मज़दूर मोर्चा ब्यूरो देेश में सत्ता चाहे कांग्रेस की रही हो या फिर संघियों की, जनता को स्वास्थ्य सेवाओं का ढोल पीटने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के राज में आरएसबीवाई (राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना) का ढोल पीटा गया तो उसी तरह का ढोल ‘आयुष्मान भारत’ के नाम से मोदी ने पीटना शुरू कर दिया। वह स्वास्थ्य लाभ प्रदान करना जो सरकार की प्रथम जिम्मेवारी है, किसी भी सरकार ने देश की जनता को नहीं दिया।
स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का कुल पांच प्रतिशत खर्च इस देश में किया जाता है। इसमें से केवल एक प्रतिशत ही केेंद्र व राज्य सरकारों द्वारा तथा चार प्रतिशत देश की जनता द्वारा अपनी जेब से खर्च किया जाता है। दुनिया के अधिकतर विकसित देशों द्वारा इस मद में जीडीपी का 10-15 प्रतिशत खर्च किया जाता है। वहां की सरकारें वसूले गए टैक्स के बदले अपने नागरिकों को बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा देना अपना प्रथम कर्तव्य समझती हैं। इन्हीं विकसित देशों को देख कर कुछ शर्म महसूस करते हुए 2004 में सत्तारूढ़ हुई कांग्रेस ने स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च को जीडीपी का एक प्रतिशत से बढ़ाकर ढाई प्रतिशत तक करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन 2014 तक सत्तारूढ़ रहने के बावजूद वे इसे 1.4 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ा सके। सन 2008 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से जब इस पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इसके लिये पैसा ही नहीं बचा। यही स्थिति मोदी राज के 10 साल में भी ज्यों की त्यों बनी रही।
दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी जेब से खर्च करने के चलते प्रति वर्ष देश की तीन प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती हैं। जाहिर है कि जान बचाने के लिये हर व्यक्ति इलाज पर अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है। जिनके पास दांव पर लगाने को कुछ नहीं होता वे मौत को गले लगा लेते हैं। इन बेमौत मरने वाले लोगों को बहकाने-फुसलाने के लिये सरकारें तरह-तरह की योजनाएं जनता के सामने प्रस्तुत करती हैं। विदित है कि इलाज के लिये फर्जी योजनाओं की बजाय अस्पतालों और उनमें डॉक्टरों व दवाओं आदि की जरूरत होती है। किसी भी सरकार ने स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करने के लिये अस्पतालों व डॉक्टरों पर आधारित ठोस ढांचा खड़ा करने की अपेक्षा फर्जी योजनाओं का प्रोपेगंडा करने पर ही कर दाता के धन को पानी की तरह बहाया है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आज भारत की जीडीपी ढाई लाख लाख करोड़ रुपये है। इसके अनुसार यदि ढाई प्रतिशत खर्च किया जाए तो स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल साढ़े बारह लाख करोड़ रुपये खर्च करने को मिल सकता है। लेकिन आज मिल रहा है कुल एक लाख करोड़। मतलब बड़ा साफ है कि सरकार की कतई कोई प्राथमिकता नहीं है कि उसके दबे-कुचले वंचित नागरिकों को वांछित स्वाथ्य सेवाएं मिल सकें । मौजूदा ‘आयुष्मान भारत’ एवं हरियाणा की चिरायु योजना अपने आप में एक बड़ा ढकोसला बनकर रह गई है। इन योजनाओं के तहत कोई भी सरकारी अस्पताल इलाज देने में समर्थ नहीं हैं और निजी अस्पताल इलाज देने को तैयार नहीं है। पिछले दिनों जिन अस्पतालों ने कुछ इलाज दिये भी थे तो उनके सैंकड़ों करोड़ रुपये के बिल सरकार रोक कर बैठी है लिहाजा उन्होंने इस योजना पर ताला लगा दिया है।
यदि सरकार की नीयत सा$फ होती और जनता का स्वास्थ्य उनकी प्राथमिकता में होता तो साढ़े बारह लाख करोड़ रुपये इस देश के लिये कोई बड़ी बात नहीं है। जो सरकार 14 लाख करोड़ के कर्जे पूंजीपतियों के मा$फ कर सकती है, लाखों करोड़ रुपये के कॉर्पोरेट टैक्स मा$फ करके पूंजीपतियों को राहत दे सकती है तो वहां साढ़े बारह लाख करोड़ तो कुछ भी नहीं। मसला तो केवल नीयत का है, सरकार की बदनीयती को समझने के लिये ईएसआई कॉर्पोरेशन की स्वास्थ्य सेवाओं को देखा जा सकता है। इस योजना के तहत कवर होने वाले मज़दूरों के वेतन से पहले साढे छ:प्रतिशत और अब चार प्रतिशत वसूला जाता है। इस वसूली के द्वारा कॉर्पोरेशन का खजाना तो दिन दूणा और रात चौगुणा बढ़ता रहा है। इस सतत बढ़ोत्तरी का एक मात्र कारण यह है कि मज़दूरों को वांछित स्वास्थ्य सेवा न देकर अपना खजाना भरते रहना है। स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करने की अपेक्षा सरकार ने मज़दूरों से होने वाली साढ़े छ: प्रतिशत वसूली को ही घटाकर चार प्रतिशत कर दिया। मतलब स्पष्ट है कि पैसा भले ही कितना हो पर स्वास्थ्य सेवायें जनता को नहीं देनी। स्वास्थ्य सेवा को व्यापार बनाकर व्यापारिक अस्पतालों के हवाले कर दिया गया है।