शिक्षा का बेड़ा गरक न होने देना, हमारी जि़म्मेदारी है

शिक्षा का बेड़ा गरक न होने देना, हमारी जि़म्मेदारी है
October 18 02:21 2022

सत्यवीर सिंह
बाक़ी मामलों की ही तरह, देश में शिक्षा का सत्यानाश करने की शुरुआत 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से नहीं हुई. इसकी शुरुआत तो, कांग्रेस के शासन काल में, 1991 में ही हो गई थी. जब देश के पूंजीवादी ‘विकास’ की तत्कालीन ज़रूरत के अनुसार, ढोल-ढमाकों से ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की देश-व्यापी लहर पैदा की गई थी, जिसे देश की सभी बीमारियों की राम-बाण बूटी बताया गया था. भाड़े के बुद्धिजीवियों ने जिसके क़सीदे पढ़ते हुए लम्बे-लम्बे लेख लिखे थे, कि इससे देश में गऱीबी मिट जाएगी, चहुँ ओर खुशहाली फ़ैल जाएगी, असली आज़ादी तो अब आएगी!! टुकडख़ोर मीडिया, दिन-रात कीर्तन में जुट गया था. पहले से बीमार पूंजीवाद, 1991 के इंजेक्शन से भी पहलवान नहीं बना. बल्कि, कंगाली और भुखमरी हर ओर पसर गई. उसके बाद, पूंजीवादी संकट की 2008 की तबाही और ज्यादा भयानक थी. चूँकि, पूंजी का वैश्वीकरण हो चुका था, संकट भी घनघोर रूप से विश्वव्यापी बन गया.

देश के शासक वर्ग, मतलब अडानी-अम्बानियों, टाटा- बिड़लाओं ने, अपनी ताबेदार सरकार से देश के हर क्षेत्र को उन्हें लूटने की स्वच्छंद छूट देने की मांग की. पूंजीवाद में सरकार किसी भी पार्टी की हो, उनका झंडा किसी भी रंग और डिजाईन का हो, होती वे कॉर्पोरेट की मैनेजमेंट कमेटियां ही हैं. हुक्म की तामील करते हुए, कांग्रेस की सरकार, 2009 में ‘शिक्षा के अधिकार का क़ानून, लेकर आई. ‘शिक्षा के अधिकार का क़ानून’; पढक़र लगेगा, मानो देश के गऱीब बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने की बात होगी, लेकिन उसका असल मक़सद इसके ठीक उलट था: शिक्षा की दुकानें खोले बैठे सरमाएदारों को मनमाने ढंग से फ़ीस बढ़ाने की छूट देना, शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देना, शिक्षा को बाज़ार या उद्योग बना डालना, शिक्षा में असमानता, मतलब, जितना जेब में पैसा वैसी शिक्षा, स्कूल आर्थिक कठिनाई में आ जाएँ उन्हें बंद कर देने का प्रावधान, सरकारी मदद कम करते जाना, शिक्षा का उद्देश्य मानव विकास ना होकर, जैसे-तैसे गुजारे का ज़रिया बना डालना. ‘विश्व व्यापार संगठन (WTO)’ की शर्तों के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र को देश की पूंजी के लिए ही नहीं, बल्कि विदेशी पूंजी के लिए भी खोल देना. ‘शिक्षा का अधिकार, 2009’ क़ानून ने शिक्षा जगत को झकझोर दिया.

शिक्षा के भविष्य, मतलब समाज के भविष्य के प्रति गंभीर चिंता का ही नतीज़ा था कि देश के जाने-माने और दृढ सामाजिक सरोकार रखने वाले शिक्षाविदों ने इस विषय पर एक सम्मलेन करने का फैसला किया. ‘शिक्षा हो सबका मूल अधिकार तथा राष्ट्रपति से चपरासी तक सभी के बच्चों को केजी से पीजी तक समान व निशुल्क शिक्षा’ लागू कराने के उद्देश्य से, देश के प्रतिष्ठित शिक्षाविदों का दो-दिवसीय सम्मलेन हैदराबाद के ओस्मानिया विश्वविद्यालय में, 21 व 22 जून 2009 को सम्पन्न हुआ था.

