सुरजीत पातर की याद में उनकी कुछ कविताएं

सुरजीत पातर की याद में उनकी कुछ कविताएं
May 19 07:28 2024

(निधन : 11 मई, 2024)
1
कविवर
मैं पहली पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं गुरिल्ला बागियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैंने अपनी जान की खातिर
अपनी हजारों पंक्तियों की
इस तरह हत्या की है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मंडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर !
कवि हो या कविता के हत्यारे

सुना था इंसाफ करने वाले हुए कई इंसाफ के हत्यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
खुद धर्म की पावन आत्मा की
हत्या करने वाले

सिर्फ यही सुनना बाकी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक्त में खौफ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्यारे

2
जहां मैं खड़ा हूं, जहां मैं खड़ा हूं
यह मेरी धरती है
बार-बार मैं खुद को विश्वास दिलाता हूं

यह जो लोग मेरे आस-पास हैं
उनके हाथों में जो “कुछ नहीं” है वो
किसी अफवाह से चाकू
किसी अफवाह से पत्थर
किसी अफवाह से फूलों की नम डाल बन जाता है

मैं जो कह रहा हूं
वह पता नहीं धूप है या पानी है या हवा
या आरे के दंदे हैं

मेरे लफ्जों के सब भरोसे खत्म हो गए

मेरे हर बोल की श्रृंखला में
एक कमजोर “शायद” की कड़ी है
मेरे बोलों की श्रृंखला किसी भी पल टूट सकती है
बिखर सकती है

यह सच है
कि मैं इस धरती से उगा हूं
पर यह भी सच है
कि खौफ पेड़ों की जड़ को भी
तीखे पैर बना देता है
पेड़ भी दौड़ते हैं तेज रातों-रात
एक दूसरे को काटते रौंदते फुफकारते हुए

चलो माना कि पेड़ों को
नहीं उगते कभी भी पैर
पर पेड़ को क्या पता
कल को उसकी करीबी एक लीक
निकल जाएगी चुपचाप

तब होगा निर्णय
कि पेड़ को चीरा जाएगा
या पेड़ को रख लिया जाएगा
अगर उसे चीरा जाएगा
तो उसका बनेगा क्या

पेड़ों के घने जंगल बेचारे क्या जानें
पेड़ों की राय लेकर तो कभी
चलते नहीं हैं आरे।

3
कभी सोचा ना था

वैसे तो मैं भी चंद्रवंशी
सौंदर्यवादी
संध्यामुखी कवि हूं

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छी लगती है
कमरे की मद्धम रोशनी में
उदास पानी के भंवर की तरह घूमते
एल. पी. से आती
यमन कल्याण की धुन

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
शब्?दों और अर्थों की चाबियों से
कभी ब्रह्मांडों को बंद करना
कभी खोलना
क्लास रूम में बुद्ध की अहिंसा भावना को
सफेद कबूतर की तरह सहलाना
सफेदों की सी सुंदर देहों पर
बादल की तरह रिमझिम बरसना

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
आसमान में तारों को जोड़ जोड़
तुम्हारा और अपना नाम लिखना
पर जब कभी अचानक
बंदूक की नली में से निकलती आवाज से
पढऩे गए हुओं की छाती पर
उनका भविष्य लिखा जाता है
या गहरे बो दिए जाते हैं ज्ञान के छर्रे
या सिखाया जाता है ऐसा सबक
कि घर आकर मां को सुना भी न सकें
तो मेरा जी करता है
जंगल में छुपे गोरिल्ला को कहूं:

यह ले मेरी कविताएं
जलाकर आग ताप ले

उस पल उसकी बंदूक की नली में से
निकलती आवाज को
खूबसूरत शेर की तरह बार-बार सुनने का मन होता है
हिंसा भी इतनी कवितामय हो सकती है
कभी सोचा ना था
सफेद कबूतर लहूलुहान
मेरे उन पन्नों पर गिर गिर पड़ता है
जिन पर मैं तुम्हें खत लिखने लगा था

