सत्यवीर सिंह विश्व सर्वहारा के महान नेता, शिक्षक, पथ प्रदर्शक और प्रख्यात दार्शनिक फ्रेडेरिक एंगेल्स का जन्म, तत्कालीन प्रुशिया के बारमेन, आज के जर्मनी के वुप्परटल शहर में, 28 नवम्बर 1820 में हुआ था. उनका एक और ख़ास परिचय है, फ्रेडेरिक एंगेल्स और कार्ल मार्क्स की मित्रता ने उस उत्कर्ष को छुआ, जिसकी मिसाल नहीं.
पूंजीवादी दुनिया में उस ऊंचाई को कोई नहीं छू पाया. प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतनकार, मरहूम कॉमरेड लाल बहादुर वर्मा के प्रस्ताव पर, ‘गार्गी प्रकाशन’ पिछले कई साल से, फ्रेडेरिक एंगेल्स के जन्म दिन को ‘मित्रता दिवस’ के रूप में मनाता आ रहा है. उसी कड़ी में, फ्रेडेरिक एंगेल्स के जन्म दिन की पूर्व संध्या, 27 नवम्बर, रविवार, अपरान्ह 3 बजे ‘दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी’ के ‘ग़ालिब सभा-गृह’ में एक शानदार कार्यक्रम हुआ, जिसमें दिल्ली और आस-पास के क्षेत्र में सक्रिय अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और नेताओं ने शिरकत की. “फ्रेडेरिक एंगेल्स के 202 वें जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित ‘मित्रता दिवस’ और उनकी रचनाओं पर चर्चा”, इस यादगार कार्यक्रम का सचालन साथी राजेश ने किया. अपनी संक्षिप्त, परिचयात्मक तकऱीर का आगाज़, साथी राजेश ने बहुत दिलचस्प अंदाज़ में किया. ‘अपने माता-पिता, परिवार को चुनने में हमारी कोई भूमिका नहीं होती. ये सब क़ुदरत तय करती है. हाँ, एक बहुत महत्वपूर्ण और आनंददायक सम्बन्ध है, जिसे हम ख़ुद चुनते हैं, बिलकुल अपनी मंजूरी अनुसार. वह है, मित्रता का सम्बन्ध.’ इसीलिए कहा जाता है कि व्यक्ति के दोस्तों के बारे में जानकर ही हम उस व्यक्ति को सही से जान सकते हैं. सर्वहारा वर्ग के महानतम शिक्षकों, कार्ल मार्क्स-फ्रेडेरिक एंगेल्स की उत्कृष्टतम मित्रता और वैचारिक एकता ऐसी थी, कि किस रचना में, दोनों में किसका, कितना योगदान है, ये तय करना भी मुश्किल है. मार्क्सवाद में फ्रेडेरिक एंगेल्स घुले हुए हैं. उनका साहित्य, हमें अपने मुक्ति- संघर्ष में पथ-प्रदर्शक का काम करता है. इसीलिए इस ऐतिहासिक, बे-मिसाल मित्रता को, लाल सलाम पेश करने का, इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता कि हम फ्रेडेरिक एंगेल्स की कुछ ऐतिहासिक रचनाओं पर चर्चा करें.
सभा के अध्यक्ष मंडल की अध्यक्षता, वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड अर्जुन प्रसाद सिंह ने की. कामरेड्स दिगंबर, प्रवीण, अमरपाल और विक्रम उसका हिस्सा बने जिन्हें फ्रेडेरिक एंगेल्स की 4 प्रख्यात रचनाओं, ‘इंगलैंड में मज़दूर वर्ग की दशा’, ‘समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक’, ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ और ‘जर्मनी में किसान युद्ध’ पर क्रमश: अपने विचार रखने थे.
‘इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग की दशा’; फ्रेडेरिक एंगेल्स की बहुत बहुत विख्यात रचना है, जो 1845 में प्रकाशित हुई. इंग्लैंड में टेक्सटाइल के प्रमुख केंद्र मानचेस्टर में, एंगेल्स ने, अपनी पैत्रिक व्यवसायिक कंपनी, ‘एर्मेन एंड एंगेल्स’, में प्रबंधक की जि़म्मेदारी निभाते हुए, वहां के मज़दूरों की दशा पर बहुत गंभीर अध्ययन किया.