उस मंथन से, ‘अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’, (All India Forum for Right To Education. ‘AIFRTE’) नाम की एक संस्था वज़ूद में आई. आज देश के 22 राज्यों में इस मंच की शाखाएँ अपने मिशन में लगी हुई हैं. छात्रों, अध्यापकों, ट्रेड यूनियनों, मानवाधिकारों के 100 से भी अधिक संगठन इससे जुड़े हुए हैं. एआईएफआरटीई के तीन आधारभूत सिद्धांत हैं.

1) शिक्षा; व्यापार, निजी अथवा विदेशी निवेश द्वारा मुनाफ़ा कूटने का क्षेत्र नहीं है.

2) देश के सभी छात्रों को शुरू से अंत तक, निशुल्क एवं एक समान शिक्षा, मतलब राष्ट्रपति हो या चपरासी, मालिक हो या मज़दूर, सबके लिए ‘केजी से पीजी तक’ एक जैसी शिक्षा की व्यवस्था करना, सरकार की संवैधानिक जि़म्मेदारी है.

3) शिक्षा का उद्देश्य है; जनवादी, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी समाज बनाना जो विविधताओं, विभिन्नताओं और बराबरी की बुनियाद पर खड़ा हो.

आर्थिक संकट पूंजीवाद को उसकी क़ब्र में धकेलता गया जिसे मौत से बचाने के लिए, कांग्रेस ने सभी क्षेत्रों में घोर जन-विरोधी और नंगे तौर पर कॉर्पोरेट परस्त नीतियाँ लागू कीं, लेकिन, इज़ारेदार बड़े कॉर्पोरेट मगरमच्छ, जो पूंजी के पहाड़ पर बैठे थे, उसकी गति से संतुष्ट नहीं हुए. वे चाहते थे कि सारे नियम-कायदों, मज़दूर कानूनों, संवैधानिक अधिकारों को पैरों तले कुचलकर, देश के सारे संसाधनों को उन्हें तुरंत निगलने दिया जाए. शिक्षा हो या कृषि, सारा देश उनके शिकार के लिए खुला छोड़ दिया जाए. पूंजीवाद-साम्राज्यवाद ने, अब, फासीवादी रास्ते को चुन लिया था. मीडिया शोर मचाने लगा, नीतिगत पक्षाघात (policy paralysis) की वज़ह से ‘विकास’ रुक गया है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को, जो उस वक्त तक कॉर्पोरेट के लाडले थे, क्योंकि उनके वित्त मंत्री रहते हुए ‘नवउदारवादी’ लूट के युग का सूत्रपात हुआ था, अब ‘मनमौन सिंह’ लिखा जाने लगा, उन्हें कमजोर बताया जाने लगा. ‘महाभ्रश्टाचार’ के किस्से महालेखाकार की ओर से आने लगे. अन्ना हजारे एकदम नाटकीय अंदाज़ में प्रकट हुए और रातोंरात हीरो बन गए. ‘डायनामिक लीडर’ की तलाश शुरू हुई. ‘गुजरात मॉडल’ को लोकप्रिय बनाया गया और 2014 में देश को ‘डायनामिक लीडर’ के रूप में मोदी जी प्राप्त हुए. मोदी सरकार ने, अपने अजेंडे के अनुसार, किसान, मज़दूर के साथ ही शिक्षा को भी निशाने पर लिया और ‘नई शिक्षा नीति, 2020’ संसद से मंज़ूर हुई. शिक्षा के व्यवसायिकरण, निजीकरण का सफऱ जो ‘शिक्षा के अधिकार, 2009’ से शुरू हुआ था ‘नई शिक्षा नीति, 2020’ से टॉप गियर में दौडऩे लगा. शिक्षा के व्यवसायिकरण व निजीकरण के साथ, अब भगवाकरण भी जुड़ गया. मोदी सरकार, चूँकि, ‘डायनामिक’ है, इसलिए उसकी गति कांग्रेस सरकार से भिन्न है!!

