पीपल और वट वृक्ष की आयु बहुत लंबी क्यों?

पीपल और वट वृक्ष की आयु बहुत लंबी क्यों?
December 05 02:45 2022

रणबीर फोगाट
दोनों ही वृक्षों की कई किस्म हिंदुस्तान में मिलती हैं। मालूम हुआ है कि क्रमिक-विकास के दौरान आज से करीब 80 लाख साल पहले लाखों पेड़ों में से इन दोनों नस्लों ने अपनी जींस में कुछ ऐसे परिवर्तन किए जिससे इनकी जड़ों की कोशिकीय संरचना इस तरह से विकसित हुयी जिससे अत्याधिक ‘स्ट्रैस’ (तापमान, वर्षा, मिट्टी या धरा की रूप रंग और मौसम) को ये झेल कर अपना जीवन बचाए रखें। भोपाल के अभिषेक चक्रवर्ती, श्रुति महाजन, मनोहर सिंह बिष्ट और इनके गुरु विनीत कुमार शर्मा ने आधुनिक ‘जीन सीक्वेंसिंग टेकनीक्स’ की मदद से मालूम किया है कि पीपल में 25,016 और वट वृक्ष में 23,929 कोडिंग जींस हैं जिनके लाखों बेस-पेयर हैं। इस बारे इनका शोध-पर्चा सन 2022 के अक्तूबर महीने में ‘आई-साइन्स’ में छपा।

इन वैज्ञानिकों ने देखा कि वट में 17 और पीपल में 19 एम.एस.ए जींस हैं जो इन दोनों वृक्षों के दीर्घजीवन को सुनिश्चित करती हैं। हमने देखा ही है कि ये दोनों वृक्ष किस तरह से खंडहर भवन की मोटी दीवारों और चट्टानी धरती को फाड़ कर भी अपनी वृद्धि करते हैं और सिर्फ वायुमंडल में बनी नमी या फिर बरसात के दौरान के पानी या फिर कहीं से पानी की लीकेज़ होने पर उसे ग्रहण करके अपनी जान बचा कर रखते हैं। रहस्य छिपा है इनकी जड़ की बनावट में मौजूद कोशिकाओं के भीतर जो और पेड़ों की जड़ों से भिन्न होती है। एम.एस.ए का अर्थ है ‘मल्टीपल साईञ्ज़ ऑफ एडेप्टिव एवोल्यूशन’ जिसे हम इस रूप में समझ सकते हैं जैसे कि जड़ों की कोशिकाओं की संरचना का लंबा हो जाना, कोशिकाओं का तेज़ी से और बहुसंख्या में विभाजित होना (सेल प्रोलिफ्रेशन), बीज़ और परागकणों की बनावट और वृद्धि, पार्श्व-अंग बनना (वट की ढाढ़ी), पुष्पाच्छादित होने के समय का निर्धारण, चयाप्चयी (मेटाबोलिज़म) प्रक्रिया का निर्धारण और एक से दूसरी कोशिका के बीच संवाद की प्रक्रिया। कोशिका स्तर पर रूपान्तरण ने इन वृक्षों को बीमार होने से भी बचाया है। इन वृक्षों की कोशिकाएं ‘ओक्सीडेटिव स्ट्रैस’ को भी झेलती हैं और किसी भी किस्म के रोगकारक संक्रमण से पेड़ को बचा कर रखती रही हैं। ‘ओक्सीडेटिव स्ट्रैस’ की रासायनिकी और जीवित प्राणियों पर (पेड़) इसके प्रभाव को समझने के लिए संक्षिप्त में इतना ही कहना पर्याप्त है कि जिन बाहरी परिवर्तनों (जैसे कि वायुमंडल में मौजूद गैसों की मात्रा में परिवर्तन होना, विकिरण की किस्म और मात्रा की उपस्थिती चाहे वह सूर्य और अन्तरिक्ष से आने वाला दृश्य-प्रकाश है या अदृश्य किरणें, आसमानी बिजली या किसी और कारण जैसे कि बाढ़, से पेड़ के किसी भी अंग-प्रत्यंग को होने वाली क्षति) के कारण पेड़ की विभिन्न तरह की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचता है तो ये कोशिकाएं उसका जवाब देती हैं और अपने भीतर की रासायनिकी को इस तरह से सक्रिय करती हैं जिससे नुकसान को निरस्त किया जा सके। लेकिन इसे पेड़ के शरीर को काटने या जलने से हुयी क्षति से जोड़ कर न समझें। इसका रिपेयर-मैकेनिज़्म अलग है। इसमें ग्लूटाथियोन नामक रसायन की जोरदार भूमिका रहती है। वनस्पति में यह रसायन एक एंटी-आक्सिडेंट के रूप में मौजूद रहता है। यही रसायन कोशिका को नुकसान से बचाता है। कोशिका के अनेक हिस्सों में फ्री-रेडिकल्स, परऑक्साइड्स, लिपिड-परऑक्साइड्स से होने वाली क्षति और आण्विक रूप से भारी धातुओं के सूक्षम कणों के संपर्क में आने के बाद के दुष्प्रभाव से ग्लूटाथियोन ही पेड़ की कोशिकाओं को बचाता है। ओक्सिडटिव स्ट्रैस को समझने के लिए इंटरनेट रिसौर्सेस का इस्तेमाल किया जा सकता है।

इन्हीं गुणों के अध्ययन के बाद प्राचीन भारतीय मनीषियों ने इन दोनों वृक्षों की रक्षा के लिए इन्हें धार्मिक कृत्यों से जोड़ दिया ताकि लोग इन्हें चमत्कारी और श्रद्धेय मान कर इनकी रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहें। ऐसी थी भारत की पर्यावरणी सोच!

