सत्यवीर सिंह सुभाष अपने बूढ़े पिताजी के साथ, फऱीदाबाद की एक उच्च मध्यम वर्गीय रिहाइशी कॉलोनी में, सडक़ के किनारे ठेला लगाकर, कपड़े स्त्री करते हैं. दिनांक 6 नवम्बर को, आज़ाद नगर, सेक्टर 24 के सामुदायिक भवन में ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फऱीदाबाद द्वारा, महान रुसी समाजवादी क्रांति की याद में आयोजित सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा: “कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हमें बिना वज़ह ‘बड़े लोगों’ की फटकार नहीं सुननी पड़ती. ग़लती कोठी वालों की क्यों ना हो, फटकार हमें ही सुननी पड़ती है. जब हम उन्हें समझा देते हैं कि ये कपड़ा हमने गन्दा नहीं किया, तब भी, वे लोग अपनी ग़लती मानने की बजाए, हमें ही फटकार कर जाते हैं; ठीक है- ठीक है ज्यादा जुबान मत लड़ा’. कई बार मुझे, उसी जुबान में जवाब देने का दिल होता है, लेकिन आँखों में आंसू आ जाते हैं, जब पिताजी समझाते हैं, बेटा हम गऱीब लोग हैं. हमें अपनी जुबान बंद रखनी होती है. गुस्सा दिखाया तो ये हमें यहाँ ठेला भी नहीं लगाने देंगे.”
एक और युवा साथी, विनोद ने, मज़दूरों की हत्यारी ‘ठेका प्रथा’ के बारे में अपने अनुभव साझा किए. “मज़दूर चौक पर ख़ाली खड़ा रहने की बजाए, अपने परिवार वालों का पेट भरने के लिए, मज़दूर, किसी भी दाम पर, काम करने को तैयार हो जाता है, लेकिन ठेकेदार मज़दूरी तय कर, हाँ बोलने के बाद भी, दूसरे मज़दूर के पास जाकर सौदा करने लगता है. वह, दरअसल, आधी मज़दूरी भी नहीं देना चाहता. पास खड़ा दूसरा मज़दूर, जो उसका साथी ही है, और ठेकेदार से हुई उसकी बात सुन रहा होता है, उससे भी कम पैसों में काम करने को हाँ बोल देता है. एक पल को भी ये नहीं सोचता कि उसके साथी का चूल्हा कैसे जलेगा? उसे ऐसा नहीं करना चाहिए. लेकिन क्या करें, चौक के मज़दूरों की यूनियन नहीं है? होनी तो चाहिए. ठेकेदारी प्रथा किसने बनाई है? बड़ी ही ज़ालिम व्यवस्था है ये. इसको ख़त्म कर डालना चाहिए. दिन भर काम करो फिर भी काम नहीं चलता.”
मूल रूप से केरल निवासी, लेकिन 1981 से कुष्ट रोगियों की बस्ती गाँधी कॉलोनी में रह रहे, सेक्टर 21, बडख़ल क्षेत्र के पल-पल विकास के गवाह, के जी मैथ्यू ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में मोदी सरकार की बहु-प्रचारित योजना ‘बेटी पढाओ-बेटी बचाओ’ की असलियत खोल कर रख दी. “बच्चियों की सुरक्षा और उनकी शिक्षा के लिए एक भी योजना मोदी सरकार ने लागू की हो, मुझे याद नहीं आ रहा. किसी को मालूम है तो प्लीज़ मुझे बताए. मैं जानना चाहता हूँ. आप लोग मज़दूर हैं लेकिन फिर भी मैं कहूँगा कितने भी गरीब क्यों ना हों, अपनी बच्चियों को ज़रूर पढ़ाना. बेटियों की पढाई बेटों से भी ज्यादा ज़रूरी है. मैं भाषण नहीं देता. क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के लोग, हमारी बस्ती के बारे में जानने को आए, कुष्ट रोगियों की दर्दभरी कहानी सुनी, मुझसे दो बार मिले. इसलिए मैं आज सन्डे की अपनी प्रेयर ख़त्म कर, तुरंत आप लोगों से मिलने आया.” ये बताना यहाँ बहुत ज़रूरी है, कि मैथ्यू सर, चर्च में पादरी हैं लेकिन उनसे पहली मुलाक़ात बी के अस्पताल के शव गृह (mortuary) के बाहर खड़ी आक्रोशित भीड़ में उस दिन हुई थी, जिस दिन वहां फऱीदाबाद के क्यूआरजी अस्पताल के सीवर टैंक में, दम घुटकर मरे 4 मज़दूरों के शव पोस्ट मार्टम के लिए रखे हुए थे और उनके परिवार वालों की चीखें कलेजा चीर रही थीं. उनका वहां उपस्थित होना, उनकी संवेदनशीलता, उनका सामाजिक सरोकार रेखांकित करता है.