जुझारू शिक्षा आन्दोलन खड़ा करने के लिए राष्ट्र स्तरीय चर्चा शिक्षा के मूल तत्वों को बचाने के लिए प्रतिबद्ध, देश के प्रतिष्ठित शिक्षाविदों को फिर से एक राष्ट्रस्तरीय की चर्चा करने की ज़रूरत महसूस हुई, और 30 सितम्बर से 01 अक्टूबर को, कॉमरेड सुरजीत भवन, कॉमरेड इन्द्रजीत गुप्ता मार्ग, नई दिल्ली में दो दिवसीय चर्चा सम्मलेन संपन्न हुआ, जिसमें कुल 60 संगठनों को आमंत्रित किया गया था जिनमें ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद’ भी शामिल था. ्रढ्ढस्नक्रञ्जश्व के चेयरमैन प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह, सांगठनिक मंत्री प्रो विकास गुप्ता, प्रो राजगोपाल, डॉ गंगाधर, प्रो मधु प्रसाद, प्रो चंद्रधर राव, प्रो राममूर्ति, असम से आईं प्रो इन्द्राणी, मध्य प्रदेश के आदिवासियों में कार्यरत श्रीमती माधुरी जी के आलावा देश भर से आए लगभग 60 प्रतिनिधियों ने, इस दो दिवसीय गहन चर्चा में खुलकर भाग लिया. पहले दिन, प्रत्येक डेलिगेट को 8 मिनट में ही अपनी बात रखनी थी. विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने शिक्षा आन्दोलन के समक्ष जिन प्रमुख चुनौतियों को रखा, वे इस तरह हैं.

शिक्षा का व्यवसायीकरण, भगवाकरण, केन्द्रीकरण (सारे फैसले केंद्र ही लेगा), सरकारी स्कूलों का लगातार बंद अथवा विलय करना, शिक्षकों की भर्ती ना करना और अगर करनी ही पड़े तो ठेके पर करना, शिक्षा के पाठ्यक्रम को क्रमबद्ध तरीक़े से विकृत करना, तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक एवं धर्मनिरपेक्ष विचार व दृष्टिकोण पैदा करने वाले अध्यायों की जगह मनगढ़ंत, तर्कहीन, अंध विश्वास पर आधारित विचार लाकर बच्चों की कोमल मानसिकता को विकृत करना, इतिहास के मूल तत्व को विषाक्त कर कपोलकल्पित गपोड़ों को इतिहास बताते हुए, प्राचीन भारत के एक विशिष्ट काल को ज़बरदस्ती ‘स्वर्णिम युग’ घोषित करना, महान क्रांतिकारियों को भी किसी विशिष्ट धर्म से जोडऩे की हिमाक़त करना, इतिहास को इस तरह प्रस्तुत करना जिससे अल्पसंख्यकों के प्रति क्रोध और नफऱत पैदा हो, ‘गौ विज्ञान, गोबर विज्ञान, गोमूत्र उपचार पद्धति, वैदिक गणित, कर्मकांड में डिप्लोमा आदि’ बेहूदगियों को वैज्ञानिक बताते हुए प्रचारित करना और शोध के नाम पर इन्हीं विषयों को सरकारी कोष उपलब्ध कराना, किसी भी वैज्ञानिक शोध के लिए छात्रवृत्ति के लिए कोई भी पैसा ना देना, कोलकता से आए छात्र प्रतिनिधि ने बताया कि कैसे पीएचडी कर रहा एक छात्र छात्रवृत्ति की मदद ना मिलने के कारण आत्म हत्या को मज़बूर हुआ, जबकि ‘गौ विज्ञान’ के प्रसार के लिए 21 करोड़ रुपये की मदद विश्वविद्यालय कोष में पड़ी हुई है, शिक्षा की सभी मदों, जैसे ट्यूशन फीस, परीक्षा फीस, हॉस्टल फीस आदि को इतना बढ़ा देना कि देश के 80 प्रतिशत आम गऱीब किसान-मज़दूरों के बच्चे शिक्षा संस्थानों में जाने लायक ही ना बचें,

