मज़दूर, लेबर कोड्स का विरोध क्यों कर रहे हैं (4)?

मज़दूर, लेबर कोड्स का विरोध क्यों कर रहे हैं (4)?
November 13 10:07 2022

‘व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं काम करने की स्थिति’

सत्यवीर सिंह
मोदी जी कितना सही कहते हैं; “जो सत्तर साल में नहीं हुआ, वो हमने 8 साल में कर दिखाया”। 1948 से 1996 के दरम्यान, पुलिस की लाठियां खाते हुए, देश में विभिन्न श्रेणी के कर्मचारियों के अथक संघर्षों के परिणामस्वरूप, बने 13 क़ानून, 19 सितम्बर 2020 को एक झटके में रद्द हो गए, जब भयंकर कोरोना महामारी के बीच संसद ने ‘व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य करने की स्थिति’ कोड पास किया. बल्कि मोदी जी को, साथ में ये भी बोलना चाहिए, “आज़ादी के बाद के 50 सालों के संघर्षों में, मज़दूरों के लिए जो क़ानून बने, उन्हें हमने, एक झटके में फाडक़र कचरे की टोकरी में डाल दिया”.

चारों लेबर कोड्स द्वारा कुल निरस्त हुए क़ानून तो 44 हैं, लेकिन इस श्रंखला की चौथी और अंतिम कड़ी में, जिस कोड की हम विवेचनाकरने जा रहे हैं, वह कोड इन 13 क़ानूनों को निरस्त कर आया है. फासिस्ट मोदी सरकार कहती है कि उसने अनावश्यक क़ानून हटाकर मज़दूरों का सशक्तिकरण किया है!! फैक्ट्री क़ानून, 1948; प्लांटेशन लेबर एक्ट, 1951; खनन क़ानून, 1952; कार्यरत पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें एवं अन्य प्रावधान) क़ानून, 1955; कार्यरत पत्रकार (वेतन की दर का निर्धारण) क़ानून, 1958; मोटर परिवहन कर्मचारी क़ानून, 1961; बीड़ी एवं सिगार कर्मचारी (रोजग़ार की दशा) क़ानून, 1966; ठेका मज़दूर (नियमन तथा उन्मूलन) क़ानून, 1970, बिक्री वृद्धि कर्मचारी (सेवा की शर्तें) क़ानून, 1976; अंतर्राज्यीय विस्थापित मज़दूर (रोजग़ार का नियमन तथा कार्य दशा) क़ानून, 1979; फिल्म तथा थिएटर कर्मचारी क़ानून, 1981; बंदरगाह कर्मचारी (सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण) क़ानून, 1986; भवन एवं अन्य निर्माण मज़दुर (रोजग़ार का नियमन तथा सेवा की दशा) क़ानून, 1996.

‘व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं काम करने की स्थिति’ के मामले में हमारा देश, पश्चिमी देशों से तुलना तो छोडिए, सबसे गऱीब एशियाई और अफ्रीकी देशों से भी ख़तरनाक हालत में है. इस सम्बन्ध में कोई भी एहतियात मालिक नहीं बरतते. सीवर टैंक की सफ़ाई करने वाली मशीन क्यों लाएं, जब इन्सानों की मौत को रफा-दफ़ा करने में कम खर्च होता है; सरमाएदारों की यहाँ ये सोच है.

हमारे देश में, सरकारें यूँ तो हमेशा से ही मालिकों द्वारा श्रम क़ायदे पालन करवाने में नाकाम रही हैं, लेकिन, वर्त्तमान फासिस्ट मोदी सरकार ने ‘व्यवसाय करने की सरलता’ के नाम पर मालिकों को खुली छूट दी हुई है. इस विनाशकारी ‘गुजरात मॉडल’ की भयावह असलियत अभी मोरबी में उजागर हुई. 140 से अधिक लोगों की हत्या करने वाली कंपनी ‘ओरेवा’ का नाम एफ़आईआर में है ही नहीं. गिरफ्तार भी मज़दूर ही हुए हैं.

दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं, जहाँ, सीवर में गैस से दम घुटकर, बायलर में जलकर, आग में जलकर, निर्माणाधीन ऊँची इमारतों से गिरकर, ज़मीन में मलबे में दबकर, जाने कितने कारणों से, इतने मज़दूर, हर रोज़, मरते हों. मज़दूरों की मौत की ख़बर अख़बार के पहले पन्ने पर तो तब ही आती है जब कम से कम 50 मज़दूर एक साथ मरे हों, वर्ना तो यह ख़बर ही नहीं बनती. उद्योगपति लुटेरों को, मज़दूरों की जान की जो भी चिंता मौजूदा क़ानूनों के तहत रहती थी; इनके पूरी तरह निरस्त हो जाने पर वह भी नहीं रहेगी. ये श्रम कोड तो मानो मज़दूरों का ‘डेथ वारंट’ है.

मज़दूर इन चारों लेबर कोड को रद्द कराने के लिए लड़ रहे हैं और उन्हें इनके रद्द होने, पुराने क़ानून बहाल होने और मज़दूरों के हित में और नए क़ानून बनने तक लड़ते रहना होगा. ये उनका अधिकार भी है और कर्तव्य भी. दांव पर उनकी जि़न्दगी लगी है.

1) यह कोड उन्हीं प्रतिष्ठानों पर लागू होगा जहाँ 10 से अधिक मज़दूर काम करते हैं. ऐसे सभी प्रतिष्ठानों को राज्य अथवा केंद्र द्वारा गठित ‘कामकाज़ी सुरक्षा बोर्ड’ में 60 दिन के अन्दर पंजीकृत कराना होगा. इस कोड के लागू हो जाने के बाद, सबसे गंभीर बदलाव ये आएगा, कि लेबर अदालतें बंद हो जाएंगी, क्योंकि इस कोड के उल्लंघन का कोई मामला स्थानीय सिविल अदालत में जाएगा ही नहीं. उसके लिए, पीडि़त पक्ष को उच्च न्यायलय में जाना होगा. मज़दूर जो लेबर कोर्ट में ही बा-मुश्किल जा पाते हैं; वे उच्च न्यायालय जा पाएँगे? इस प्रावधान को जोडऩे के पीछे सरकार की मंशा क्या है, समझा जा सकता है. कारखानों में मज़दूरों के काम करने, उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई भी दिशा निर्देश माने या ना माने, ये कारखानेदार की मजऱ्ी पर रहेगा. जो कारखानेदार आग लगने से बचने के लिए आज कोई व्यवस्था नहीं कर रहे जब उसका क़ानून मौजूद है, वे कोड लागू होने के बाद क्या करेंगे, समझना मुश्किल नहीं।

2) देश में महिला सुरक्षा का आलम क्या है, किसी से छिपा नहीं है. वर्त्तमान श्रम कानूनों के मुताबिक, महिला मज़दूरों से शाम 7 बजे से सुबह 6 बजे के बीच काम पर नहीं लगाया जा सकता. इस कोड ने ये बंदिश हटा दी है. महिलाऐं रात की पाली में भी काम पर लगाई जा सकती हैं. कारखाने में किसी सुरक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम का उल्लंघन होने पर मज़दूर लेबर इंस्पेक्टर से शिकायत कर सकता है. पढऩे में ये कथन कितना मासूम लगता है!! हकीक़त क्या है? लेबर इंस्पेक्टर की तादाद पहले से आधी भी नहीं रह गई है, वह कारखाना मालिक की अनुमति के बगैर अन्दर नहीं जा सकता, ऐसे में मज़दूर द्वारा शिकायत मिलते ही, इंस्पेक्टर, उल्लंघनकारी मालिक पर चढ़ाई बोल देगा! ये मासूमियत नहीं, मज़दूरों का क्रूर मज़ाक़ है, उनका मखौल बनाने जैसा है।

