‘सोलापुर कम्यून’; मज़दूर आंदोलन के इतिहास का गौरवशाली पन्ना

‘सोलापुर कम्यून’; मज़दूर आंदोलन के इतिहास का गौरवशाली पन्ना
May 12 12:53 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता तथा कानपुर के साथ, महाराष्ट्र का सोलापुर शहर भी, आज़ादी आंदोलन के वक़्त, मज़दूर आंदोलन का गढ़ रहा है। बॉम्बे के सेठ मोरारजी गोकुलदास की प्रसिद्ध टेक्सटाइल मिल की स्थापना 1877 में सोलापुर में ही हुई थी। पहले विश्वयुद्ध के दौरान यह मिल, देश की सबसे ज्यादा मुनाफ़ा कमाने वाली मिल थी। इस अकूत मुनाफ़े की एक ख़ास वज़ह थी सोलापुर के पास के जंगलों में, छपारबंद, केकड़ी, घंटीकोर, हरणशिकारी, मंगरौड़ी समुदाय के आदिवासियों के अनेक गांव थे। सेठ मोरारजी गोकुलदास ने अंग्रेज़ों से मिलकर इन आदिवासी समुदायों को जऱायमपेशा घोषित करा लिया था। मतलब, इन समुदायों के सभी लोग बच्चे, महिलाएं, सभी अपराधी!! मुक़दमे अदालत, सबूतों, गवाहों की झंझट ही नहीं!!

पुलिस, इन भोले-भले आदिवासियों के पूरे के पूरे परिवारों को पकड़-पकडक़र लाती थी और उन्हें थाने या जेल ले जाने की बजाए ‘सेठ मोरारजी गोकुलदास कॉटन मिल’ कंपाउंड के अंदर छोड़ दिया जाता था जहां इनसे मुफ़्त में बंधुआ मज़दूरों की तरह काम कराया जाता था। इनके पैरों में मोटी-मोटी ज़ंजीरें पड़ी होती थीं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ में छपे सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस मिल में कुल 18,000 मज़दूर थे जिनमें 800 ये आदिवासी बंधुआ मज़दूर थे।

पहले विश्व युद्ध तथा बोल्शेविक क्रांति के बाद 1920 के दशक में सोलापुर के कपड़ा मिल मज़दूरों ने अनेक प्रखर आंदोलन किए। मज़दूर भले किसी ट्रेड यूनियन में संगठित नहीं थे, मार्क्सवाद-लेनिनवाद नहीं जानते थे, लेकिन 1920 तथा 1922 में उन्होंने बड़ी-बड़ी हड़तालें कीं जो कई-कई दिन चलीं। 1920 की हड़ताल बहुत ही दिलचस्प थी जिसे लोकप्रिय और बुद्धिमान मज़दूर नेता भीमराव के नाम पर ‘भीमराव हड़ताल’ नाम से जाना जाता है।

वेतन और सेवा शर्तों में सुधार के लिए रखी गईं मांगें मानने से मालिकों ने जब मना कर दिया तब मज़दूरों ने तय किया कि जैसे ही भीमराव सीटी बजेगी सभी मज़दूर अपनी सिलाई मशीन के रिब्बन निकालकर फेंक देंगे, मशीन से औज़ार निकालकर ऊपर छत की टाइलों पर ज़ोर से मारेंगे और बाहर इकट्ठे हो जाएंगे। मालिकों ने फिर भी उनकी मांगों को मानने से इनकार कर दिया और 13 मज़दूर कार्यकर्ताओं को बरखास्त कर दिया। 1930 की बग़ावत में फूटा आक्रोश बहुत दिन से जमा हो रहा था।