शिक्षा से सम्बद्ध सभी पदों पर, नियम-आधारित चयन तथा पदोन्नति प्रक्रियाओं को दरकिनार कर, सत्तारूढ़ भाजपा समर्थकों-पदाधिकारियों और विशुद्द्ध संघी प्रचारकों को नियुक्त करना, शिक्षा समवर्ती सूचि में होने के बावजूद, सारे फैसले केंद्र सरकार के आधीन करते जाना और संघीय ढांचे की बुनियाद को ही खोखला कर डालना, देश ने भाषा के सवाल पर विघटनकारी हिंसक आन्दोलन झेले हैं,

इस तथ्य को नजऱंदाज़ कर ग़ैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी थोपने सम्बन्धी बयान ज़ारी करना जिससे विघटनकारी आन्दोलन चलाने वालों को प्रोत्साहन मिले, व्यवसायिक शिक्षा के नाम पर बढईगिरी, प्लंबरी आदि में उलझाकर आम-गऱीब बच्चों को शिक्षा द्वारा अपने व्यक्तित्व को विकसित करने के अवसर से ही महरूम कर डालना, ऑनलाइन-डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देना, भले देश के आम लोगों के बच्चे, सुविधा ना होने के कारण शिक्षा से बाहर ही क्यों ना हो जाएँ , जिनके सामने खुद को उद्योगों के लिए सस्ते श्रम के रूप में प्रस्तुत करने के सिवा कोई विकल्प ही ना बचे, विश्वविद्यालयों में मुक्त वैचारिक डिबेट करने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ घोषित कर, दमनचक्र चलाना, विश्वविद्यालीय वातावरण को विषाक्त करना, नई शिक्षा नीति 2020 को ज़बरदस्ती थोपना, जबकि कोरोना काल में लाई गई इस जन-विरोधी नीति पर देश में कोई बहस हुई ही नहीं है, आदि.

हरियाणा में शिक्षा का हाल

‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद’ के आलावा ‘परिवर्तनकामी छात्र संगठन’,‘छात्र एकता मंच, हरियाणा’ तथा ‘प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स फ्रंट, हरियाणा’ ने भी सम्मलेन में प्रतिनिधित्व किया. हरियाणा के लोग ‘डबल इंजन’ की सरकार झेल रहे हैं, इसलिए यहाँ भाजपा-संघ का शिक्षा अजेंडा भी टॉप गियर में है. हरियाणा में अध्यापकों के 38,000 पद रिक्त हैं.
उन्हें भरने की बजाए हरियाणा सरकार ने अध्यापकों के 20,000 पदों को ही समाप्त कर दिया गया. पिछले एक साल में, प्रदेश में 301 प्राइमरी स्कूल बंद कर दिए गए हैं. 19 अगस्त को, एक ही दिन में 105 स्कूल बंद कर दिए गए. बड़े पैमाने पर स्कूलों को बंद करने या दूसरे में मिला देने की सरकारी योजना है, जिसके लिए ये तर्क दिया जा रहा है कि इन सरकारी स्कूलों में पर्याप्त छात्र नहीं है. इस झूठ की पोल तो ख़ुद हरियाणा सरकार के पिछले साल के आंकड़े ही खोल देते हैं.