असंख्य सरकारी दस्तावेज़ों को खंगाला और बेहद कंगाली, तक़लीफ़ों में जि़न्दगी गुजार रहे मज़दूरों का जीवन कऱीब से देखा. कॉमरेड दिगंबर ने बताया कि कैसे फ्रेडेरिक एंगेल्स ने उच्च मध्यवर्ग की जि़न्दगी को छोड़, बदबू और गन्दगी से बज़बज़ाती मज़दूर बस्तियों में जाकर उनके दर्द को महसूस किया. उस वक़्त इंग्लैंड में मज़दूरों की दशा, हमारे देश में मज़दूरों की हालात से कितना मेल खाती है, इस मार्मिक उद्धरण से ज़ाहिर हो जाता है: “जब कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को ऐसी चोट पहुंचाता है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है, तो हम ऐसी हरक़त को मानव हत्या कहते हैं. जब हमलावर को पहले से पता होता है कि चोट जान-लेवा हो सकती है तो उस कार्यवाही को हत्या कहते हैं. लेकिन, जब समाज सैकड़ों मज़दूरों को ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ पर उनकी बहुत जल्दी और समय से पहले मौत हो जाती है, तो यह भी उसी तरह हिंसा के ज़रिए होने वाली मौत है, जैसे की तलवार या गोली से होती है. जब वह लोगों को जीवन की हजारों ज़रूरतों से वंचित कर देता है, उन्हें उस अवस्था में रख देता है जिसमें वे जिंदा नहीं रह सकते, समाज उन्हें क़ानून की सख्त गिरफ़्त में उस समय तक ऐसी दशाओं में बने रहने के लिए धकेल देता है, जिसका अनिवार्य परिणाम मौत होता है, तब समाज को पता होता है कि ये हजारों पीडि़त निश्चय ही काल-कवलित हो जाएँगे और फिर भी इन दशाओं को बनाए रखता है, तो उसका कुकृत्य उसी तरह हत्या है जैसे किसी अकेले व्यक्ति का कुकृत्य होता है. प्रच्छन्न, दुर्भावनापूर्ण हत्या, ऐसी हत्या जिसकी जवाबदेही से कोई भी नहीं बच सकता, जो वैसी नहीं दिखती जैसी वो है, क्योंकि कोई भी आदमी हत्यारे को नहीं देखता, क्योंकि पीडि़त की मृत्यु स्वाभाविक मृत्यु जान पड़ती है, क्योंकि यह अपराध के मुक़ाबले चूक अधिक जान पड़ती है. लेकिन वह हत्या को क़ायम रखता है.” मज़दूर महिलाओं की स्थिति के बारे में एंगेल्स लिखते हैं, “बीस साल की एम.एच. के दो बच्चे हैं, छोटे वाले बच्चे को दूसरा बच्चा संभालता है, जो उससे थोड़ा ही बड़ा है. सुबह 5 बजे के आस-पास माँ मिल चली जाती है; पूरे दिन उसकी छाती से दूध बहता रहता है, जिसके चलते उसके कपड़े तरबतर हो जाते हैं.” उसी स्थिति में एक दूसरी महिला मज़दूर एच.डब्लू बताती हैं, “मेरी छातियों ने मुझे भयावह दर्द दिया है और मैं दूध से भीगी रहती हूँ.”
मज़दूरों के बारे में ऐसा चित्रण सिफऱ् वही कर सकता है जिसने उनके दर्द को महसूस किया हो: “जो लोग घिसाई के काम में माहिर होते हैं, वे आम तौर पर चौदह साल से अपना काम शुरू करते हैं. जो घिसाई करने वाले हट्टे- कट्टे होते हैं, वे 20 साल तक पहुँचने से पहले शायद ही कभी अपने पेशे के चलते परेशानी महसूस करते हैं.