सोलापुरी सूती, नरम चादरें, देशभर में मशहूर हैं। सोलापुर का नाम देश के मज़दूर आंदोलन के गौरवशाली इतिहास के एक बहुत ही शानदार अध्याय से भी जुड़ा है जिसे भुला दिया गया है। जिसे भुलाने नहीं दिया जाना चाहिए। ‘सोलापुर कम्यून’ 7 से 16 मई 1930 तक सोलापुर में राज-सत्ता किसानों और मज़दूरों के हाथों में थी। अंग्रेज़ी हुकूमत के सारे ‘रायबहादुर’ सारे लठैत, पुलिस-प्रशासन अपने बाल-बच्चों के साथ दुम दबाकर अपनी जान बचाकर भाग गए थे। अंग्रेज़ों ने मार्शल लॉ घोषित किया था, फौज ने गोलियां चलाई थीं, अनगिनत मज़दूरों के लहू से सडक़ें लाल हुई थीं। 14 मई, 1930 को रेडियो मास्को ने ‘सोलापुर कम्यून’ गठित होने की बाक़ायदा घोषणा की थी, हमारे देश के सर्वहारा को इस ऐतिहासिक उपलब्धि की बधाई दी थी।

ऐतिहासिक दांडी मार्च में महात्मा गांधी की गिरफ़्तारी 4 मई 1930 की रात को हुई। इस ख़बर ने सोलापुर के मज़दूरों में सतह के नीचे धधक रहे क्रोध में चिंगारी लगाने का काम किया। दशकों से सुलग रहा मज़दूर आक्रोश तो फूट पडऩे को बेताब था ही उसमें व्यापक जन-आक्रोश भी जुड़ गया। देखते ही देखते लाखों लोग सडक़ों पर उतर गए। जो कमी थी वह अंग्रेज़ पुलिस व प्रशासनिक अफ़सरों इंस्पेक्टर सर्जेंट हॉल, डीएसपी प्लेफेयर, तथा डीसी हेनरी नाईट ने पूरी कर दी। रुपभवानी मंदिर के पास ताड़ी के पेड़ थे। भीड़ में से कुछ लोग ताड़ी (धीमा नशा करने वाली क़ुदरती शराब) का सेवन करने के इरादे से ताड़ी के पेड़ों पर चढ़ गए और चूंकि ताड़ी पेड़ में कट लगाने से ही निकलती है, उन्होंने कुदाल से शाखा में कट मारा। अंग्रेज़ अफ़सर चिल्लाए बिना परमिशन पेड़ क्यों काटा? ‘हमारा देश है जल, जंगल, ज़मीन सब हमारे हैं हम तुमसे किस बात की इज़ाज़त लेंगे। हां तुम्हें पेड़ काटना है तो हमसे ज़रूर इज़ाज़त लेनी चाहिए, गुस्साई भीड़ से जवाब, तुरंत और कडक़ आया।

कुछ लोगों को पुलिस गिरफ्तार कर ही चुकी थी। उनकी रिहाई की मांग के साथ जन-सैलाब इर्द-गिर्द इकठ्ठा होता जा रहा था। तब ही भीड़ को डराने के लिए इंस्पेक्टर सर्जेंट हॉल ने पिस्तौल निकाल ली। तब ही 21 वर्षीय एक मज़दूर शंकर शिवदारे हाथ में तिरंगा झंडा लिए सीना ताने आगे बढ़ा और अंगरेज़ पुलिस अफ़सर को ललकारा, ‘हिम्मत है तो चलाओ गोली’। मगरूर सर्जेंट हॉल ने शंकर शिवदारे के सीने का निशाना लेकर गोली चला दी. वह जगह पर ही ढेर हो गया। फिर क्या था!! लोग पुलिस और प्रशासनिक अमले पर टूट पड़े। कलेक्टर हेनरी नाईट भागने में सफल रहा लेकिन भागते-भागते उसने पुलिस को गोली चलाने का हुक्म सुना दिया। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार पुलिस ने 103 राउंड फायर किए जिनसे 20 लोग मारे गए और सैकड़ों जख़़्मी हुए। असल आंकड़ा उससे कई गुना ज्यादा था। यह भी एक इतिहास है कि तिरंगा झंडा देश में सबसे पहले सोलापुर कम्यून में ही फ़हराया गया था।