फऱीदाबाद और दिल्ली में, शोषण-अन्याय और जातिगत दमन-उत्पीडन के विरुद्ध होने वाले किसी भी जन- आन्दोलन में हमेशा नजऱ आने वाले, और बिना लाग-लपेट अपने विचार बेख़ौफ़ रखने वाले, क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद के उपाध्यक्ष, कॉमरेड रामफल जांगड़ा ने अपना वक्तव्य, दो बिन्दुओं पर केन्द्रित रखा. पहला; मज़दूरों और मज़दूर संगठनों की एकता और दूसरा, कोई भी सभा, ‘एक ही तरफ़ का रास्ता (one way traffic)’ नहीं होना चाहिए. “एक तरफ़ कुछ लोग भाषण देंगे और दूसरी तरफ़ सिफऱ् सुनने वाली भीड़. ये बात मुझे मंज़ूर नहीं है. सब को बोलना है. भाषण नहीं, अपनी बात कहो, जैसे अपने साथी मज़दूरों से करते हो. वही बात असली बात होती है. अगर कोई जि़द करके बैठा है कि नहीं बोलूँगा, उसे भी कोई ना कोई सवाल ज़रुर पूछना है, जो इस वक़्त उसके ज़हन में हैं.” उनके जोर देने के बाद ही सुभाष व रवि ने अपनी बातें रखीं, जो इस सभा के सबसे महत्वपूर्ण भाषण बने. साथ ही कई लोगों ने अपने सवाल भी रखे. मज़दूर तहरीक़ में एकता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए, उन्होंने कहा कि जब आज़ाद नगर की गुडिया पर हुए ज़ुल्म के खि़लाफ़ आन्दोलन चरम पर था, उसी वक़्त कुछ लोगों ने उन लोगों के साथ मिलकर एक ‘संयुक्त समिति’ बनाई, जो दिल से मज़दूर आन्दोलन के साथ नहीं थे. उसी से आन्दोलन कमज़ोर हुआ. कहाँ गई अब वह ‘संयुक्त समिति’? किसी को उस समिति के नाम भी मालूम हैं क्या?
क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के अध्यक्ष कॉमरेड नरेश ने अपने ज़ोरदार वक्तव्य में बताया, कि 7 नवम्बर (तत्कालीन रुसी कैलेंडर के हिसाब से 25 अक्तूबर) 1917 इतिहास में एक ख़ास महत्त्व रखता है. अपने महान नेता, कॉमरेड लेनिन के नेतृत्व में रूस के मज़दूरों और मेहनतक़श मज़दूरों ने, उस दिन वह कर दिखाया था, जिसे समझाने में सर्वहारा के महान नेता, कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स ने अपना जीवन न्यौछावर किया था. जैसा कि प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रकार, जॉन रीड ने अपनी कालजयी पुस्तक में लिखा है, उन दस दिनों में सचमुच दुनिया हिल उठी थी. मज़दूर सत्ता हांसिल कर सकते हैं, सारी दुनिया की घेराबंदी के बावजूद उसे महफूज़ रख सकते हैं, दुनिया यकीन नहीं कर पा रही थी. 7 नवम्बर मज़दूरों का सबसे बड़ा त्योहार है, यही है हमारी ‘होली-दीवाली-ईद और क्रिसमस’.
हमारा गौरवशाली इतिहास हमें बार-बार पढऩा चाहिए. उससे सीखना चाहिए जिससे हम अपनी अठन्नी-चवन्नी की ज़द्दोज़हद से ऊपर उठकर, अपनी असल मुक्ति का रास्ता और सही रणनीति ढूंढ सकें. सारा निर्माण, सारा उत्पादन मज़दूर और मेहनतक़श किसान करते हैं, और वे ही आज सबसे कठिन जीवन जीने को मज़बूर हैं. दूसरी तरफ़ मु_ीभर थैलीशाह दौलतों के पहाड़ों पर बैठे हैं. ये स्थिति अब और नहीं चलने वाली. क्रांतियों को रोका नहीं जा सकता. ये पूंजीवादी व्यवस्था भुखमरी और बेरोजग़ारी के सिवा कुछ नहीं दे सकती. आज़ाद नगर आन्दोलन के हर कार्यक्रम में अपनी सक्रीय उपस्थिति दजऱ् कराने वाले, साथी बाबूलाल जी ने दो अहम सवाल किए थे; ‘रूस में समाजवादी राज क़ायम होने के इतने साल बाद भी, पूंजीवाद कैसे पुनर्स्थापित हो गया और सारा उत्पादन मज़दूर ही करते हैं, सारे उत्पादन के मालिक मज़दूर ही हैं; आप लोग ऐसा कैसे कह सकते हैं, मालिक कच्चा माल लाता है, मशीनें लगाता है, अपनी पूंजी लगाता है?’ कॉमरेड सत्यवीर सिंह ने अपने वक्तव्य में संक्षेप में इन सवालों का जवाब देने का प्रयास किया. अभी तक जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं; दास प्रभुओं के विरुद्ध दास वर्ग का विद्रोह अथवा सामंतों के खि़लाफ़ किसानों की बग़ावत, उनमें, समाज के एक कि़स्म के अल्पसंख्यक लुटेरों की जगह, दूसरी कि़स्म के अल्पसंख्यक लुटेरों ने सत्ता संभाली है. सत्ता से खदेड़े गए लुटेरों को, सत्ता में प्रस्थापित हुए लुटेरों में रूपांतरित होने का अवसर, हर बार मिला. इसीलिए वर्ग संघर्ष भी इतना तीखा नहीं हुआ. पूंजीवाद को ध्वस्त कर, सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता हांसिल करने के लिए जो क्रांतिकारी संघर्ष होगा, वह पहली ऐसी क्रांति होगी, जिसमें बहुसंख्यक सर्वहारा वर्ग, मेहनतक़श किसान वर्ग के साथ सत्ता संभालेगा. साथ ही, सरमाएदार लुटेरों को उनका ‘साम्राज्य’ बचाने, छुपाने का कोई अवसर नहीं मिलेगा.
