“मारुत्ती मणेस्सर मैं मज़दूर की एकता भारी सै”

“मारुत्ती मणेस्सर मैं मज़दूर की एकता भारी सै”
October 17 17:04 2022

मारुती मज़दूरों के शानदार आन्दोलन को लाल सलाम

सत्यवीर सिंह
‘2012 से निकाले गए बर्खास्त कर्मचारियों को बहाल करो, छंटनी और तालाबंदी पर रोक लगाओ, स्थाई काम पर स्थाई रोजग़ार दो, मज़दूर विरोधी चार श्रम संहिताएँ रद्द करो, मज़दूर हित में क़ानून बनाओ’, इन मांगों पर मारुती के बर्खाश्त कर्मचारियों की दो-दिवसीय भूख हड़ताल, गुडगाँव डीसी ऑफिस के सामने 11 अक्तूबर को सुबह 10.30 बजे शुरू हुई. ‘मारुती के बर्खाश्त मज़दूरों का गुडगाँव-मानेसर के मज़दूर भाईयों के नाम खुला पत्र’, ज़ारी कर ऐतिहासिक मारुती आन्दोलन के बरखाश्त कर्मचारियों ने एक पर्चा ज़ारी कर आन्दोलन का इतिहास बताते हुए सभी मज़दूर साथियों, सभी मज़दूर संगठनों और मज़दूर वर्ग से प्रतिबद्धता रखने वाले जन- हितैषी लोगों से उनके संघर्ष का साथ देने की अपील की थी. इक्कसवीं शताब्दी के, हमारे देश के सबसे चर्चित और बहादुराना मज़दूर आन्दोलन द्वारा ज़ारी इस अपील का, दिल्ली-एनसीआर की मज़दूर बिरादरी ने बहुत दिल से साथ दिया. सुबह से ज़ारी बूंदाबांदी के बावजूद, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद’ समेत लगभग सभी क्रांतिकारी मज़दूर आन्दोलन से सम्बद्ध कार्यकर्ता और कंपनी में पहले काम कर चुके कई मज़दूर, पूरे जोश-ओ-खऱोश से धरना स्थल पर हाजिऱ थे। ज़ोरदार नारों से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।

मारुती के सैकड़ों मज़दूर, अपने संघर्ष के उन योद्धाओं का साथ देने के लिए मुस्तैद थे, जिन्होंने अपनी नोकरी व दमन की परवाह ना करते हुए, यूनियन बनाने, संगठित होने के अपने मौलिक अधिकार को हांसिल करने के लिए, उस मारुती मैनेजमेंट से लड़े, जो मज़दूरों के बीडी पीने, पेशाब करने तक का टाइम नोट किया करते थे. कन्वेयर बेल्ट इतनी तेज़ घूमती थी कि मज़दूर कमर भी सीधी नहीं कर सकते थे. सुपरवाइजर और एचआर मेनेजर जिन्हें इन्सान ही नहीं समझते थे।

अपनी श्रम शक्ति का उचित मूल्य लेने के लिए, सामूहिक सौदेबाज़ी (Collective Bargaining) का मज़दूरों का अधिकार संविधान की धारा 19 (1) खण्ड सी में लिखा हुआ है. साथ ही, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 तथा औद्योगिक विवाद क़ानून, 1947 भी मज़दूरों को अपना संगठन बनाने का अधिकार देते हैं. इस संवैधानिक अधिकार को लागू कराने, अपनी यूनियन बनाने के संघर्षों में जाने कितने मज़दूरों ने अपनी नोकारियां खोई हैं, अपनी जानें गंवाई हैं. मारुती आन्दोलन भी 2011 में इसी मांग से शुरू हुआ था. मारुती-सुजुकी कंपनी के मैनेजमेंट ने, यूनियन बनाने का अधिकार मांग रहे उन मज़दूरों के साथ ऐसा व्यवहार किया, मानो वे कंपनी में हिस्सेदारी मांग रहे हों. उनको दुत्कारा गया, फटकारा गया, प्रताडि़त किया गया, ज़लील किया गया और कई को काम से निकाल बाहर किया गया.