पीपल और वट वृक्ष वैदिक काल से ही भारतीय सांस्कृतिक जीवन शैली के अभिन्न अंग रहे हैं। पादप संपदा के प्रति पाप और पुण्य के दृष्टिकोण यहीं जन्में हैं। इन वृक्षों का काटना या क्षति न पहुंचाना ही पुण्य माना गया। ऐसा दृष्टिकोण विश्व की किसी और सभ्यता में नहीं हो सकता। लेकिन श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में जरूर है जिनमें आदिकाल से भारतीय संस्कारों की प्रतिष्ठा हुयी। बर्मा से विएतनाम तक यह मिलेगी। इन दोनों वृक्षों की खुद ही सूख कर नीचे गिरी हुयी टहनियों को बीनना और इन्हें जलाना भी ‘पाप’ समझा गया। इनकी लकड़ी ईंधन रूप में निषेध्य है। इसलिए कि यह एक तो तैलीय नहीं जो धधक कर जल उठे और इसका तन्तु ऐसा जो बहुत धुआं उत्पन्न करता है। इसीलिए देसी कीकर की सूखी हुयी लकड़ी ईंधन के लिए श्रेष्ठ मानी गई।

पीपल और वट के गुणों से कौन वाकिफ नहीं? इसलिए इनके साथ नीम की त्रिवेणी लगाने की परंपरा का विकास देश में हुआ। लेकिन अनेक संस्कारी लोग त्रिवेणी के भाव को समझ नहीं पाते और तीनों वृक्षों के छोटे पौधे एक साथ जोडक़र लगाते रहे हैं। नीम वृक्ष का हरेक अंग-प्रत्यंग महत्वपूर्ण है और टिंबर के अलावा औषधीय गुणों से भरपूर। नीम में पाया जाने वाले रस और इसके अंगों में मौजूद रसायन (एक्टिव प्रिन्सिपल का नाम एजडायरिकटिका इंडिका) विषाणु, जीवाणु और फफूंद रोधी है। ये तीन वृक्ष भारतीय जीवन शैली और स्वस्थ पर्यावरण के लिए जरूरी माने गए, इसीलिए इन्हें त्रिवेणी के रूप में मान्यता दी गई। इन्हें फैलने के लिए और स्वस्थ वृद्धि हो सके, इस के लिए इन्हें कम से कम 50 फुट की दूरी पर रोपना होता है, न कि एकसाथ रोप कर इनकी वृद्धि को कुंठित कर देना।

भारत में ब्रिटिश हकूमत के दौरान सन 1783, 1866, 1873, 1892, 1897 और 1943-44 में जब अनावृष्टि की वजह से भीषण अकाल पड़े और पानी के लिये हाहाकार हुआ तब दानी सेठों ने अनेक तालाब और कुओं का निर्माण करवाया। हरयाणा के जिला भिवानी में बड़वा गांव के केसर सेठ ने अपने गांव में एक विशाल तालाब और इसके निकट दो बड़े कुओं का निर्माण जब ई सन 1892 में करवाया तो पीपल और पिलखन के वृक्ष भी लगवाए। ये वृक्ष अभी बड़े हो गए हैं और स्वस्थ हैं।

हमें मालूम ही है कि पीपल के पत्ते और नीम के फूल एक प्रतीक के रूप में भारतीय स्थापत्य और परिधान जैसी शृंगार सामग्री के अलंकरण के लिए भी उपयोग किए गए हैं। पीपल और वट वृक्ष के बारे में भारत की फोकलोर में अनेक तरह के मिथक और लोककथाएं प्रचलित रही हैं। हमारे यहां अक्षय वट की अवधारणा है और महिलाएं ‘वट-सावित्री’ व्रत का पालन करती हैं। हल्दी और गेरु में रंगी हुयी ‘मौलि’ को इसलिए महिलायें वट वृक्ष के चारों ओर प्रतीक के रूप में लपेटती हैं जिससे औरों के इसके गुणसंपन्न और श्रद्धेय होने का आभास हो; ताकि इसके इस ‘मौलि’ रूप में पहनाए गए रक्षा-कवच के धारण से कोई मनुष्य इसे क्षति न पहुंचाए। इसका पालन भारत में गैर-हिंदुओं ने भी किया। ईरान और मिस्र की वृक्ष-निमित्त परम्पराओं से हमें उधर के अनेक संस्कारों और मिथकों के बारे में भी मालूम होता है।

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