कोरोना काल में, बड़े पैमाने पर मज़दूर बेरोजग़ार हुए और जो बे-रोजग़ारी से बच भी गए, उनके भी वेतन में बहुत कटौतियां हुईं . मध्यम वर्ग के लगभग 2 लाख लोग, अपने लाड़लों को मंहगे निजी स्कूलों से निकालकर, सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाने को मज़बूर हुए. निजी शिक्षा संस्थान, जो या तो खुद राजनीतिक नेताओं के ही होते हैं, या राजनीतिक रसूखदार लोगों के होते हैं, इन बच्चों से कोरोना काल की पूरी फ़ीस ऐंठने के चक्कर में, टीसी ज़ारी नहीं कर रहे थे. तब, हरियाणा के शिक्षण विभाग ने एक आदेश ज़ारी किया था, कि अर्जी देने के 15 दिन में अगर कोई निजी स्कूल ट्रान्सफर सर्टिफिकेट ज़ारी नहीं करता, तो उसे ज़ारी किया हुआ ही माना जाएगा. उस अर्जी  की कॉपी ही टीसी का काम करेगी. इस आदेश के बाद निजी स्कूलों के मालिकों की रसूखदार एसोसिएशन चंडीगढ़ उच्च नयायालय से स्थगन आदेश ले लाई और सरकार ने वह आदेश वापस ले लिया. सैकड़ों संस्थानों को ‘विश्वविद्यालय’ का दर्जा  देकर उन्हें मनमानी फ़ीस बढ़ाने तथा अध्यापकों के वेतन को घटाने की छूट दी जा रही है. विश्वविद्यालयों को सरकारी ग्रांट की जगह, कर्ज  लेने को बाध्य किया जा रहा है, जिसकी ब्याज सहित वसूली छात्रों से ही की जाएगी.

रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय को हाल में ऐसा ही मोटा-तगड़ा लोन मंज़ूर हुआ है. ज़ाहिर है कि फ़ीस जो पहले ही दस गुना तक बढ़ गई है, आगे और भी तूफानी गति से बढ़ेगी जिसके परिणामस्वरूप मज़दूर वर्ग की तो छोडिए, वह तो पहले ही अपने बच्चों को शिक्षा दे पाने लायक नहीं बचा, उच्च मध्यम वर्ग भी अपने लाड़लों को इंजिनियर या डॉक्टर बनाने लायक नहीं बचेगा. पाठ्यक्रम में हर स्तर पर ‘गीता ज्ञान’, ‘गौ ज्ञान’ देने की मुहिम जोर-शोर से चलाई जा रही है. कुरुक्षेत्र के पास गाँव में स्थित ‘अमतिर कन्या गुरुकुल’ हायर सेकेंडरी स्कूल में, एक अध्यापिका को सुबह 7 बजे स्कूल में रोजाना होने वाले यज्ञ में आने को मज़बूर किया गया. बच्ची छोटी होने के कारण तथा इस कर्मकांड में विश्वास ना होने की वज़ह से यज्ञ में शरीक ना हो पाने के कारण, उन्हें वेतन दिए बगैर ही नोकरी से निकाल दिया गया.

स्कूल प्रबंधन को सरकार और आरएसएस का आश्रय होने के कारण उनकी किसी भी शिकायत का कोई परिणाम नहीं हुआ. क्रांतिकारी विचारों से हरियाणा सरकार को इतनी दिक्कत है कि फरीदाबाद में ‘शहीद भगतसिंह स्मारक’ को तोड़ कर उसे ‘विस्थापन विभीषिका स्मारक’ में बदल दिया गया तथा अमर शहीद क्रांतिकारियों को विस्थापन विभीषिका से जोडऩे का दुस्साहस किया गया. हरियाणा के सभी संगठनों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर इन सभी जन-विरोधी मुद्दों पर जन-आन्दोलन चलाने का फैसला किया. शिक्षा आन्दोलन को देशव्यापी सशक्त आन्दोलन कैसे बनाया जाए?

1) शिक्षा पर भाजपा सरकार द्वारा बोला गया हमला चौतरफ़ा है, और इसकी तीव्रता दिनोंदिन तेज़ी से बढ़ती जा रही है. सरकार अगर किसी नीति, जैसे फ़ीस वृद्धि, स्कूल बंद करने, अध्यापकों की नियुक्ति ना करने को, वापस लेने को मज़बूर हो भी जाती है, तब भी वह इसे रद्द कभी नहीं करती. बल्कि दो क़दम पीछे लेती है, और जैसे ही जन आक्रोश थोडा धीमा होता है, पहले से भी ज्यादा आक्रामक रूप में फिर आगे बढ़ जाती है. ये एक तरह का युद्ध है. इसीलिए इसकी व्याख्या करते हुए, सभी वक्ताओं ने इसे ‘शिक्षा के विरुद्ध सरकारी युद्ध कऱार दिया’.