3) कार्य स्थल पर कोई भी दुर्घटना होने पर, उसकी जाँच लेबर ‘इंस्पेक्टर-सह-सहायक’ करेगा जो कहीं मिलेगा नहीं!! फऱीदाबाद दफ़्तर में 10 लेबर इंस्पेक्टर होते थे, अब 3 ही रह गए हैं. वैसे भी, ये अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि, इंस्पेक्टर हों तो भी वे मालिकों से ‘उगाही’ ही करते फिरते हैं. इस बदलाव का सबसे घातक दुष्परिणाम ये होगा कि, कार्य स्थल पर कोई दुर्घटना होने पर, किसी के मर जाने पर, उसकी रिपोर्ट पुलिस की जगह ‘इंस्पेक्टर-सह-फैसिलिटेटर’ को दी जाएगी. मतलब वह मामला आपराधिक की जगह सिविल बन जाएगा. मालिक सिफऱ् आपराधिक मुक़दमे, जेल जाने से डरते हैं; सिविल मुक़दमे, हमारे देश में अनंत काल तक खींचे जा सकते हैं. अदालतें, हमेशा,‘अगली तारीख़’ देने के मोड में बैठी होती हैं. ‘अदालत जाओ और अगली तारीख जेब में रखकर लौट जाओ, इसे ही न्याय समझो!!’ हर अदालत में बस ‘अगली तारीखें’ बंट रही होती हैं. मज़दूर को इन्सान ही नहीं समझा जाता, उसकी जान की कोई क़ीमत ही नहीं समझी जाती. ये कोड लागू होने पर मालिक और बिंदास होकर काम करेंगे, मज़दूरों के सिर पर मौत और कऱीब मंडराएगी.

4) ‘काम के घंटे निश्चित होंगे, ओवरटाइम का भुगतान डबल रेट से करना होगा, हर मज़दूर को 20 दिन काम करने के बाद 1 दिन की छुट्टी मिलेगी, काम की शर्तें कारखानेदार को लिखकर दीवार पर लटकानी होंगी, पीने का साफ़ पानी और साफ़ आबो-हवा, साफ़-सुथरा शौचालय सभी मज़दूरों के लिए सुनिश्चित करना होगा, प्राथमिक उपचार की सामग्री निश्चित जगह पर उपलब्ध करानी होगी, आग बुझाने के उपक्रम पर्याप्त मात्रा और उचित दशा में रखने होंगे, कार्य स्थल पर सुरक्षा कमेटियां बनेंगी’; जो कुछ भी पढऩे-सुनने में अच्छा लगता है, इस प्रस्तावित कोड में सब लिखा हुआ है. कोई ये नहीं कह सकता कि शासन तंत्र को ये मालूम नहीं कि क्या होना चाहिए. इनमें से किसी शर्त का पालन हो रहा है या नहीं, ये तब ही जाना जा सकता है, जब सरकारी निरिक्षण यंत्रणा चाक-चौबंद हो. निरिक्षण यंत्रणाके निरिक्षण की भी व्यवस्था हो जिससे ये सिर्फ उगाही का धंधा बनकर ना रह जाए. सारे कारखानेदार जान चुके हैं कि उनके द्वारा किसी भी अपराध पर मोदी सरकार उन्हें जेल नहीं जाने देगी. यही वज़ह है कि ये उपदेश किसी काम के नहीं. इनके क़ानून में लिखे होने की एक ही वज़ह है. मज़दूर इसका विरोध ना करें. कड़वी, ज़हरीली गोली पर, ये गुड़ की परत है जिसकी मिठास में, मज़दूर इसे सटक जाएँ!! शासन तंत्र शातिर है, अनुभवी कुशल ठग की तरह काम करता है. मज़दूर अगर ठगी को नहीं समझे और सरकारी लारे-लप्पे में आते गए तो, सरकार द्वारा उनकी हड्डियाँ तक चिचोडऩे की सुविधा, सरमाएदारों को दे दी जाएगी. सरकार चाहती है कि अवाम चुपचाप धीमी मौत मरता रहे और ख़्वाब देखता रहे, ‘अच्छे दिन ज़रूर आएँगे’, ‘मोदी है तो मुमकिन है’!