कॉमरेड जियालाल को यूनियन बनाने की मांग करने के ‘क़सूर’ के तहत ही ससपेंड किया गया था जिससे इस लड़ाई की शुरुआत हुई थी. संविधान की शपथ लेकर अस्तित्व में आने वाली, चंडीगढ़ और दिल्ली की सरकारों ने दमनकारी प्रबंधन की संविधान-विरोधी कार्यवाही का समर्थन किया. मज़दूरों को यूनियन बनाने दी जाती तो ये विवाद वहीँ ख़त्म हो जाता. मज़दूरों को अपने संवैधानिक अधिकार को लागू कराने के लिए उस लड़ाई का आगाज़ करना पड़ा, जो अभी तक ज़ारी है और असलियत में तो ये तब तक ज़ारी रहेगी, जबतक सामूहिक उत्पादन पर व्यक्तिगत मालिकाने की ये अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था मौजूद है.

18 जुलाई को मारुती के मानेसर प्लांट में मज़दूरों और मालिकों के नुमाइंदों के बीच इसी मुद्दे पर और मैनेजमेंट की अनेक मज़दूर-विरोधी, अमानवीय, भडक़ाऊ हरक़तों पर छिड़ा संघर्ष अत्यंत तीखा हो गया. प्लांट में आग लगी, जिसके धुंए से मानव संसाधन प्रबंधक की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गई. उसके बाद मारुती प्रबंधन ने 546 स्थाई और 1800 ठेका मज़दूरों को ‘भरोसे की कमी (Loss of Confidence) का बहाना बताकर काम से निकाल दिया. 213 मज़दूरों को गिरफ्तार कर लिया गया जिनमें 149 को जेल में बंद कर दिया गया. 2017 में, घटना के 5 साल बाद, 117 मज़दूर अदालत ने बिलकुल बेक़सूर पाए और उन्हें रिहा कर दिया गया. कुल 13 मज़दूरों को आजीवन कारावास की सज़ा हुई. इन 13 मज़दूरों में से कॉमरेड जियालाल और कॉमरेड पवन दहिया की, उचित ईलाज ना मिलने के कारण जेल में ही मौत हो गई और उनकी लाशें ही जेल से बाहर आईं. बाक़ी 11 मज़दूरों को चंडीगढ़ उच्च न्यायलय द्वारा ज़मानत मिली है. दूसरी ओर 426 मज़दूरों का मुक़दमा गुडगाँव की जि़ला अदालत में चल रहा है और जाने कब तक चलेगा. इन लोगों आपराधिक कार्य में लिप्त नहीं पाया गया है, ये सभी बेक़सूर हैं. मारुती सुजूकी मज़दूर यूनियन (रूस्) की लाख कोशिशों के बावजूद, मारुती मैनेजमेंट इन्हें काम पर नहीं ले रहा है. इन 426 मज़दूरों के परिवार बेहाल और बर्बाद हैं. कारखानों में मज़दूरों की मौतों की घटनाएँ हर रोज़ होती हैं. किसी भी व्यक्ति की मौत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन ‘संविधान में सब बराबर हैं’, ये जुमला कितना क्रूर है, हर रोज़ ये झूट तार-तार होता है. ‘मारुती मज़दूर और मारुती-सुजुकी प्रबंधन’ वाले इस मुक़दमे की पूरी हकीक़त तो बहुत दर्दनाक और लम्बी है, लेकिन एक पहलू नमूद किए बगैर इसका वर्ग चरित्र स्पष्ट नहीं होगा.

उसे जानना बहुत ज़रूरी है. ज्यादा से ज्यादा मारुती मज़दूरों को, ज्यादा से ज्यादा सज़ा कराने, उनकी ज़मानत ना होने देने के लिए मारुती-सुजुकी कंपनी की ओर से देश के सबसे बड़े वकीलों में से एक केटीएस तुलसी थे. जापानी सुजुकी कंपनी दुनिया की सबसे बड़ी, धनी कार कंपनियों में शुमार होती है. अपार दौलत की मालिक है. लेकिन मज़दूरों के विरुद्ध इस मुकदमे में वकील की फ़ीस के रूप में हरियाणा सरकार ने 5.2 करोड़ रुपये खर्च किए. तुलसी के अलावा, कांग्रेसी अभिषेक मनु सिंघवी व अश्वनी कुमार भी इस केस में वकील थे. उनकी फ़ीस का कोई हिसाब सरकार ने विधान सभा में पूछे गए जवाब में भी नहीं दिया. सत्ता ने, मज़दूरों और कंपनी के बीच हुए झगड़े को सत्ताधारी वर्ग पर हमले के रूप में लिया. सत्ताधीशों से आंख में आंख डालकर बात करने की ‘जुर्रत’ पर, उन्हें ‘सबक़ सिखाने’ के अंदाज़ में ही ये मुक़दमा लड़ा गया. आज भी बिलकुल उसी तरह लिया जा रहा है, वर्ना इन 426 मज़दूरों को काम पर लेने के मामले में मारुती-सुजुकी प्रबंधन बात करने को क्यों तैयार नहीं है? श्रम विभाग, हरियाणा सरकार, कोई भी दखल देने को क्यों तैयार नहीं?

