राजवती जी नहीं रहीं : संघर्षों की वह धधकती लौ बुझ गई

राजवती जी नहीं रहीं : संघर्षों की वह धधकती लौ बुझ गई
June 08 14:51 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
जरूरी नहीं कि मज़दूर-कामगार-दिहाड़ी मज़दूरों के हित मेंं काम करने वाला कोई मज़दूर नेता हो या कोई नामचीन हस्ती। अनुसूचित जाति और बहुत ही निम्न आय वाले परिवार से आने वाली राजवती का जीवन संघर्ष और गरीब, मज़दूरों की मदद करने का उनका जज्बा हर व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है।

राजवती जी का जन्म, गांव योहावा, तहसील मांट, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के एक दलित परिवार में 1 जनवरी 1974 को हुआ था। गांव के प्राइमरी स्कूल में उनकी ‘कुछ’ पढ़ाई अर्थात उन्हें अक्षर ज्ञान हुआ। उनकी शादी कम उम्र में ही कोसी कलां और मथुरा के बीच स्थित क़स्बा नुमा गांव, छाता निवासी बिजेंद्र सिंह से, 1987 में हुई थी। चर्मकार जाति से होनेे के कारण दंंपत्ति को ब्राह्मणवादी -मनुवादी सामाजिक व्यवस्था मेंं अन्याय-उत्पीडऩ व असहनीय भेदभाव का नैसर्गिक रूप से सामाना करना पड़ा। बावजूद इसके अच्छे भविष्य के लिए राजवती और बिजेंद्र ने तय किया कि वे गांव में नहीं रहेंगे। 1988 में वे फऱीदाबाद आ गए, बिजेंद्र ओल्ड फरीदाबाद रेलवे स्टेशन के मुख्य द्वार के बाहर मोची का काम करने लगे और राजवती बेलदारी का काम करने लगीं।

मेहनत की और ‘गांधी कॉलोनी’ में 25 वर्ग गज़ ज़मीन पर अपना घर भी लिया। स्टेशन के बाहर, धूल और धुएं के बीच खुले में काम करते हुए बिजेंद्र सिंह को खांसी रहने लगी। डॉक्टर के पास गए तो पता चला उन्हें टीबी है। बीमारी बढ़ी तो काम पर जाना भी कम हो गया। आजीविका की व्यवस्था डगमगा गई। बिजेंद्र-राजवती के बड़े बेटे विजय का जन्म तो छाता में ही हो गया था।

फऱीदाबाद में बेटा अजय तथा दो बेटियां मालती और रेनू भी परिवार में जुड़ गए थे। व्यवस्था बिगड़ी ता 1991 में परिवार फिर छाता पहुंच गया। बिजेंद्र सिंह की टीबी का कोई इलाज नहीं हो पाया और 2000 की सर्दियों में उनकी मौत हो गई। बिजेंद्र सिंह के जाने के वक़्त राजवती की उम्र मात्र 28 साल थी।

राजवती के मायके वालों की माली हालत उनसे बेहतर थी साथ ही उनके बड़े भाई राजस्थान पुलिस मेंं अधिकारी थे। बहन के कम उम्र में वैधव्य से परेशान भाई नेे उन्हें शादी करने की सलाह दी साथ ही पैतृक खेत में अपना हिस्सा देने का प्रस्ताव भी रखा लेकिन स्वाभिमानी राजवती ने इनकार कर दिया। पुलिस अधिकारी भाई से कहा तुम अगर मेरी मदद करना ही चाहते हो तो मेरे बड़े बेटे विजय को अपने साथ ले जाओ उसे पढ़ा दो।’ राजवती ने खेत मजदूरी की, और आय बढ़ाने के लिए अपने घर में ही कृत्रिम ज्वैलरी की दुकान खोल ली। शिक्षा का महत्व समझते हुए बच्चों को अच्छे स्कूल मेंं दाखिला दिलाया लेकिन जाति-ज़हर से भरे बेरहम समाज की लंपट नजऱों का मुक़ाबला करने के लिए उन्हें हर रोज अपने साहस का इम्तेहान देना होता था। बावजूद इसके वो हर जरूरतमंंंद की कामगार, दिहाड़ी मज़दूरोंं के राशन आदि की अपनी क्षमता अनुसार मदद करने को तत्पर रहतीं। इस बीच परिवार की समस्याओं से भी घिरी रहीं। 2007 में छोटी बेटी रेनू की दिमागी बुखार से मौत हो गई।

