घर-बार खेत-खलिहान जहां रहती है दुनिया खाती है, पीती है मौज करती है और ये सब जुटाते हैं वे जिनके न घर हैं न बार न खेत-खलिहान वे भूखे हैं अधनंगे हैं तरबतर हैं पसीने से और सर पर खुला आकाश है..
गजेन्द्र रावत