उस समय तक उनके विचित्र रोग के लक्षण उभरने लगते हैं. थोड़ी सी थकान होने पर ही उनका दम फूलने लगता है, खासकर सीढियाँ चढ़ते हुए या पहाड़ी पर चढ़ते समय. लगातार बढ़ते अपच से राहत पाने के लिए उनको बार- बार कंधे उचकाने पड़ते हैं; वे साँस लेने के लिए आगे की ओर झुकते हैं, क्योंकि जिस मुद्रा में वे काम करते हैं, उसी स्थिति में उनको साँस लेने में सहूलियत होती है. उनका रंग मैला रूप ग्रहण कर लेता है; उनके चेहरे से चिंता झलकती है, वे छाती के आस-पास शिकायत महसूस करते हैं; उनकी आवाज़ रुखी और कर्कश होती है; उनकी खांसी बहुत तीखी होती है, जैसे वे लकड़ी की नली से हवा खींच रहे हों; वे अक्सर बड़ी मात्रा में धूल- कण खांसी के साथ थूकते हैं, कभी बलगम के साथ मिला हुआ, कभी बलगम की पतली परत से लिपटे गोल या बेलनाकार थक्के के रूप में. खांसी के साथ खून आना, लेटने में असमर्थता, रात को पसीना आना, पेट में दर्द, बड़ी आंत में घाव और दस्त, बेहद कमज़ोरी के साथ-साथ लम्बे समय से फेफड़े की टी बी के सभी सामान्य लक्षण उन्हें ग्रसित किए होते हैं.”
समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक; दुनियाभर में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली, फ्रेडेरिक एंगेल्स की ये रचना, 1880 में प्रकाशित हुई थी. साथी प्रवीण ने बताया कि इस पुस्तिका के तीन अध्याय हैं; काल्पनिक समाजवाद, द्वंद्ववाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद. फ्ऱांसिसी क्रांति (1789) के बाद कई लोगों ने अपने-अपने ‘समाजवाद’ प्रस्तुत किए. सैंट साइमन ने 1802 में उनका समाजवाद प्रस्तुत किया. मज़दूरों और निठल्लों के भेद को उजागर करते हुए उन्होंने छोटे पूंजीपति, व्यापारियों और बैंक मालिकों को भी उजरती मज़दूर वर्ग में शामिल किया, क्योंकि ये लोग भी मेहनती हैं.
सैंट साइमन के बाद फौरिएर, 1808 में एक अलग ही समाजवाद लेकर आए. उनके अनुसार, जैसे-जैसे समाज का विकास होता है, उसमें कई विकार आते जाते हैं. सामाजिक विकास, दुश्चक्र में घूमता रहता है. वस्तु-स्थिति का वैज्ञानिक विश्लेषण ना कर पाने के बावजूद, सच्चाई के बहुत कऱीब पहुंचे और बताया कि कैसे देहात के किसान उजडक़र शहरों की गन्दी झुग्गी बस्तियों में एकत्र होते जाते हैं. उनके परिवार बिखरते जाते हैं और उनके छोटे बच्चों तथा महिलाओं को बहुत कष्टपूर्ण जीवन जीना पड़ता है.
उसी वक़्त के एक और समाजवादी इंग्लैंड में प्रकट हुए; रोबर्ट ओवेन, जिन्होंने 1800 से 1829 के बीच, बड़ी मासूमियत से अपने विचार रखते हुए बताया कि औद्योगिक क्रांति से समाज में अफरा-तफऱी का माहौल पैदा होता है.