ऐतिहासिक मारुती आन्दोलन का एक और पहलू भी है, और वह सबसे अहम है. मज़दूरों के संघर्षों का इतिहास बहुत लम्बा और गौरवशाली है. उनकी शक्ति है, उनकी फौलादी एकता. गुडगाँव-मानेसर की कंपनियों में कार्यरत अनेकों मज़दूर, मारुती के अपने कामरेडों के साथ कई बार अपनी अटूट एकता को साबित कर चुके हैं. मुक़दमे के खर्च तथा जेल में बंद पीडि़त परिवारों को आर्थिक मदद पहुँचाने के लिए मज़दूरों ने खुले दिल से सहयोग कर दूसरे मज़दूरों के सामने एक मिसाल क़ायम की है. 11 अक्तूबर के धरने का भी सबसे रोमांचकारी आनंददायक पल वह था, जब बेल्सोनिका कंपनी के सैकड़ों मज़दूर, लाल झंडे थामे, मुट्ठी भींचे नारे लगाते हुए, मारुती के अपने बरखास्त कामरेडों के आन्दोलन से एकजुटता रेखांकित करने के लिए, धरना स्थल में प्रवेश किए. सारा परिसर गगन-भेदी नारों से गूंज उठा. भूख हड़ताल कर रहे आन्दोलनकारी मज़दूर, अपनी अपील के पर्चे में लिखते हैं, “लोग अक्सर पूछते हैं कि ‘नोकारियां खोने, जेल की सज़ा और दमन के सिवा इस संघर्ष से आपको क्या मिला? इतना सब देखने के बाद आप अब भी संघर्ष करना चाहते हो?

यह सच है कि संघर्ष के मैदान ने हमसे कई कुर्बानियां लीं, हमें कई कठिनाइयाँ दिखाई, लेकिन सच ये भी है कि इतने सालों में अगर हमने कोई भी सफलता पाई है तो वह संघर्ष से ही मिली है. किसी नेता, किसी चुनावी पार्टी, किसी मेनेजर ने हमें कभी कोई राहत, कोई अधिकार नहीं दिए. ये हमारी एकता ही थी जिसने हमें कंपनी में कोल्हू के बैल की तरह पीसे जाने से बचाकर सम्मान के साथ कंपनी में काम करने का मौक़ा दिया. यह संघर्ष ही था जिसने हममें से जेल में फेंक दिए गए साथियों को बाहर निकाला, और हमें विश्वास है कि संघर्ष से हम बर्खाश्त मज़दूर एक बार फिर अपनी अन्यायपूर्ण तरीक़े से छीनी गई नोकारियां वापस पाएंगे. जब हम मारुती में लगे थे, तो हमारी तनख्वाह 4,000/ से अधिक नहीं थी. काम का दबाव ऐसा था कि तंदुरुस्त नौजवान दो-तीन साल में बीमार पड़ जाते थे. लाइन की तेज़ी ऐसी थी कि पानी की बोतल सामने पड़ी हो तब भी आप उसे उठाकर पानी नहीं पी सकते. सुपरवाइजर और एचआर मज़दूरों को इन्सान नहीं समझते थे. हर छोटी बात पर बदतमीज़ी से बोलते, कभी हाथ उठाते, कभी गाली देते. यूनियन नहीं थी और मैनेजमेंट के सामने मज़दूरों की बात रखने का कोई जरिया नहीं था. हमारी एक मामूली मांग थी ‘हमारी अपनी स्वतन्त्र यूनियन’ जो हमारी आवाज़ बने, हमारे अधिकारों के संघर्ष को नेतृत्व दे. महीने दर महीने संघर्ष चला, लोग बर्खाश्त हुए और वापस भी लिए गए, कंपनी के गेट पर ताला भी लगा और तोडा भी गया, नेता आए और गए और नए नेता तैयार हुए और जेल में डाले गए और फिर नए नेता तैयार हुए…!