खत ऐसे भी लिखे जाएंगे
कभी सोचा ना था

(निधन : 11 मई, 2024)
1
कविवर
मैं पहली पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं गुरिल्ला बागियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैंने अपनी जान की खातिर
अपनी हजारों पंक्तियों की
इस तरह हत्या की है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मंडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर !
कवि हो या कविता के हत्यारे

सुना था इंसाफ करने वाले हुए कई इंसाफ के हत्यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
खुद धर्म की पावन आत्मा की
हत्या करने वाले

सिर्फ यही सुनना बाकी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक्त में खौफ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्यारे

2
जहां मैं खड़ा हूं, जहां मैं खड़ा हूं
यह मेरी धरती है
बार-बार मैं खुद को विश्वास दिलाता हूं

यह जो लोग मेरे आस-पास हैं
उनके हाथों में जो “कुछ नहीं” है वो
किसी अफवाह से चाकू
किसी अफवाह से पत्थर
किसी अफवाह से फूलों की नम डाल बन जाता है

मैं जो कह रहा हूं
वह पता नहीं धूप है या पानी है या हवा
या आरे के दंदे हैं

मेरे लफ्जों के सब भरोसे खत्म हो गए

मेरे हर बोल की श्रृंखला में
एक कमजोर “शायद” की कड़ी है
मेरे बोलों की श्रृंखला किसी भी पल टूट सकती है
बिखर सकती है

यह सच है
कि मैं इस धरती से उगा हूं
पर यह भी सच है
कि खौफ पेड़ों की जड़ को भी
तीखे पैर बना देता है
पेड़ भी दौड़ते हैं तेज रातों-रात
एक दूसरे को काटते रौंदते फुफकारते हुए

चलो माना कि पेड़ों को
नहीं उगते कभी भी पैर
पर पेड़ को क्या पता
कल को उसकी करीबी एक लीक
निकल जाएगी चुपचाप

तब होगा निर्णय
कि पेड़ को चीरा जाएगा
या पेड़ को रख लिया जाएगा
अगर उसे चीरा जाएगा
तो उसका बनेगा क्या

पेड़ों के घने जंगल बेचारे क्या जानें
पेड़ों की राय लेकर तो कभी
चलते नहीं हैं आरे।

3
कभी सोचा ना था

वैसे तो मैं भी चंद्रवंशी
सौंदर्यवादी
संध्यामुखी कवि हूं

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छी लगती है
कमरे की मद्धम रोशनी में
उदास पानी के भंवर की तरह घूमते
एल. पी. से आती
यमन कल्याण की धुन

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
शब्?दों और अर्थों की चाबियों से
कभी ब्रह्मांडों को बंद करना
कभी खोलना
क्लास रूम में बुद्ध की अहिंसा भावना को
सफेद कबूतर की तरह सहलाना
सफेदों की सी सुंदर देहों पर
बादल की तरह रिमझिम बरसना

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
आसमान में तारों को जोड़ जोड़
तुम्हारा और अपना नाम लिखना
पर जब कभी अचानक
बंदूक की नली में से निकलती आवाज से
पढऩे गए हुओं की छाती पर
उनका भविष्य लिखा जाता है
या गहरे बो दिए जाते हैं ज्ञान के छर्रे
या सिखाया जाता है ऐसा सबक
कि घर आकर मां को सुना भी न सकें
तो मेरा जी करता है
जंगल में छुपे गोरिल्ला को कहूं:

यह ले मेरी कविताएं
जलाकर आग ताप ले

उस पल उसकी बंदूक की नली में से
निकलती आवाज को
खूबसूरत शेर की तरह बार-बार सुनने का मन होता है
हिंसा भी इतनी कवितामय हो सकती है
कभी सोचा ना था
सफेद कबूतर लहूलुहान
मेरे उन पन्नों पर गिर गिर पड़ता है
जिन पर मैं तुम्हें खत लिखने लगा था

खत ऐसे भी लिखे जाएंगे
कभी सोचा ना था

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