मुकेश अम्बानी हो या गौतम अडानी; रोटी खानी है तो फैक्ट्री के गेट पर, ट्रेड यूनियन प्रतिनिधि के सामने काम के लिए रिपोर्ट करना होगा, भले उस फैक्ट्री के मालिक वे ख़ुद भी क्यों ना रहे हों. उनके ज़हन से उनके ‘लूट के पहाड़’ आसानी से नहीं जाते. मध्यम वर्ग की भी, समाजवादी सत्ता के विरुद्ध षडयंत्रकारी गतिविधियों में शामिल होने की उपजाऊ ज़मीन बहुत दिनों तक बनी रहती है. कई रंग-ढंग के ‘ख्रुश्चेव और देंग’ काफ़ी दिनों तक ‘मज़दूर’ और क्रांतिकारी होने का दिखावा करते रहते हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में ऊपर खिसकते रहते हैं. जहाँ तक दूसरे सवाल; सारे उत्पादन पर मज़दूरों के मालिकाने का सवाल है, कच्चा माल भी या तो क़ुदरत का दिया हुआ है, या फिर वह मज़दूरों-किसानों की श्रम शक्ति से ही पैदा होता है. मशीनों को भी, किसी दूसरे कारखाने में, मज़दूर ही बनाते हैं. ‘पूंजी’ क्या है? मज़दूरों के श्रम का वह हिस्सा, जिसे मालिक ने हड़प लिया, जिसका भुगतान मज़दूरों को नहीं हुआ. इसीलिए, फैज़ अहमद फैज़ के शब्दों में, “ये सारा माल हमारा है, हम सारी दुनिया मांगेंगे”.
सभा के बाद, आज़ाद नगर बस्ती में, ज़ोरदार नारे लगाते हुए मज़दूरों का जुलूस भी निकला. महान रुसी समाजवादी क्रांति को याद करने के साथ ही, सभा का मक़सद, मासा के आह्वान पर आगामी 13 नवम्बर को होने जा रही, ‘आक्रोश रैली’ के प्रति अपनी एकजुटता/ सॉलिडेरिटी रेखांकित करना भी था. इसलिए प्रमुख नारे थे- लेबर कोड रद्द करो, मज़दूरों के अधिकारों पर हमला नहीं सहेंगे, न्यूनतम दिहाड़ी 1,000/ रु देनी होगी, न्यूनतम मासिक वेतन 27,000/ रु देना होगा, मज़दूरों की हत्यारी ठेका प्रथा रद्द करो, महान रुसी क्रांति अमर रहे, सर्वहारा के महान नेता कॉमरेड लेनिन को लाल सलाम, इंक़लाब जिंदाबाद, पूंजीवाद- साम्राज्यवाद- फासीवाद हो बर्बाद.
सबसे अंत में लखानी के पीडि़त मज़दूरों की एक सभा हुई. सभा में, उनके जो भी भुगतान लेने बाक़ी हैं, उनका दावा दाखिल करने के फॉर्म बांटे गए, कैसे भरना है यह बताया गया, ताकि 14 नवम्बर की अगली तारीख पर श्रम कार्यालय में जमा किया जा सके. मज़दूरों का जो भी हिसाब ‘लखानी फुटवेयर प्रा लि’ से होना बाक़ी है, किसी भी मद में मज़दूरों का जो भी पैसा लेना बनता है, उसे हांसिल करने का संघर्ष, उसके अंजाम तक पहुँचने तक, ज़ारी रखने के दृढ निश्चय के साथ मज़दूर सभा संपन्न हुई.