नालंदा यूनिवर्सिटी में क्या इस्लाम को चुनौती देने की वजह से लगाई गई थी आग?

नालंदा यूनिवर्सिटी में क्या इस्लाम को चुनौती देने की वजह से लगाई गई थी आग?
March 26 16:30 2023

सुगत मुखर्जी
सर्दियों की सुबह में घना कोहरा छाया हुआ था। हमारी कार धीरे धीरे घोड़ा गाडिय़ों को पीछे छोड़ते हुए आगे निकल आयी थी। बिहार में अभी भी घोड़ा गाडिय़ों का इस्तेमाल होता है। गाड़ी खींचते घोड़े और उसके पीछे पगड़ी पहने कोचवान, कोहरे में एक दूसरे की छाया प्रतीत होते है।
बहरहाल, जिस बोध गया में भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, वहीं एक रात बिताने के बाद मैं सुबह-सुबह नालंदा के लिए निकल पड़ा था। नालंदा, जहां की सुर्ख लाल रंग की ईंटों वाली इमारत प्राचीन काल में शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र थी।
427 ईस्वी में नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी, इसे दुनिया का पहला रिहाइशी विश्वविद्यालय कहा जाता है। जहां एक समय में मध्य पूर्व एशिया के कऱीब 10 हज़ार छात्र एक परिसर में रहते हुए अध्ययन करते थ। उस वक्त वहां की लाइब्रेरी में करीब नब्बे लाख किताबों का संग्रह था। ये छात्र मेडिसिन, तर्कशास्त्र, गणित और बौद्ध सिद्धांतों के बारे में अध्ययन करते थे।
तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने एक बार कहा था, “हम लोगों को जो भी बौद्ध ज्ञान मिला, वो सब नालंदा से आया था।”
स्थापना के कऱीब सात सौ साल बाद तक नालंदा यूनिवर्सिटी दुनियाभर में शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र बना रहा। इस दौरान इसकी ख्याति फलती फूलती रही, दुनिया में इसके जैसा कोई दूसरा उदाहरण नजऱ नहीं आया।
मठ की तजऱ् पर बनी यूनिवर्सिटी, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और यूरोप की सबसे पुरानी बोलोग्ना यूनिवर्सिटी से 500 साल से भी ज़्यादा पुरानी था। इतना ही नहीं, दर्शन और धर्म को लेकर यूनिवर्सिटी का बौद्धिक दृष्टिकोण लंबे समय तक एशिया की संस्कृति को गढ़ता रहा।
दिलचस्प यह है कि नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना करने वाले गुप्त वंश के शासक धर्मनिष्ठ हिंदू थे, लेकिन वे बौद्ध धर्म, इसकी बौद्धिकता और दार्शनिक लेखन के प्रति सहानुभूति का भाव रखते थे।
गुप्त वंश के समय में उदार, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं विकसित हुईं और यह नालंदा यूनिवर्सिटी की बहु-विषयक शैक्षणिक पाठ्यक्रम का मूल भाव बन गईं, जिसने विभिन्न क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के साथ बौद्ध धर्म के बौद्धिक ज्ञान को मिश्रित किया।
प्रकृति-आधारित चिकित्सा पद्धतियों पर आधारित प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली यानी आयुर्वेद के बारे में नालंदा विश्वविद्यालय में काफी कुछ सिखाया जाता था। बाद में यहां के छात्रों के ज़रिए यह दुनिया के दूसरे हिस्सों तक फैला। नालंदा यूनिवर्सिटी का परिसर प्रार्थना कक्षा और व्याख्यान कक्षों से घिरा एवं काफी खुला हुआ था लेकिन बाहर से यह कि़ले जैसा था, इस डिज़ाइन को दूसरे बौद्ध संस्थानों ने भी अपनाया। यहां इस्तेमाल हुए प्लास्टर की तकनीक ने थाईलैंड की स्थापत्य कला पर असर डाला और धातु कला तिब्बत और मलाया प्रायद्वीप तक पहुंची।
