लखानी की कंपनियां देश के श्रम क़ानून नहीं मानतीं! मज़दूरों के सामने ‘लड़ो या मरो’ जैसी स्थिति

लखानी की कंपनियां देश के श्रम क़ानून नहीं मानतीं! मज़दूरों के सामने ‘लड़ो या मरो’ जैसी स्थिति
January 23 02:23 2023

सत्यवीर सिंह
कौन जनता था, इक्कीसवीं सदी में, देश के सबसे बड़े लोकतंत्र में, मज़दूर इस मांग के लिए, सतत तीखा आक्रोश आन्दोलन चलाने के लिए मज़बूर हो रहे होंगे, कि कंपनी के अपने अंश दान की तो बात ही छोडिए, पिछले दो साल में, उनके वेतन से भविष्य निधि के रूप में, कंपनी मालिक ने जो कटौतियां की हैं, उन्हें वह भविष्य निधि खाते में जमा करे. लखानी कंपनी में, महीने भर, हर रोज़ 12-12 घंटे खटने के बाद, जूते-चप्पल के अम्बार और मुनाफ़े के पहाड़ खड़े करने के बाद, उन्हें जो 10,500 रु महिना न्यूनतम वेतन मिलना तय हुआ है, वह उन्हें मिले क्योंकि वह मिले बगैर, उन्हें रोटी नहीं मिलेगी और रोटी ना मिलने से इन्सान मर जाता है. ‘वेतन क़ानून 1936’ कहता है कि मज़दूर को, महीने का वेतन, आगामी माह की 7 तारीख तक मिल जाना चाहिए. ‘भविष्य निधि क़ानून, 1952’ में लिखा हुआ है कि मालिक, मज़दूर के वेतन से हर महीने, भविष्य निधि की निश्चित कटौती करेगा और उसमें उतना ही अंशदान कंपनी की ओर से करते हुए, आगामी महीने की 7 तारीख तक भविष्य निधि खाते में आवश्यक रूप से जमा करेगा. ऐसा ना करना एक आपराधिक कृत्य होगा जिसके लिए उसे गिरफ्तार भी किया जा सकता है. कौन जानता था कि 2014 में ऐसी भी सरकार आएगी, जब उसका प्रधानमंत्री संसद के गलियारे की सीढियों पर, असंख्य कैमरों के सामने, मत्था टेककर नमन करके प्रवेश करेगा और फिर वही सरकार योजनाबद्ध तरीक़े से संविधान और संसदीय मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाएगी.

प्लॉट न 266, सेक्टर 24, फऱीदाबाद स्थित ‘लखानी फुटवेयर प्रा. लि’ के लगभग 600 मज़दूर, 16 ता को, हर रोज़ की तरह सुबह 8 बजे फैक्ट्री पहुंचकर, सीधे मानव संसाधन प्रबंधक के पास पहुंचे और कहा कि हज़ार बार कहने के बावजूद भी, उन्हें दो महीने से वेतन नहीं मिला और पिछले दो साल से उनके वेतन से काटा पी एफ का पैसा अभी तक जमा नहीं हुआ. आज वे अपना काम, भुगतान मिलने के बाद ही शुरू करेंगे. प्रबंधन ने हमेशा की तरह, पैतरे बदलने शुरू किए, आश्वासन दिए लेकिन पैसे नहीं दिए. दरअसल, मज़दूरों के पैसे का भुगतान करना उन्हें पसंद नहीं. हालात, चूँकि अब मज़दूरों की बरदाश्त से बाहर हो गए थे, उनकी सहन शक्ति जवाब दे गई थी, इसलिए उन्होंने सुबह से ही कारखाने के अंदर नारेबाज़ी शुरू कर दी. लखानी के कारखानों की एक और विशिष्टता है, मज़दूरों के प्रवेश के बाद, सभी दरवाज़ों पर ताला लग जाता है. कोई भी मज़दूर बाहर नहीं जा सकता. मज़दूरों की वहां फिलहाल कोई यूनियन नहीं है. लखानी के इन बेहाल मज़दूरों ने, 16 तारीख को दोपहर 2 बजे, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ को संपर्क किया क्योंकि उनकी ही कंपनी के, उन मज़दूरों के मुद्दों को लेकर वे अक्तूबर महीने से संघर्ष कर रहे हैं जो मालिक द्वारा धमकाए जाने और ये आश्वासन मिलने पर कि स्तीफे देने के बाद, उनका पिछला सारा भुगतान कर दिया जाएगा, नौकरी छोड़ चुके थे.

