एकाधिकारी वित्तीय कॉर्पोरेट के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष ही साम्राज्यवादियों के इन औज़ारों को भी थोथरा करेगा। देसी लुटेरों को निशाने पर लिए बगैर आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ और वल्र्ड बैंक को निशाने पर नहीं लिया जा सकेगा।