5) कोड में बताए गए प्रावधानों का पालन ना करने पर मिलने वाली सज़ा का मामला भी बहुत दिलचस्प है. कंपनी-मालिक की चूक से, अगर मज़दूर की मौत हो जाती है, तब उसे 2 साल की सज़ा या 5 लाख का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. अदालत के आदेश पर, जुर्माने की आधी रक़म मृतक मज़दूर के परिवार को दी जाएगी. ‘अदालत’ का मतलब है ‘उच्च न्यायलय’. सरकार ऐसा ढोंग करती नजऱ आती है, मानो उसे असलियत मालूम नहीं. मृतक मज़दूर की लाश को अपने पैत्रिक स्थान ले जाने के लिए, एम्बुलेंस की व्यवस्था करने के लिए उसी हत्यारे मालिक की मेहरबानी का इंतज़ार कर रहा मृतक का बिलखता परिवार, जुर्माने की आधी रक़म पाने के लिए ‘उच्च न्यायलय’ जाएगा!! इससे ज्यादा बे-गैरती की सोच नहीं हो सकती. इस आदमखोर पूंजीवादी व्यवस्था में, मज़लूमों को हर रोज़ जि़ल्लत झेलनी होती है, मानो उनके कलेजे को हर रोज़ छलनी किया जाता है!! जिस प्रावधान के उल्लंघन के लिए कोई सज़ा लिखी हुई नहीं, उनके लिए 2 से 5 लाख तक के दंड का प्रावधान है. सरकारी ‘भोला-शातिरपना’ हर वाक्य में उभर कर आता है!! क्या ऐसे ढीले-ढाले, लिज-बिजे प्रावधानों से किसी कोसज़ा दी जा सकती है?

हाँ, एक सज़ा ज़रूर लागू होगी. मज़दूर, अगर किसी निर्धारित दिशा-निर्देश का उल्लंघन करता है, तो मालिक की शिकायत पर उसे 10,000 रु जुर्माना देना होगा. हो सकता है, परिवार का पेट भरने वाला मज़दूर मरा पड़ा हो और वह परिवार, मालिक की शिकायत पर जुर्माने की रक़म का बंदोबस्त करता नजऱ आए!! मोदी सरकार की नीयत अगर मालिकों को ये नियम पालन करने को मज़बूर करने की होती, तो वह सदियों के खून पसीने के संघर्षों से अर्जित मज़दूर-अधिकारों को क्यों निरस्त करती, क्यों लेबर इंस्पेक्टर की नियुक्ति बंद करती, क्यों श्रम विभाग व श्रम अदालतों को ठप्प करती, क्यों ये पाबन्दी आयद करती, कि निगरानी करने वाला कोई अधिकारी उद्योगपति की मजऱ्ी के बगैर कारखाने में प्रवेश नहीं कर सकता? काइयांपने को मासूमियत के आवरण से ढकने का असफल प्रयास, मोदीसरकार के हर क़दम में नजऱ आता है. क्या करें?

कोरोना महामारी में, समूचे विपक्ष द्वारा संसद के बहिष्कार के बीच, मोदी सरकार ने 3 कृषि बिल और 44 मज़दूर अधिकारों को निरस्त कर 4 लेबर कोड और 1 बिजली बिल पास किए थे. कृषि बिल तुरंत लागू हुए लेकिन किसानों ने एक शानदार आन्दोलन के बल पर उन कानूनों को निरस्त करा दिया. अहंकारी मोदी सरकार, अभी तक लेबर कोड क़ानून को लागू नहीं करा पाई है. इन क़ानूनों के लागू होने का परिणाम, मज़दूरों पर असहनीय अन्याय के रूप में होगा, जिसके परिणामस्वरूप तीखा मज़दूर आन्दोलन छिड़ेगा.

