जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन : यथार्थ या विभ्रम?

जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन : यथार्थ या विभ्रम?
April 07 17:04 2024

डॉक्टर सलमान अरशद
“जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन” बहुत पुरानी उक्ति है। मेरे जैन मित्र इस उक्ति का सबसे ज़्यादा उपयोग करते हैं और इसके ज़रिये शाकाहार को जस्टिफाई करते हैं। वो कहते हैं कि अगर आप मांसाहार करते हैं तो आपका व्यवहार हिंसक होगा, क्रूर होगा, आप स्वार्थी होंगे और भी बहुत कुछ। इसके विपरीत अगर आप शाकाहारी होंगे तो सज्जन होंगे।

एक चौमासे में जैन समाज के लोगों को योग और ध्यान सिखाने का अवसर मिला। मुम्बई में था और रोज़ करोड़पतियों को करीब से देखने सुनने और बात करने का मौका मिलता था। बड़ी तादाद में गुजरात के लोग भी थे, चौमासे में भक्त लोग देश विदेश से अपने गुरुओं से मिलने आते हैं, तो यूँ समझिए, मुझे इस एक जगह जैन समाज के एक अंतराष्ट्रीय समूह से मिलने का मौका मिला। सबसे अहम बात कि ये सभी बड़ी कट्टरता के साथ शाकाहार का पालन करते हैं। यहां तक कि यूरोप, अमेरिका और अरब देशों में भी। जी हां, ये बड़ी संख्या में अरब मुमालिक में भी रहते हैं और वहाँ बड़े बिजनेसमैन हैं।

दूसरी अहम बात, जितने सज्जन और दुर्जन मांसाहारी होते हैं, उतने ही सज्जन या दुर्जन ये जैन या शाकाहारी भी होते हैं। लगभग 10 साल इस समाज से नजदीकी रिश्ता रहा। जब तक मैं इस चौमासे में शामिल नहीं हुआ था तब तक उपरोक्त उक्ति पर मेरा भी भरोसा था। मैंने जैन समाज के साधकों के साथ साधना के कई प्रयोग किये। उबले पानी के सहारे तीन दिन, 5 दिन और सात दिन का उपवास भी किया। तेला यानी तीन दिन का उपवास, तीन बार किया बाकी के एक एक बार। तीन दिन के उपवास का मतलब है कि पूरे तीन दिन सिफऱ् हल्का गर्म पानी ही पिया जायेगा, वैसा नहीं जैसा कि रमज़ान में शाम को खाना खाया जाता है या हिन्दू उपवासों में अनाज़ और नमक छोडक़र बहुत कुछ खाया जाता है. इसी तरह सात दिन के उपवास का अर्थ है कि सात दिन तक सिफऱ् गर्म पानी ही पिया जायेगा, जैन समाज के लोग ऐसे उपवास करते हैं कुछ लोग तो पूरे महीने इसी तरह पानी पीकर रह लेते हैं.
उपवास का ध्यान साधना के लिए बड़ा महत्व है। ये अलग बात है कि मैंने बाद में अपने अध्ययन से समझा कि आपके मन की चंचलता के लिए भी आपका पेट भरा होना चाहिए, भूखे रहेंगे तो मन भी शांत हो जाएगा। जैन साधक लंबे लंबे उपवास करते हैं और कहते हैं कि इससे ब्रह्मचर्य साधने में आसानी होती है। सच तो ये है कि भूखा शरीर काम वासना के लिए ऊर्जा कहाँ से लाएगा, अब इसे ही लोग ब्रह्मचर्य समझ लेते हैं, एक बार पेट भरा और शरीर स्वस्थ हो फिर साधिए ब्रह्मचर्य तो औक़ात पता चले!

विपश्यना की साधना के दौरान भी अल्प आहार लेने को कहा जाता है, रमज़ान में कुछ लोग एक विशेष साधना करते हैं, इसमें मस्जिद में रहते हैं या घर के किसी बिलकुल अलग हिस्से में, पूरे समय कुरआन का पाठ करते हैं या कुछ इसी तरह का पढ़ते हैं, कुछ लोग अपने उस्ताद की निगरानी में कोई और अमल करते हैं, इस दौरान वो बहुत हल्का और कम खाते हैं साथ ही जब तक बहुत ज़रूरी न हो बोलते नहीं हैं.

यानि सभी धर्मों के लोगों ने अपने अनुभवों से जाना कि सादा, सुपाच्य और हलके आहार के साथ साधना करने में सुविधा होती है. अब अगर आप कोई साधना कर रहे हैं तो बेशक ये आहार आपके लिए ज़रूरी और सुविधाजनक है. लेकिन सामान्य जीवन के लिए आपको उच्चप्रोटीन वाले भोजन की ज़रूरत पड़ेगी. यहीं एक बात और देख लेनी चाहिए, भारत में आहार को लेकर भी गुंडई होती है. आपको जो नहीं खाना है, न खाइए, लेकिन आप समाज के दूसरे लोगों को अपने मंजूरी का खाना खाने से कैसे रोक सकते हैं !