बिल्कुल ऐसा ही युद्ध मज़दूरों के विरुद्ध ज़ारी है. सदियों की कुर्बानियों से हांसिल उनके अधिकार रद्द कर उन्हें 4 लेबर कोड थमा दिए गए हैं. चूँकि मज़दूर इस हमले के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं, इसलिए लेबर कोड्स का कार्यान्वयन, सरकार टालती जा रही है लेकिन उन्हें रद्द नहीं कर रही. वैसे ही हालात किसानों के थे, जिन्होंने देशव्यापी ज़बरदस्त आन्दोलन कर सरकार को चौंका दिया और पहली रणनीतिक जीत हांसिल की. हालाँकि, किसान, अगर उसे निर्णायक जीत मान रहे हैं तो यह उनकी भारी भूल है. अभी कश्मीर से सेव के आवागमन को अवरुद्ध कर, अडानी-अम्बानी की कंपनियों की योजना को सफलतापूर्वक अमल में लाया ही जा चुका है. यही कारण है कि फासीवाद को सरकार द्वारा, चंद कॉर्पोरेट की ताबेदारी करते हुए, उनके हित साधने के लिए, समूची जनता के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध कि तरह ही लिया जाना चाहिए और इसका प्रतिकार समाज के शोषित-उत्पीडित और दमन झेल रहे सभी समूहों को मिलकर, संयुक्त आन्दोलन के तहत करने से ही क़ामयाबी मिलती है. शिक्षा आन्दोलन, मज़दूरों और किसानों का भी आन्दोलन है. काले क़ानून बनाकर जनवादी अधिकार छीने जाने के विरुद्ध होने वाला आन्दोलन भी है. हम देख ही रहे हैं कि ‘अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच, AIFRATE) के सलाहकार बोर्ड के सदस्य डॉ आनंद तेल्तुम्बड़े कई साल से यूएपीए के तहत जेल में बंद हैं. इस समय देश के मज़दूर, लेबर कोड्स के विरुद्ध ज़बरदस्त आन्दोलन चला रहे हैं. ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद’ को ख़ुशी है, कि AIFRATE ने उस आन्दोलन का हिस्सा बनना स्वीकार करने और 13 नवम्बर को राष्ट्रपति भवन तक होने वाले दिल्ली मार्च में मज़दूरों से कंधे से कन्धा मिलाकर मार्च करने के सुझाव को स्वीकार किया.

2) राजनीति शास्त्र का हर विद्यार्थी जानता है कि फासीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष सर्वहारा वर्ग ही चला सकता है. जिस तरह कोई रस्म अदायगी वाला आन्दोलन होने पर ही सरकारें अपने फैसलों पर पुनर्विचार कर लिया करती थीं, अपने फैसले वापस ले लिया करती थीं, फ़ासीवादी निज़ाम में वैसा नहीं होता. समाज में सिफऱ् एक ही तबक़ा है, जो लगातार कंगाल होता जा रहा है लेकिन बढ़ता जा रहा है क्योंकि मध्य वर्ग उसमें समाता जा रहा है, उसके पास खोने को कुछ भी नहीं बचा; वह है, सर्वहारा वर्ग, जो झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहता है. इन अधिकांश झुग्गी-झोंपडिय़ों में, उनके बच्चों के लिए स्कूल हैं ही नहीं, और जो हैं उनकी मरम्मत हुए एक ज़माना हो गया. वे गिरकर बड़ा हादसा बनने का इन्तेज़ार कर रहे हैं. भले हम प्रोफ़ेसर, रीडर, उपकुलपति क्यों ना रहे हों, हम, सर्वहारा वर्ग के इस संघर्ष में उतरे बगैर, फासीवाद से पिंड नहीं छुड़ा सकते. वहाँ जब कोई आन्दोलन हो ही नहीं रहा, तो हम क्या करें? इसका जवाब ये है कि हम उनकी झोंपडिय़ों में जाएँ और उन्हें इस लड़ाई को लडऩे के लिए जगाएँ, साथ ही, उन्हें फासिस्टों की पैदल सेना बनने से रोकें. अगर कोई अंजान है तो जान ले कि फासिस्ट, इन झुग्गी बस्तियों में, अपनी पैठ सतत बनाकर रखते हैं जिससे आन्दोलनों के निर्णायक दौर में पहुँच जाने पर, दंगे कराकर उसे छिन्न-भिन्न किया जा सके जैसे नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन के साथ हुआ था. फासिस्टों के पैदल सैनिकों की आपूर्ति भी इन्हीं झुग्गी बस्तियों से होती है. उस प्रक्रिया को पलटना पड़ेगा.