लेकिन नालंदा यूनिवर्सिटी की सबसे महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक असर वाली विरासत शायद गणित और खगोल विज्ञान में इसकी उपलब्धियां रहीं।
भारतीय गणित के जनक माने जाने वाले आर्यभट्ट के बारे में अनुमान लगाया जाता है कि वे छठी शताब्दी की शुरुआत में नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख थे। कोलकाता स्थित गणित की प्रोफेसर अनुराधा मित्रा ने बताया, “आर्यभट्ट पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने शून्य को एक अंक के रूप में मान्यता दी। उनकी आवधारणा से बहुत बड़े बदलाव देखने को मिले। इसने गणितीय गणनाओं को सरल बनाया और बीजगणित एवं कैलकुलस जैसे अधिक जटिल गणित को विकसित करने में मदद की। शून्य के बिना तो हमारे पास कंप्यूटर भी नहीं होते।”
प्रोफेसर मित्रा आर्यभट्ट के योगदान को रेखांकित करते हुए कहती हैं, “उन्होंने वर्गों और घनों की श्रेणी संबंधित अहम सिद्धांत दिए। ज्यामिति और त्रिकोणमिती का बखूबी इस्तेमाल किया। खगोल विज्ञान में भी उनका योगदान अहम था, वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा था कि चंद्रमा की अपनी रोशनी नहीं है।” उनके इस काम ने दक्षिण भारत ही नहीं पूरे अरब प्रायद्वीप में गणित और खगोल विज्ञान के विकास में अहम योगदान दिया। नालंदा यूनिवर्सिटी बौद्ध शिक्षा और दर्शन का प्रचार करने के लिए नियमित तौर पर अपने सर्वश्रेष्ठ विद्वानों और प्रोफेसरों को चीन, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे स्थानों पर भेजती थी। प्राचीन सांस्कृतिक आदान-प्रदान की वजह से बौद्ध धर्म को पूरे एशिया में फैलने और स्थापित होने में मदद मिली।
नालंदा विश्वविद्यालय का पुरातात्विक अवशेष, यूनेस्को की वैश्विक धरोहर स्थल में शामिल है। 1190 के दशक में, तुर्क-अफग़ान सैन्य जनरल बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में आक्रमणकारियों की सैन्य टुकड़ी ने विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था।
नालंदा यूनिवर्सिटी का परिसर इतना विशाल था कि कहा जाता है कि हमलावरों के आग लगाने के बाद परिसर तीन महीने तक जलता रहा। इन दिनों नजऱ आने वाली 23 हेक्टेयर की साइट मूल यूनिवर्सिटी परिसर का एक हिस्सा भर है, लेकिन इस हिस्से में मठों और मंदिरों के अवशेषों को देखकर यह महसूस होता है कि यहां कितना कुछ सीखने को रहा होगा।
मठों के बरामदे और मंडप को देखने के साथ मैं मंदिरों के पूजा-कक्षों में घूमता रहा। ऊंची, लाल-ईंट की दीवारों वाले गलियारे के रास्ते मैं मठ के भीतरी प्रांगण में पहुंचा। वह एक आयाताकार जगह थी, जहां पत्थर से बनी मंच जैसी आकृति भी थी। मेरी स्थानीय गाइड कमला सिंह ने कहा, “यह एक व्याख्यान कक्ष हुआ करता था जिसमें 300 छात्र बैठ सकते थे और मंच से शिक्षक पढ़ाया करते थे।”
गाइड ने मुझे खंडहरों के आसपास के हिस्सों को भी दिखाया। मैं उन छोटे से कमरों में एक के अंदर गया जो परिसर में एक किनारे बने थे, इन कमरों में दूरदराज़ यहां तक कि अफग़़ानिस्तान तक से आए छात्र रहते थे। एक दूसरे के सामने दो ताखा, तेल के लैंप और निजी सामान रखने के लिए थीं। गाइड कमला सिंह ने यह बताया कि कमरे के दरवाजे के पास छोटा, चौकोर आकार का खोखला बॉक्स प्रत्येक छात्र का निजी लेटरबॉक्स होता था।