कुछ स्वार्थी तत्व इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं. मज़दूरों में परस्पर सहयोग की भावना को जगाते हुए बस्तियां बसनी चाहिएं, शराब, जुआ और अय्याशी से दूर रहना चाहिए. उन्होंने 2500 मज़दूरों की बस्ती बसाई, स्कूल खोले. उनके अनुसार, मशीनों से मज़दूरों की उत्पादकता बढ़ी है, लेकिन उनके पास पूंजी ना होने के कारण उसका लाभ पूंजीपति हड़प जाता है. जैसे ही वे कम्युनिस्ट विचारों के नज़दीक आए, तो जो लोग उन्हें अब तक मसीहा समझते थे, वे ही उन पर मज़दूरों को भडक़ाने का आरोप लगाने लगे. एंगेल्स, इन काल्पनिक समाजवादों की अवैज्ञानिकता को उजागर करते हुए, वैज्ञानिक समाजवाद की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. “क्रांति के द्वारा सर्वहारा वर्ग सत्ता अपने हाथ में लेता है. उसके ज़रिए सामाजिक उत्पादन से पूंजीपति वर्ग को बे-दखल करते हुए, समूचे उत्पादन को सामाजिक संपत्ति में तब्दील कर देता है. ऐसा करने से उत्पादन, पूंजी के चंगुल से मुक्त हो जाता है, जिससे उत्पादन का चहुँमुखी विकास और विस्तार होता है. सम्पूर्ण उत्पादन को योजनाबद्ध तरीक़े से बढ़ाया जाता है. उत्पादन के विभिन्न विभाग, अब एक सूत्र में काम करना शुरू कर देते हैं. अराजकता का अंत होता है और राज-सत्ता धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोने लगती है. परिणामस्वरूप मनुष्य, अपने उत्पादन के साथ में प्रकृति का भी मालिक बन जाता है और उसे असली आज़ादी प्राप्त होती है.”
इसके बाद ‘विकल्प मंच’ के युवा साथियों ने एक बहुत सुन्दर क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किया: मैं तो देखूंगा तुम भी देखोगे.. हाँ तुम भी देखोगे जब रोटी सस्ती होगी, और मंहगी होगी जान वो दिन भी आएगा, जब ऐसा होगा हिंदुस्तान .. मैं तो देखूंगा जब रंग बिरंगे झंडे, इक परचम में घुल जाएँगे और इधर-उधर को जाते रस्ते इक मोड़ पर मिल जाएँगे जब बच्चे मुल्क पर राज करें और धूप में बैठे हों सियासतदान वो दिन भी आएगा जब ऐसा होगा हिंदुस्तान.. मैं तो देखूंगा जब भूख को बेचकर खाने वाले ख़ुद हज़म हो जाएँगे और पुश्तों से जो गद्दी बैठे सब भीड़ में मिल जाएँगे जो दूर गए थे भूले से वो देखेंगे वतन को एक साथ वो दिन भी आएगा जब ऐसा होगा हिंदुस्तान … मैं तो देखूंगा वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका; फ्रेडेरिक एंगेल्स की इस संक्षिप्त लेकिन दिलचस्प रचना (1876) से उद्धृत करते हुए, साथी अमरपाल ने कहा, “पहली बात कि उनकी जि़न्दगी के उस तौर-तरीके की वज़ह से, जिसमें पेड़ों पर चढते समय उनके हाथों की क्रिया पावों से भिन्न होती है, इन मानवाभ वानरों की, ज़मीन पर चलते समय हाथों का इस्तेमाल करने की आदत छूटती गई और वे अधिकाधिक सीधे खड़े होकर चलने वाली मुद्रा अपनाने लगे. यह मानवाभ वानर से मानव तक के संक्रमण में निर्णायक क़दम था… इस तरह हाथ, केवल श्रम करने वाला अंग ही नहीं है, वह श्रम की उपज भी है…हाथों, स्वर अंगों और मस्तिष्क के संयुक्त काम से केवल हर व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी मनुष्य लगातार अधिकाधिक पेचीदा काम करने तथा अपने सामने उच्चतर लक्ष्य रखने और उन्हें हांसिल करने के योग्य बना.”