16 तारीख को शाम 5 बजे, पास के पार्क में एक सभा हुई जिसमें लगभग 400 मज़दूर शामिल हुए. मज़दूरों ने खुद प्रस्ताव किया की 17 को सुबह 9 बजे फैक्ट्री गेट पर मीटिंग होगी और क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के नेतृत्व में, सभी साथी मोर्चा लेकर श्रमायुक्त, भविष्यनिधि आयुक्त और जिला उपायुक्त को ज्ञापन देंगे. क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा की टीम, ज्ञापन, झंडे, बैनर और तख्तियों के साथ सुबह 8.30 बजे, प्लाट 266 सेक्टर 24 वाली फैक्ट्री के गेट के बाहर, पहुँच गई थी. सुबह से ही, मज़दूर तालाबंद फैक्ट्री गेट के अंदर नारेबाजी करते हुए इकट्ठे  होते गए. देखते-देखते सारा परिसर मज़दूरों के नारों से गूंजने लगा. स्थानीय मीडिया; साप्ताहिक मज़दूर मोर्चा के संपादक, कॉमरेड सतीश कुमार स्वयं, पायनियर के विडियो पत्रकार शेखर दास, मज़दूर समाचार और लाइव 24 की टीम, मज़दूरों के संघर्ष को कवर करने लगे.

मोर्चा निकालकर, ज्ञापन देने का प्रोग्राम मज़दूर रद्द कर चुके थे, लेकिन फिर भी, गुस्से में तिलमिलाए मज़दूर, काम बंद कर, गेट के पास इकट्ठे होते गए और आंदोलन तीखा होता गया. मालिकों की धमकियों का जब उल्टा असर होने लगा तो उन्होंने पुलिस बुला ली. साथ ही श्रम विभाग से लेबर इंस्पेक्टर और एक अधिकारी मौके पर पहुँच गए. पुलिस की सुरक्षा में अन्दर एक खुली सभा शुरू हुई. आक्रोश प्रदर्शन और सभा में महिला मज़दूरों की भागीदारी और उत्साह उल्लेखनीय रहा. “पढ़ते-सुनते रहते हैं लेकिन लोग अपने परिवारों के साथ बाहर घूमने जाते हैं. एक हम हैं, दो जून की रोटी के चक्कर में सारा दिन निकल जाता है. हमारे नसीब में ही ऐसा क्यों लिखा है?” महिला मज़दूर के इस भावनापूर्ण उदगार से सन्नाटा छा गया. ‘हम मेन गेट, इसलिए बंद रखते हैं कि कोई मज़दूर कार्ड पंच कर, बाहर गया और उसे कुछ हो गया तो कौन जि़म्मेदार होगा’, प्रबंधन की मज़दूरों को बंधक बनाकर काम करने की सफ़ाई पर, बुलंद आवाज़ में बोलते हुए एक मज़दूर खड़ा हो गया, “आपको हमारी जान की इतनी चिंता है तो हमें हमारा हक़ क्यों नहीं देते. उस दिन मैंने जब ये याद दिलाया तो आपने कहा था, हमारे लिए तो तुम मर गए!!”

घंटों चली मीटिंग का परिणाम निल बटा सन्नाटा ही रहा. मालिक के कारिंदे कहते रहे, हम मार्च 31 तक कुछ भी नहीं दे सकते. उसके बाद ही हम, पी एफ का भुगतान कर पाएंगे, आप चाहें तो आगे की तारीख के चेक ले सकते हैं. श्रम विभाग अथवा पुलिस की ओर से, दिखावे के लिए भी मालिक पर भुगतान करने का कोई दबाव नहीं डाला गया, सख्ती का दिखावा भी नहीं हुआ. एक तरफ, जहाँ, वह मीटिंग मज़दूरों के जीवन-मरण का सवाल था, वहीं दूसरी ओर सब कुछ सामान्य, हमेशा जैसे, व्यापार की सुगमता का मौजूदा दौर!! गेट के बाहर जमा मज़दूर भी बता रहे थे कि धीरे-धीरे सभी मालिक, पी एफ आदि की कटौती हड़पते जा रहे हैं. गगन तिवारी बता रहे थे, कि कैसे आज उनके सुपरवाइजर ने उनसे कहा, कि उनके साथी की छुट्टी कर दी गई है और अब उन्हें अकेले ही दोनों काम करने हैं. मुझसे इतना काम कैसे होगा? तुरंत जवाब आया, ‘नहीं होगा तो भाग जाओ, गेट पर हर रोज़ तुम्हारे जैसे कई आते हैं, ‘कोई काम है क्या, पूछते रहते हैं!!’ गगन तिवारी बाहर आ गए. काम की तलाश में ही वे यहाँ पहुंचे थे. वहां जमा हुए ज्यादातर मज़दूर वही थे, जिनपर काम का इतना दबाव डाला गया कि वे काम छोडऩे को मज़बूर हुए.

1947 में हुए दर्दनाक, दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारे में, ख़ाली हाथ फऱीदाबाद पहुंचे, लखानी परिवार के पास आज, जूते-चप्पल बनाने के कुल कितने कारखाने हैं, कुल कितनी संपत्तियां हैं, कहना मुश्किल है. लखानी फुटवेयर, देश-विदेश में मशहूर हैं. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, लखानी कंपनियों को हरियाणा का गौरव बताते हुए, उन्हें सर्वश्रेष्ठ उद्योगपति के पुरष्कार से भी नवाज़ चुके हैं. भविष्यनिधि उपायुक्त ने स्वयं ये सच्चाई, 26.10.22 को 30 मज़दूरों के सामने, अपने दफ़्तर में स्वीकार किया था जब वे ज्ञापन स्वीकार रहे थे कि पी डी लखानी 2012 से और के सी लखानी 2020 से मज़दूरों का काटा गया पीएफ का पैसा जमा नहीं कर रहे. आज के जनवाद की अंदर की असलियत ये है कि जैसे केंद्र सरकार को अडानी-अंबानी चला रहे हैं, ठीक उसी तरह राज्य की सरकारें राज्य के बड़े सरमाएदार चला रहे हैं और जि़ले का प्रशासन जि़ले के सरमाएदारों के मातहत काम कर रहा है.