इस बीच बड़ा बेटा विजय जयपुर से स्नातक करने के बाद एक दवा कंपनी में सेल्स एग्जीक्यूटिव लग गया उसे फरीदाबाद भेजा गया। 2019 में राजवती अपने परिवार के साथ बेटे विजय के पास फऱीदाबाद आ गईं। राजवती का परिवार किराए के मकान में टिकावली गांव में रहने लगा। बेटोंं ने काम छोडऩे को कहा लेकिन कभी किसी के सामने हाथ न फैलाने वाली खुद्दार राजवती ने इनकार कर दिया। उन्होंने टिकावली गांंंव की मार्केैट में सब्जी का ठेला लगाना शुरू कर दिया। मदद करने का स्वभाव ऐसा कि जल्द ही लोगों मेंं अम्माजी के नाम से मशहूर हो गईं। ठेले पर आने वाले हर गरीब, मज़दूर, कामगार का दुख दर्द साझा करना और मदद करना उनका स्वाभाव हमेशा रहा। परिवार की खाद्यान्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गेहूं के सीजन में एक खेत की कटाई कर इतना गेहूंं इकट्ठा  कर लेतीं कि साल भर आराम से कट जाता।

इतने लंबे संघर्ष के बीच उन्होंने बैटे-बेटियों की शादी की। बेटों के मना करने के बावजूद राजवती ने सब्जी का अपना ठेला लगाना नहीं छोड़ा। जब भी रेलवे स्टेशन या एनआईटी 4-5 जाना होता राजवती गांधी कॉलोनी में अपने उस घर को देखने ज़रूर जाती थीं जिसमें कभी वे शादी के बाद अपने पति के साथ रहीं थीं, जहां उनके एक बेटे और दोनों बेटियों ने जन्म लिया था भले वह झोंपड़ीनुमा घर टूटकर वहां बिल्डिंग बन चुकी है।

जि़न्दगी के हर कड़े इम्तेहान में सफलता पूर्वक पास करने वाली राजवती के लिए छोटे भाई की मृत्यु का सदमा ऐसा लगा कि मस्तिष्काघात से बिस्तर पर आ गईं। 8 अप्रैल की रात उन्होंने सिर दर्द की शिकायत की और बेहोश हो गईं। विजय और अजय उन्हें अमृता हॉस्पिटल ले गए लेकिन वहां के डॉक्टरों ने हालत देखकर इलाज करने के बजाए बीके अस्पताल ले जाने को कहा। बीके अस्पताल में बस एक ही ‘इलाज’ होता है, ‘मरीज को तुरंत सफदरजंग अस्पताल ले जाओ।’

उसी रात सफदरजंग अस्पताल में क उनकी मस्तिष्क की सर्जरी हुई, वहां वे 25 मई तक रहीं। उनका वेंटीलेटर और ऑक्सीजन नली हट चुके थे। डॉक्टर की सलाह पर उन्हें घर ले आया गया। आखिरकार 31 मई को बहुत तडक़े ही राजवती जिन्दगी की जंग हार गईं, मौत जीत गई।

उनकी असली कमाई उनकी मौत के बाद ही समझ आई। टिकावली गांव के जाने कितने गऱीब-गुरबे ‘अम्मा’ के प्रति सम्मान प्रकट करने आते जा रहे हैं, जिनमें किसी को भी घर वाले नहीं पहचानते। मौत की खबर सुनकर आंसू बहाने आने वाले जो हर मज़हब-जात के हैं बस यही कहते हैं, ‘भले तुम लोग हमें नहीं जानते, लेकिन अम्मा हमारे परिवार का हिस्सा थीं।
कहां चली गईं?’ राजवती जी का एक और परिचय भी है। वे, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फऱीदाबाद’ की कोर कमेटी के सदस्य, कॉमरेड विजय की मां थीं। ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ का हर सदस्य, राजवती जी की मौत से ग़मगीन है। संगठन, उनके अनंत संघर्षों को सलाम करता है और दिल की गहराइयों से उन्हें भावपूर्ण आदरांजलि प्रस्तुत करता है

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