इस पुस्तिका को हर इन्सान ने पढऩा चाहिए, “जिस तरह मनुष्य ने सभी खाने लायक चीजों को खाना सिखा, उसी तरह उसने किसी भी वातावरण में रह लेना भी सीखा. वह समूची निवास योग्य दुनिया में फ़ैल गया.. वही एक मात्र ऐसा पशु था जिसमें खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमता थी. अन्य पशु-पालतू जानवर और कृमि -अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी तरह के वातावरण में जीने के अभ्यस्त बने… संक्षेप में, पशु बाह्य प्रकृति का केवल उपयोग करता है और उसमें अपनी उपस्थिति के द्वारा ही परिवर्तन लाता है. लेकिन मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा प्रकृति से अपना काम करवाता है, उस पर मालिक की तरह शासन करता है. यही मनुष्य और दूसरे पशुओं के बीच अंतिम और सारभूत अंतर है. यहाँ भी इस अंतर को लाने वाला श्रम ही होता है…लेकिन ऐसे समाधान को व्यवहार में लागू करने के लिए ज्ञान ही काफ़ी नहीं है. इसके लिए हमारी अभी तक की उत्पादन प्रणाली में और उसके साथ हमारी समूची समकालीन समाज व्यवस्था में आमूल क्रांति की ज़रूरत है.”
जर्मनी में किसान युद्ध; सन 1524 -1525 के बीच, जर्मनी के किसानों और भू-स्वामियों के बीच एक बहुत भयानक युद्ध हुआ था. किसान अपने खून-पसीने से कमाई उपज को सामंतों द्वारा छीन लिए जाने के विरुद्ध बहुत तीखा युद्ध लड़े, लेकिन सामंतों ने सरकार से मिलकर उस विद्रोह को कुचल डाला और 1 लाख से भी ज्यादा किसानों का क़त्लेआम कर डाला. फ्रेडेरिक एंगेल्स की इस ऐतिहासिक रचना की विवेचना करते हुए, साथी विक्रम ने उस घटना को हमारे देश में, मौजूदा ऐतिहासिक किसान आन्दोलन से जोड़ते हुए बताया कि क्रांतिकारी परिस्थितियां उत्पन्न होने पर शासक वर्ग अपने मतभेद भुलाकर शासित वर्ग पर टूट पड़ता है. उसी तरह शोषित पीडि़त वर्ग, मज़दूर और मेहनतक़श किसानों को भी वर्ग चेतना के आधार पर संगठित होकर निर्णायक संघर्ष छेडऩे की ज़रूरत है.
कॉमरेड जे पी नरेला ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि हमारे देश में वर्ग विभाजन से पहले, वर्ण-विभाजन और जाति-विभाजन अस्तित्व में आए. उन्हें नजऱंदाज़ कर संघर्षों को उनके अंजाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता. इग्नू के प्रोफ़ेसर अजय माहोलाकर और कॉमरेड नन्हेलाल ने भी अपने विचार रखते हुए कहा कि समाज में मौजूद प्रधान अंतर्विरोध के अतिरिक्त विभिन्न अंतर्विरोधों को भी संज्ञान में लिया जाना आवश्यक है.
कॉमरेड अर्जुन प्रसाद सिंह ने कार्यक्रम का समापन करते हुए बताया कि एंगेल्स, कार्ल मार्क्स के अनन्य मित्र ही नहीं, सह-योद्धा थे जिन्होंने कार्ल मार्क्स के जीवन काल में उनकी सभी रचनाओं में बहुत अहम योगदान दिया.
14 मार्च 1883 को कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद, अपनी अंतिम साँस, 5 अगस्त 1895 तक, एंगेल्स ने, पूंजी खंड 2 और 3 के साथ ही अधिशेष के सिद्धांत (ञ्जद्धद्गशह्म्4 शद्घ स्ह्वह्म्श्चद्यह्वह्य ङ्कड्डद्यह्वद्ग) के तीन खंड प्रकाशित किए. अपने परम मित्र कार्ल मार्क्स की क़ब्र पर दी गए उनके ऐतिहासिक भाषण को कौन भूल सकता है. विकल्प मंच के साथियों द्वारा प्रस्तुत ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ के साथ सभा संपन्न हुई.
सर्वहारा के महान नेता, शिक्षक, फ्रेडेरिक एंगेल्स को उनके 202 वें जन्म दिन पर लाल सलाम