गुस्साए लोग अपनी जान की परवाह ना कर पुलिस पर टूट पड़े। एक अंग्रेज़ पुलिस अफसर को लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला। पास के मंगलवार पेठ पुलिस थाने को फूंक डाला गया। एक पुलिस अधिकारी को जो अपने बंदूक से लोगों को डरा रहा था उठाकर आग में फेंक दिया गया। उसके बाद पुलिस में भगदड़ मच गई। अपने परिवारों के साथ सोलापुर से भाग गए। जान बचाकर भागते पुलिस वालों ने एक और भडक़ाऊ काम किया जिसने समाज के उस हिस्से को भी आंदोलन में झोंक दिया जो कुछ भी हो जाए हमेशा तटस्थ बना रहता है अपने घरों में घुसा रहता है, ‘कोई मरे या जिए, हमें क्या’!! जान बचाकर भागते, जि़ल्लत से शर्मिंदा पुलिस वाले, रास्ते में जो भी मिला, उसे ही गोली मारते गए। जन-आक्रोश का तूफ़ान और प्रचंड हो गया। क्रोध की लपटें आकाश छूने लगीं।

कलेक्टर हेनरी नाईट की जगह ब्रिस्टल को सोलापुर का जि़म्मा सौंपा गया लेकिन सोलापुर से सरकारी अमला जान बचाकर भाग चुका था। सरकार ग़ायब थी। लगभग 1 सप्ताह तक सोलापुर में राज-सत्ता मज़दूरों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हाथों में थी। मज़दूरों-किसानों ने जि़ला कांग्रेस अध्यक्ष रामकृष्ण जाजू को जि़ला कलेक्टर की ड्यूटी निभाने की जि़म्मेदारी सौंपी थी। नगर निगम, पुलिस, ट्रैफिक पुलिस तथा दूसरी प्रशासनिक जिम्मेदारियां तुलसीदास जाधव, श्रीनिवास कडग़ांवकर तथा वी आर पाटिल ने निभाईं। बाक़ायदा घोषणा की गई, सोलापुर अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद है। लोग ख़ुद-ब-ख़ुद अनुशासन और अमन क़ायम करने में लगे थे आखिर ये उनकी अपनी सरकार थी।

सोलापुर कम्यून के जांबाज़ अगुवा लड़ाकों में प्रमुख नाम हैं; मल्लपा धनशेट्टी, क़ुरबान हुसैन, जगन्नाथ शिंदे और किसन सारदा। छोटी से लेकर बड़ी अदालतों ने इन्हें बागी घोषित करते हुए फांसी की सज़ा सुनाई। सारी अदालती कार्यवाही बहुत तेज़ गति से चली, मात्र 7 महीनों में ‘न्याय’ पूर्ण हो गया और 12 जनवरी 1931 को इन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अंग्रेज़ हुकूमत के इन ‘गद्दारों’ को सोलापुर निवासियों ने शहीद माना। उनके और दूसरे शहीदों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए और उनकी यादों को अमर बनाने के लिए सोलापुर शहर के प्रमुख चौक पर एक शानदार स्मारक बनाया जो आज भी मौजूद है; ‘हुतात्मा चौक’।।

आखिऱी हश्र वही हुआ जो स्वत: स्फूर्त विप्लवों का होता है। सोलापुर के मेहनतक़शों की आज़ादी बस 4-5 दिन की ही रही। दिल्ली से बॉम्बे तक हुकूमत दहल गई। मार्शल लॉ का ऐलान हुआ। हथियारबंद लश्कर पहुंचा। गोलियां चलीं, गोले चले। ‘बागियों’ को चुन-चुन कर मारा गया। कौन बागी है ये फ़ैसला भी सरकार बहादुर तुरंत करती गई। ‘सत्ता ही छीनना चाहते हैं’ ये डर, सत्ता के सबसे ख़ूनी स्वरूप को सामने लाता है। इस सब के बावजूद भी स्वत: स्फूर्त हो या सुसंगठित, सुनियोजित, ज़ुल्म-ओ-जबर और तशद्दुद के खि़लाफ़ दबे-कुचले लोग लड़ते रहे हैं लड़ते रहेंगे।

7 मई, ‘सोलापुर कम्यून’ की 94 वीं बरसी पर देश के मज़दूर सोलापुर कम्यून के शूरवीरों को बा-अदब सलाम पेश करते हैं.
(स्रोत:डॉ मंजरी कामत, प्रोफेसर ऑफ़ हिस्ट्री, मुंबई विश्वविद्यालय, आज़ादी का अमृत महोत्सव पर जारी दस्तावेज़, महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित सोलापुर का इतिहास, विजयकुमार वसंतपुरे, प्रख्यात इतिहासकार)

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Mazdoor Morcha
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