आज के दौर में जिस तरह से प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में मुश्किल से दा$िखला मिलता है, उसी तरह नालंदा विश्वविद्यालय में भी दा$िखला मिलना आसान नहीं था। नामांकन के लिए इच्छुक छात्रों को विश्वविद्यालय के शीर्ष प्रोफेसरों के सामने मौखिक परीक्षा यानी इंटरव्यू में शामिल होना होता था। जिन खुशकिस्मत लोगों को यहां नामांकन मिलता उन्हें भारत के विभिन्न कोनों से आए उदारवादी नज़रिए वाले प्रोफेसर पढ़ाते थे। धर्मपाल और शीलभद्र जैसे प्रतिष्ठित बौद्ध आचार्यों के अधीन सैकड़ों शिक्षक थे।
पुस्तकालय में ताड़ के पत्तों पर हस्तलिखित नब्बे लाख पांडुलिपियां, दुनिया में बौद्ध ज्ञान का सबसे समृद्ध भंडार थीं। इसके तीन पुस्तकालय भवनों में से एक को तिब्बती बौद्ध विद्वान तारानाथ ने ‘बादलों में उड़ती हुई’ नौ मंजिली इमारत के रूप में वर्णित किया है।
जब परिसर में आक्रमणकारियों ने आग लगाई तो अपनी जान बचाने में कामयाब कुछ बौद्ध कुछ हस्तलिखित पांडुलिपियां बचा पाए। उन्हें अब अमेरिका के लॉस एंजिल्स काउंटी म्यूजिय़म ऑफ़ आर्ट और तिब्बत के यारलुंग म्यूजिय़म में देखा जा सकता है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने 7वीं शताब्दी में नालंदा की यात्रा की थी। वे केवल भ्रमण करने के बजाय लंबे समय तक यहां रहे और अध्ययन किया और बाद में इस विश्वविद्यालय में एक विशेषज्ञ प्रोफेसर के रूप में काम किया।
630 ईस्वी में भारत आए त्सांग 645 ईस्वी में चीन लौटे वे अपने साथ नालंदा से 657 बौद्ध धर्मग्रंथों के लेकर गए थे। ह्वेन सांग को दुनिया के सबसे प्रभावशाली बौद्ध विद्वानों में से एक माना जाता है। इन ग्रंथों में से बहुतों का उन्होंने चीनी भाषा में अनुवाद किया।
इसके अलावा उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय के अपने अनुभवों को भी लिखा है। उनके जापानी शिष्य, दोशो ने बाद में उनके लिखे को जापानी में अनुदित करके बौद्ध धर्म का जापान में प्रसार किया, जहां यह एक मुख्य धर्म बना। यही वजह है कि ह्वेन त्सांग को बौद्ध धर्म को पूर्व के देशों में पहुंचाने वाले बौद्ध भिक्षु के रूप में याद किया जाता है।
ह्वेन त्सांग ने नालंदा का जो विवरण लिखा है, उसमें विशाल स्तूप का उल्लेख मिलता है। यह स्तूप- भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक की स्मृति में बनाया गया एक विशाल स्मारक है।
मैं इसी स्तूप के अष्टकोणीय पिरामिड आकार की भव्य संरचना के खंडहरों के सामने खड़ा था। विशाल स्तूप के ऊपर तक जाने के लिए ईंटों की खुली सीढिय़ां हैं। 30 मीटर ऊंचे विशाल स्तूप के चारों तरफ बाहरी दीवार में कई छोटे मंदिर और स्तूप दिखाई देते हैं।
विशाल स्तूप का इतिहास
यहीं मुझे मुंबई की इतिहास शिक्षिका अंजली नायर मिलीं। उन्होंने बताया, ‘यह विशाल स्तूप नालंदा विश्वविद्यालय से भी पहले बनाया गया था। इसका निर्माण सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में कराया था। हालांकि अगली आठ शताब्दियों के दौरान इसे कई बार नये तौर तरीकों से पुनर्निमित किया गया।’ उन्होंने यह भी बताया, ‘यहां उन बौद्ध भिक्षुओं की अस्थियां हैं, जो यहां रहे और जिन्होंने अपना पूरा जीवन विश्वविद्यालय को समर्पित कर दिया।’