किसान आन्दोलन 13 महीने चला लेकिन उससे देश के सरमाएदारों का कोई नुकसान नहीं हुआ. मज़दूर एक दिन भी काम बंद कर देते हैं तो मालिक सरमाएदार हाँफने लगते हैं, क्योंकि उनका मुनाफ़ा मज़दूर की श्रम शक्ति की चोरी से ही आता है. मुनाफ़ा मालिक की तिज़ोरियों में बहना बंद होते ही लुटेरे पूंजीपतियों की धमनियों में रक्त बहना बंद हो जाता है.
श्रम विभाग समवर्ती सूची में आता है. लेबर कोड को लागू करने के लिए राज्यों को भी नियमावलियां बनानी पड़ेंगी. कई राज्य इसके लिए तैयार नहीं. 28 अगस्त को तिरुपति में एक मीटिंग हुई थी, जिसमें सभी राज्यों के श्रम मंत्री व श्रम सचिवों ने भाग लिया था. उस मीटिंग में मोदी ये कठिनाई और उसके समाधान का रास्ता भी बता चुके हैं. आगामी शीत कालीन सत्र में, मोदी सरकार लेबर कोड ड्राफ्ट में ‘उपयुक्त सरकार’ (मतलब केंद्र और राज्य सरकार) को बदलकर ‘केंद्र सरकार’ करने की योजना बना रही है, जिससे सारा काम केंद्र सरकार ही निबटा सके. ये बात अब स्पष्ट होती जा रही है कि देश के सबसे बड़े कॉर्पोरेट मगरमच्छ इसलिए भाजपा सरकार के लिए अपनी तिजोरियों खोल दे रहे हैं, हर राज्य में सांसदों-विधायकों की मंडी लगी हुई है, क्योंकि उन्हें खेती-किसानी का देश का सारा बाज़ार मिलने की उम्मीद थी. इस योजना को किसान, अपने प्राणों की बलि देकर नाकाम कर चुके हैं. मोदी सरकार से उन्हें दूसरी उम्मीद मज़दूरों के लिए ‘हायर एंड फायर’ अधिकार पाने की है. ये स्कीम भी फेल हो गई, तो टी वी चेनलों पर सतत चल रहा सरकारी कीर्तन बंद पड़ जाएगा. मोदी सरकार को भी, मनमोहन सरकार की तरह, लकवाग्रस्त बताया जाने लगेगा.

मोदी सरकार अपना ‘धर्म’ निभा रही है. मज़दूरों को अपना फज़ऱ् निभाना है. ‘मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा)’ के झंडे के नीचे,18 मज़दूर संगठन संयुक्त संघर्ष चला रहे हैं. आगामी 13 नवम्बर को दिल्ली में रामलीला मैदान से राष्ट्रपति भवन तक मज़दूरों का ‘आक्रोश मार्च’ होने जा रहा है, जिसे मज़दूरों ने निश्चित रूप से क़ामयाब बनाना चाहिए. इतना, लेकिन, काफ़ी नहीं है. देश की बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इसमें शामिल नहीं हैं. साथ ही कुल मज़दूरों का 93त्न भाग असंगठित मज़दूरों का है, जिन्हें इस संघर्ष में शामिल किए बगैर मज़दूरों की यह लड़ाई अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सकती. मज़दूरों के इस विशाल हिस्से को, जो सबसे ज्यादा शोषित-उत्पीडित है, संगठित कर मज़दूर तहरीक में शामिल करने की चुनौती, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं और मज़दूर नेताओं को स्वीकार करनी पड़ेगी. ये सफलता की पूर्व शर्त है. एक बहुत सुखद पहलू ये है, कि किसान नेता ये सच्चाई जान चुके हैं कि मज़दूरों को साथ लिए बगैर उनकी मुक्ति भी संभव नहीं. किसान और मज़दूर, खास तौर पर असंगठित मज़दूर, जिस दिन एक साथ ललकारेंगे, उसी दिन, शोषण-उत्पीडऩ का स्रोत, ये तंत्र दहल जाएगा. शोषित- पीडि़त वर्ग ने कई बार इतिहास गढ़ा है. मौजूदा काल-खंड बिलकुल वैसी ही चुनौती प्रस्तुत कर रहा है.

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Mazdoor Morcha
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