डॉ. रामवीर प्रजातन्त्र में प्रजा उपेक्षित तन्त्र हुआ है हावी, जन की बातें बेमानी हैं धन ही अधिक प्रभावी।
साल पिछत्तर पूर्व विदेशी का कब्जा तो छूटा, किन्तु भारतोदय का स्वर्णिम स्वप्न भी लगता टूटा।
चाल चलन अंग्रेजों सा ही अंग्रेजी ही भाषा, अंग्रेजों से लडने वालों को होती है निराशा।
सोचा था मौसम बदलेगा छट जाएगा कुहासा, परिवर्तन है ऊपर ऊपर अन्दर सब कुछ वैसा।
मत्स्यन्याय से बचने वास्ते शासक जाते बनाए, तब क्या हो जब खुद शासक ही मत्स्यन्याय चलाए।
मोटे मुटियाते जाते हैं सूखे सूखते जाएं, भूखे भोजन से वंचित हैं छके हुए अघाएं।
धनी और निर्धन में खाई जिस नीति ने बढ़ाई, ऐसी नीति का संचालक शासक समझो कसाई।
शासक जिस से लेता चन्दा उस का ही हो जाता बन्दा, एक के बदले दस लौटाता राजनीति का खेल है गन्दा।