3) कर्नाटक के साथियों ने रास्ता दिखाया है: ‘कर्णाटक जन शक्ति’ की साथी मलिगे की रिपोर्ट हौंसला बढ़ाने और राह दिखाने वाली है. कर्णाटक को दक्षिण का यू पी अथवा उत्तर-पूर्व का असम बनाने के भाजपाई मंसूबों को, कर्णाटक के छात्रों, अध्यापकों, सामाजिक सरोकार रखने वाले लोगों ने इक_े होकर और सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, व्हाट्सेप, ट्विटर का उद्देश्यपूर्ण इस्तेमाल कर, कड़ी मात दी है. स्कूल पाठ्यक्रमों को विकृत करने के लिए सरकार ने मौजूदा पाठ्यक्रम समिति को भंग कर, संघी ‘विचारक’ चक्रतीर्था की अध्यक्षता में नई 11 सदस्यीय पाठ्यक्रम समिति बनाई थी. वह समिति तुरंत अपने काम में लग गई और संघ संस्थापक हेडगेवार के विचारों को पाठ्यक्रमों में लिया जाने लगा. एक-एक कर समाज सुधारकों को ठिकाने लगाया जाने लगा. कर्णाटक भर के तरक्कीपसंद लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर बताने लगे कि, समिति के 11 सदस्यों में 8 ब्राह्मण हैं, ये लोग कर्णाटक के लोकप्रिय और सम्मानित समाज सुधारकों बासवन्ना, डॉ अम्बेडकर, गौरी लंकेश, कुवेम्पू आदि के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां करते रहे हैं. इस जन-आन्दोलन को जोर पकड़ता देख, मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री को 3 जून को घोषणा करनी पड़ी कि ‘नई पाठ्यक्रम समिति को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है’. सितम्बर महीने में भाजपा सरकार और बेंगलुरु नगर निगम ने कर्णाटक विश्वविद्यालय के कैंपस में ही गणेश मंदिर बनाने का फैसला लिया. छात्रों-अध्यापकों ने संयुक्त आन्दोलन चलाकर उस फैसले को पलटने को मज़बूर किया.
शिक्षा आन्दोलन के तीन आयाम हैं; छात्र-अध्यापक-अभिभावक. सारा समाज इसकी परिधि में आता है. शिक्षा आन्दोलनों ने निज़ाम बदले हैं, तानाशाहों को धूल चटाई है, इतिहास बनाए हैं. “शिक्षा आन्दोलन को लोग ऐसे लेते हैं, कि मना किसी बात को मत करो और करो कुछ नहीं”, पटियाला विश्वविद्यालय से आए साथी द्वारा किया ये व्यंग तीखा है, लेकिन कमजोरी की जड़ पर चोट करता है. साथ ही, हमारे संघर्ष की पद्धति और रणनीति पर फिर से विचार करने की आवश्यकता रेखांकित करता है. वर्ना, शिक्षा आन्दोलन जन-आन्दोलन ना बने, सरकार उसे गंभीरता से ना ले, ऐसा नहीं हो सकता.

 

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Mazdoor Morcha
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