कॉरपोरेट को अपनी लूट की कमाई का 1 प्रतिशत सरमाएदारों की सामाजिक जिम्मेदारी के तहत समाज के लिए खर्च करना होता है। इस पैसे को ये धनपशु कितनी शैतानीपूर्ण तरीक़े से निवेश करते हैं, उसकी एक बानगी आज देखने को मिली। लखानी के पीडि़त-आक्रोशित मज़दूर आज जब लाल झंडे लहराते हुए, मालिक के कारिंदों की आंखों में आंख डालकर बात करने लगे, तब उनके बुलावे पर, पुलिस जिस जिप्सी में आई, उसके पीछे लखानी अरमान लिखा हुआ था. एक पुलिस कर्मी से जब पूछा गया कि जिसकी दी हुई कार में आप घूमते हो, उस पर सख्ती कर पाओगे? हां हां क्यों नहीं? एस्कॉर्ट्स के मालिक ने तो फरीदाबाद पुलिस को बीस मोटर साइकिल दी हैं, लेकिन उसने अपराध किया तो क्या हम उसे बख्श देंगे? सव्वाल ई पैदा नई होत्ता!!! कभी उसके मैनेजर को भी पकड़ा है, आपने??? ऐसी नौबत ही नहीं आई. आने भी नहीं वाली क्योंकि मालिक तो अपराध करते ही नहीं, अपराधी तो सिफऱ् मज़दूर ही होते हैं!!! कई कॉरपोरेट तो कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत पुलिस को सिफऱ् गाडिय़ां ही नहीं देते, उसके पेट्रोल और रख रखाव का खर्च भी उठाते हैं!! पीएमकेयर फंड में भी पैसा देकर कॉरपोरेट ने कॉरपोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी इसी तरह निभाई है!! चिंता की, लेकिन, कोई बात नहीं क्योंकि हमारे संविधान में कई जगह लिखा हुआ है, मालिक मज़दूर सब बराबर हैं!!!

फैक्ट्री गेट पर प्रदर्शन के बाद, पास के पार्क में एक मज़दूर सभा हुई. अहम फैसला लेते हुए, एक 9 सदस्यीय ‘बल्लभगढ़ मज़दूर संघर्ष समिति’ का गठन हुआ जो पूरे क्षेत्र में मज़दूरों से संपर्क कर उनके संघर्षों की अगुवाई करेगी.

1) लखानी की हर फैक्ट्री और बल्लभगढ़ क्षेत्र के अधिकतर कारखानों में मज़दूरों पर हो रहे दमन के, कमोबेश ये ही हालात हैं. सबसे पहले एक पम्फलेट लेकर सभी मज़दूरों से संपर्क किया जाएगा. सरकार की ओर से, मालिक लोगों को, मज़दूरों को जितना चाहे, निचोडऩे की खुली छूट मिली हुई है. सभी सरकारी विभाग, सरकार की मंशा जानकर, मालिकों के सामने आत्म समर्पण कर चुके हैं. चवन्नी- अठन्नी की लड़ाई भी आज बिना सडक़ पर आए, संभव नहीं. बिना लड़े पगार भी मिलने वाली नहीं है. इसलिए इस आन्दोलन का विस्तार करना होगा.

2) व्यापक एकजुटता बनाते हुए, क्रमबद्ध रूप से अनुशासित जन आन्दोलन तेज़ करना होगा. वार्ड स्तर से शुरू कर, मोहल्ला, सेक्टर और फिर शहर स्तर पर संघर्ष समितियां गठित करनी होंगी. मज़दूर वर्ग से प्रतिबद्धता रखने वाले, समाज के सारे हिस्से को एक साथ जोडऩा होगा. संसाधन भी जुटाने होंगे क्योंकि विरोध में आवाज़ उठाने वाले लड़ाकू साथियों को तुरंत काम से बर्खाश्त कर दिया जाता है. लड़ाई ज़ारी रखने के लिए मज़दूरों का जिंदा रहना भी ज़रूरी है.

3) लेबर कोड लागू होने की औपचारिक घोषणा से पहले ही वे लागू हो चुके हैं. मज़दूरों का कोई भी अधिकार आज उनका वास्तविक अधिकार रह ही नहीं गया है. सब कुछ मालिक की मजऱ्ी पर निर्भर है. मज़दूरों के लिए कानूनी और प्रशासनिक रास्ते बंद हो चुके हैं. सरकार की मदद से, मालिकों ने पूरे के पूरे प्रशासन को ही अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. मज़दूरों के सामने, आज, ‘लड़ो या मरो’ जैसे हालात पैदा हो गए हैं.

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