गऱीबों में संतोष का नुस्ख़ा-लू शुन

गऱीबों में संतोष का नुस्ख़ा-लू शुन
December 20 03:26 2022

एक शिक्षक अपने बच्चों को नहीं पढ़ाता, उसके बच्चों को दूसरे ही पढ़ाते हैं। एक डॉक्टर अपना इलाज ख़ुद नहीं करता, उसका इलाज कोई दूसरा डॉक्टर करता है। लेकिन अपना जीवन जीने का तरीक़ा हर आदमी को ख़ुद खोजना पड़ता है। क्योंकि जीने की कला के जो भी नुस्ख़ेे दूसरे लोग बनाते हैं, वे बार-बार बेकार साबित होते हैं।

दुनिया में प्राचीन काल से ही शांति और चैन बनाए रखने के लिए गऱीबी में संतोष पाने का उपदेश बड़े पैमाने पर दिया जाता है। गऱीबों को बार-बार बताया जाता है कि संतोष ही धन है। गऱीबों में संतोष पाने के अनेक नुस्ख़े तैयार किए गए हैं, लेकिन उनमें में कोई पूरी तरह सफल साबित नहीं हुआ है। अब भी रोज़-रोज़ नए-नए नुस्ख़े बनाए जा रहे हैं। मैंने अभी हाल में ऐसे दो नुस्ख़ों को देखा है। वैसे ये दोनों भी बेकार ही हैं।

इनमें में एक नुस्ख़ा यह है कि लोगों को अपने कामों में दिलचस्पी लेनी चाहिए। ‘अगर आप अपने काम में दिलचस्पी लेना शुरू कर दें तो काम चाहे कितना ही मुश्किल क्यों ना हो, आप ख़ुशी से काम करेंगे और कभी नहीं थकेंगे।’ अगर काम बहुत मुश्किल ना हो तो यह बात सच हो सकती है। चलिए, हम खदान मज़दूरों और मेहतरों की बात नहीं करते। आइए हम शंघाई के कारख़ानों में दिन में दस घंटे से अधिक काम करने वाले मज़दूरों के बारे में बात करें। वे मज़दूर शाम तक थक कर चूर-चूर हो जाते हैं। उन्हें उपदेश दिया जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन होता है। अगर आपको अपने शरीर की देखभाल की फ़ुर्सत नहीं मिलती तो आप काम में दिलचस्पी कहाँ से पैदा करेंगे। इस हालत में वही आदमी काम में दिलचस्पी ले सकता है जो जीवन में अधिक दिलचस्पी रखता हो। अगर आप शंघाई के मज़दूरों से बात करें तो वे काम के घटे कम करने की ही बात करेंगे। वे काम में दिलचस्पी पैदा करने की बात कल्पना में भी नहीं सोच सकते।

इससे भी अधिक पक्का नुस्ख़ा दूसरा है। कुछ लोग अमीरों और गऱीबों की तुलना करते हुए कहते हैं कि आग बरसाने वाले गर्मी के दिनों में अमीर लोग अपनी पीठ से बहते पसीने की धार की चिन्ता ना करते हुए सामाजिक सेवा में लगे रहते हैं। गऱीबों का क्या है? वे एक टूटी चटाई गली में बिछा देते हैं, फिर अपने कपड़े उतारते हैं और चटाई पर बैठकर आराम से ठडी हवा खाते हैं।

यह कितना सुखद है। इसी को कहते हैं चटाई समेटने की तरह दुनिया को जीतना। यह सब दुर्लभ और राज्यात्मक नुस्ख़ा है, लेकिन इसके बाद एक दुखद दृश्य सामने आता है। अगर आप शरद ऋतु में गलियों से गुजऱ रहे हों, तो देखेंगे कि कुछ लोग अपने पेट कसकर पकड़े हुए हैं और कुछ नीला तरल पदार्थ कै कर रहे हैं। ये कै करने वाले वे ही गऱीब लोग हैं, जिनके बारे कहा जाता है कि वे धरती पर स्वर्ग का सुख लूटते हैं और चटाई समेटने की तरह दुनिया को जीतते हैं। मेरा खय़ाल है कि शायद ही कोई ऐसा बेवक़ूफ़ होगा जो सुख का मौक़ा देखकर भी उससे लाभ ना उठाता हो। अगर गऱीबी इतनी सुखद होती तो ये अमीर लोग सबसे पहले गली में जाकर सो जाते और गऱीबों की चटाई के लिए कोई जगह ना छोड़ते।
अभी हाल में ही शंघाई के हाई स्कूल की परीक्षाओं के छात्रों के निबध छपे हैं। उनमें एक निबंध का शीर्षक है – ‘ठंडक से बचाने लायक कपड़े और भरपेट भोजन’। इस लेख में कहा गया है कि “एक गऱीब व्यक्ति भी कम खाकर और कम पहनकर अगर मानवीय गुणों का विकास करता है, तो भविष्य में उसे यश मिलेगा। जिसका आध्यात्मिक जीवन समृद्ध है, उसे अपने भौतिक जीवन की गऱीबी की चिता नहीं करनी चाहिए। मानव जीवन की सार्थकता पहले में है, दूसरे में नहीं।”

इस लेख में केवल भोजन की ज़रूरत को नहीं नकारा गया है, कुछ आगे की बातें भी कही गई हैं। लेकिन हाई स्कूल के छात्र के इस सुंदर नुस्ख़े से विश्वविद्यालय के वे छात्र संतुष्ट नहीं हैं, जो नौकरी खोज रहे हैं।

तथ्य नितात निर्मम होते हैं। वे खोखली बातों के परखचे उड़ा देते हैं। मेरे विचार से अब वह समय आ गया है कि ऐसी पडिताऊ बकवास को बंद कर दिया जाए। अब किसी भी हालत में इसका कोई उपयोग नहीं है।
(13 अगस्त 1934, अनुवाद – चंद्र सदायत)

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Mazdoor Morcha
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