स्थाई मज़दूर, ठेका मज़दूरों को काम पर वापस लाने के लिए कंपनी के अन्दर बैठ गए, इसके समर्थन में आस-पास की 12 कंपनियों के मज़दूर अपनी-अपनी कंपनी पर क़ब्ज़ा करके बैठ गए. 2500 के कऱीब सक्रीय मज़दूरों को निकाल देने, 149 मज़दूरों को जेल में डाल देने और पूरे मानेसर पुलिस छावनी बना देने के बाद भी हमारी यूनियन ना केवल रजिस्टर हुई, बल्कि 2012 के बाद भी बनी रही और आज भी सक्रीय है..” ये है, मज़दूरों का इतिहास जिसका एक-एक पन्ना उनके खून से लिखा हुआ है. फैज़ अहमद फैज़ की पन्तियाँ कितनी मौजूं है।

यूँ ही उलझती रही हमेशा ज़ुल्म से खल्क, ना उनकी रस्म नई है ना अपनी रीत नई यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल ना उनकी हार नई है ना अपनी जीत नई 426 बरखाश्त मज़दूरों की सम्मानपूर्वक बहाली तक ये संघर्ष ज़ारी रहेगा; ये अहद ना सिफऱ् मारुती सुजुकी मज़दूर यूनियन ने लिया, बल्कि धरना स्थल पर उपस्थित सभी ट्रेड यूनियनों के कार्यकर्ताओं-नेताओं ने भी दोहराया. गुडगाँव-मानेसर-बावल-धारूहेड़ा-भिवाड़ी-फरीदाबाद की औद्योगिक बेल्ट में 50 लाख से भी अधिक औद्योगिक और असंगठित मज़दूर हैं. ये क्षेत्र मज़दूरों का दुर्ग बनने की संभावनाएं रखता है. ये हमारे देश का पेत्रोग्राद भी बन सकता है. आज के फासीवादी अँधेरे युग में ये मज़दूर नई लाल सुबह की उम्मीदें जगाते हैं.

वह शानदार रागनी, जो मारुती के कर्मचारी, जीतेन्दर धनखड़ ने लिखी और बेहतरीन अंदाज़ में गाई और जो अभी तक ज़हन में घुमड़ रही है. ऐसी रागनी लिखना किसी गीतकार के बस की बात नहीं. इसे तो सिफऱ् वह मज़दूर ही लिख सकता है, जिसकी आँखों के सामने पूरे 11 साल से ज़ारी ये ऐतिहासिक संघर्ष घटा हो, जो इस संघर्ष का हिस्सा रहा हो.

मारुत्ती मणेस्सर मैं मज़दूर की एकता भारी सै
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट की सोच या न्यारी सै
दो हज़ार मैं मारुत्ती मैं ठेक्के का आगाज़ होया
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट पै अत्याचार होया
दो हज़ार पै ग्यारह तक मारुत्ती मैनेजमेंट की बारी सै
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट की सोच या न्यारी सै
चार जून दो हज़ार ग्यारा मैं मज़दूरों नै हुंकार भरी
मैनेजमेंट और परसासन तै बोल दिया था खरी खरी
पहलै हौंडा बाद में रीक्को इब मारुत्ती की बारी सै
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट की सोच या न्यारी सै
ठारह जुलाई दो हज़ार बारै मैं मैनेजमेंट नै चाल चली
जियालाल सस्पैंड कर दिया परसासन तै मिली-जुली
मेहनतक़श मज़दूरों नै या गेड़ा मैं सरै यारी सै
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट की सोच या न्यारी सै
मैनेजमेंट अर परसासन का यो गठजोड़ निराड़ा सै
इस नै तोडऩ खात्तर हम नै अपणा हाथ बढ़ाणा सै
लड़े बिना ना कुछ बी मिलता बात समझ मैं आरी सै
कैजुएल अपरेंटिस और परमानेंट की सोच या न्यारी सै

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Mazdoor Morcha
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