इस विश्वविद्यालय के नष्ट होने के करीब आठ शताब्दी के बाद कुछ विद्वानों ने व्यापक तौर पर प्रचारित उस सिद्धांत का खंडन किया है जिसके मुताबिक कहा जाता है कि खिलजी और उसके सैनिकों ने बौद्ध शिक्षा केंद्र को इसलिए नष्ट कर दिया था क्योंकि उन्हें लगा था ये इस्लाम को चुनौती दे रहा था।
बहुत संभव है कि बौद्ध धर्म को उखाडऩे के लिए यूनिवर्सिटी को नष्ट करने वाला हमला किया गया हो लेकिन भारत के अग्रणी पुरातत्वविदों में शामिल एच.डी. सांकलिया ने अपनी 1934 की पुस्तक, ‘‘द यूनिवर्सिटी ऑफ़ नालंदा’’ में लिखा है कि कि़ले जैसा परिसर और इसकी संपत्ति को लेकर फैली कहानियों के चलते आक्रमणकारी यहां हमले के लिए आकर्षित हुए होंगे।
नालंदा यूनिवर्सिटी के खंडहरों के साथ बने संग्रहालय के निदेशक शंकर शर्मा ने कहा, “हां, हमले की कोई एक निश्चित वजह के बारे में बताना मुश्किल है।”
इस संग्रहालय में नालंदा खुदाई के दौरान मिले 13,000 से अधिक पुरातत्व अवशेषों में से 350 कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें प्लास्टर की मूर्तियां, बुद्ध की कांस्य प्रतिमाएं और हाथी दांत और हड्डियां शामिल हैं।
शंकर शर्मा ने हमारे साथ खंडहरों में टहलते हुए बताया, “हालांकि, यह नालंदा पर पहला हमला नहीं था। इस पर 5वीं शताब्दी में मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों द्वारा हमला किया गया था। इसके बाद आठवीं शताब्दी में बंगाल के गौड़ राजा के आक्रमण के दौरान भी काफ़ी नुकसान हुआ था।”
हूण आक्रमणकारियों ने संपत्ति लूटने के लिए हमला किया था। लेकिन यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि बंगाल के राजा द्वारा किया गया हमला उस समय शैव हिंदू संप्रदाय और बौद्धों के बीच बढ़ती दुश्मनी का परिणाम था? हालांकि दोनों अवसरों पर, इमारतों का पुनर्निर्माण किया गया। गुप्त वंश के शासकों से मिलने वाली मदद के चलते सुविधाओं का विस्तार भी किया गया।
शर्मा ने बताया, “जब खिलजी ने शिक्षा के पवित्र मंदिर पर आक्रमण किया तब भारत में बौद्ध धर्म गिरावट की स्थिति में था। आंतरिक पतन के साथ आठवीं शताब्दी से ही विश्वविद्यालय को संरक्षण देने वाले बौद्ध पाल राजवंश का भी पतन हो रहा था। इन वजहों से तीसरा हमला ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ।”
इसके बाद अगले छह शताब्दियों तक नालंदा धीरे-धीरे गुमनामी में डूबता गया। 1812 में स्कॉटिश सर्वेक्षक फ्रांसिस बुकानन-हैमिल्टन ने इसके बारे में पता लगाया और बाद में 1861 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इन अवशेषों की पहचान प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी के रूप में की, उससे पहले यह गुमनामी के गर्त में ही डूबा रहा।
एक छोटे से स्तूप के पास खड़े होकर, मैंने गहरे लाल रंग के कपड़ों में युवा भिक्षुओं के समूह को देखा जो साइट को देखने से पहले एक बड़े चबूतरे पर इक_ा होने के लिए ठहरे थे। उनमें एक युवा संन्यासी गहन तंद्रा में चिंतनशील दिखा, उसकी आँखें विशाल स्मारक पर टिकी थी, ऐसा लगा कि वह गौरवशाली अतीत को मौन आंखों के ज़रिए आदरभाव से याद कर रहा हो।

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