बात शुरू हुई थी खानपान का मन पर प्रभाव से, तो क्या मन पर खानपान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता? मुझे लगता है कि ज़रूर पड़ता होगा लेकिन वैसा नहीं जैसा कि शाकाहारी लोग कहते हैं। एक और तरीके से समझते हैं। जब कभी आपका पेट साफ़ नहीं होता तो दिन भर काम में आपका मन नहीं लगता। कब्ज़ एक शारीरिक समस्या है और “मन न लगना”मानसिक लेकिन दोनों में सम्बन्ध दिखाई देता है।

इसी तरह किसी तनाव की स्थिति में सेहत खराब हो जाती है, सिरदर्द हो जाता है यहां तक कि हृदयगति रुक जाती है। इससे एक बात तो बिल्कुल साफ है कि शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में गहरा संबंध तो है। भोजन करना एक शारीरिक क्रिया है और मानस पर इसका प्रभाव मानसिक, लेकिन ये बात साफ़ होनी चाहिए कि ये एक दूसरे को कितना प्रभावित करते हैं, फिलहाल इनके पक्ष और विपक्ष दोनों में ही पर्याप्त तर्क और अनुभव हैं।

शाकाहार और मांसाहार के संबंध में जीवन नहीं बल्कि चेतना का स्तर मुख्य आधार है। जीवन प्राणी और पौधा दोनों में है, जीवन जीव और अन्न दोनों में है, लेकिन दोनों की चेतना में अंतर है। चेतना की जो मात्रा एक पशु में है वही एक पौधे में नहीं है। इसी तरह जीवित पौधे में चेतना की मात्रा मृत पौधे से ज़्यादा है। ऐसा जैन परम्परा के ग्रन्थ कहते हैं, लेकिन ये तमाम अवधारणाएं किसी ठोस वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित नहीं हैं।

मेरे एक मित्र बहराइच के कैशरगंज में रहते थे। वो अपने पेड़ पौधों और पशुओं से हम इंसानों की तरह बातें करते थे और उनके निर्देशों का पालन उनके पशु और पेड़ दोनों करते थे।
ये आंखों देखी बातें हैं। अब चेतना के तल को लेकर जो बातें ऊपर की गईं हैं उनमें सत्यता नजऱ नहीं आती। अगर हमें संवाद का तरीका पता हो तो जैसे कोई जानवर आपसे संवाद करता है वैसे ही पेड़ पौधे भी कर सकते हैं. लेकिन भोजन का शरीर पर तो असर दिखाई देता है और मन शरीर की ही एक क्रिया है। ऐसे में मन पर भी भोजन का असर पडऩा तो चाहिए, लेकिन जैसा जैन साधक दावा करते हैं वैसा कुछ दिखाई तो नहीं देता।

ऐसे में सवाल पैदा होता होता कि अहिंसा, हिंसा, दया, करुणा, परस्पर सहयोग आदि मानवीय मूल्यों का स्रोत क्या है? इसका जवाब मुझे छोटे बच्चों के साथ काम करते हुए मिला।
एक बच्चा भोजन के रूप में चाव से मांस भी खाता है और जिन पशुओं का मांस खाता है उनके प्रति दया भाव भी रखता है। मैंने महसूस किया कि बच्चे अपने पालन पोषण के क्रम में प्रेम और दया जैसी भावनाएं सीख जाते हैं जिनका भोजन से फिलहाल कोई संबंध दिखाई नहीं देता।

मैंने बच्चों के साथ काम करते हुए ये ज़रूर महसूस किया कि उनकी शिक्षा के क्रम में परिवार और स्कूल उन्हें सभी मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण बना सकते हैं। अफसोस कि अभिभावकों की सामान्यत: इस संबंध में कोई समझ नहीं है और लगता है कि शिक्षा व्यवस्था मानवीय मूल्य पैदा करने और उन्हें बढ़ाने के बजाय उनकी हत्या करने के लिए ही बनाई गई है।
अंत में, इतना तो साफ है कि अब तक के अध्ययन ये कत्तई साबित नहीं करते कि शाकाहार या मांसाहार का मानवीय मूल्यों को पैदा करने में, उन्हें बढ़ाने या कम करने में कोई योगदान है। समय और हालात के अनुसार मैंने शाकाहारियों और मांसाहारियों को समान रूप से क्रूर और हिंसक या फिर दयालु पाया है।

हाँ, शाकाहार और मांसाहार पर बात इनके उत्पादन में लगने वाले खर्च और पर्यावरण को होने वाले नुकसान के हवाले से ज़रूर की जा सकती है. मांस उत्पादन में खर्च भी ज़्यादा होता है और उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरण को नुकसान भी ज़्यादा होता है, जबकि अनाज़ उत्पादन में खर्च और पर्यावरण को नुकसान दोनों ही कम होता है. इसलिए ये सावधानी जरूर करनी चाहिए कि मांस कम खाएं और सब्जियां व दालें ज़्यादा. आज के दौर में बेहतर सेहत के लिए भी ये ज़रूरी है.

एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि मांसाहारी मांस किसी मांसाहारी जानवर की तरह नहीं खाता, बल्कि उसके खाने में मांस का अंश कुल भोजन का मुश्किल से 25 प्रतिशत होता है, मांस के साथ जो सलाद, रोटी, ब्रेड या चावल आदि खाया जाता है वो तो शाकाहारी ही है.

इसी तरह ऐसे मांसाहारी बहुत कम मिलेंगे जो रोज़ मांस खाते हों, अमूमन कुछ लोग सप्ताह में एक बार तो कुछ लोग महीने में एक या दो बार खाते हैं और कुछ लोग बस कभी कभी खा लेते हैं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके लिए मांसाहार अफ़ोर्ड करना मुमकिन ही नहीं है, ऐसे लोग बकरीद या शादी विवाह के मौक़े के अलावा किसी दूसरे समय मांस नहीं खा पाते. इसलिए मांसाहार अगर हमारे व्यवहार पर या मानसिक बनावट पर कोई असर करता भी हो तो भी ये इतना नहीं होगा कि इसे मुद्दा बनाकर अपने आसपास के लोगों की जि़न्दगी मुश्किल बनाई जाए. बहरहाल, खाना आप जो भी खाएं लेकिन पूरी कोशिश करके अच्छे इंसान बनें. शुरू में लिखी गयी उक्ति की सत्यता अब तक प्रमाणित नहीं हुई है।

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