आदमी सस्ता और मशीनें महंगी

आदमी सस्ता और मशीनें महंगी
October 08 13:52 2022

सीवर में सफाई कर्मचारियों की मौत बर्बर जघन्य हत्या है; मालिक, ठेकेदार और सरकार तीनों हत्यारे हैं।

सत्यवीर सिंह
‘मेरे 6 के 6 बेटे, ऐसे ही चले गए, अब दो-दो पोतों की लाशें कैसे उठाऊंगा, मुझे मौत क्यों नहीं आती, अब मैं कहाँ जाऊं..’ 80 वर्षीय अशर्फी लाल, 6 अक्टूबर को सुबह बी के सिविल हॉस्पिटल के शव गृह के बंद फाटक के बाहर अकेले हाथ जोड़े, अर्द्ध विक्षिप्त जैसी हालत में, बुदबुदा रहे थे। उनकी आँखों से लगातार बहते आंसुओं की सूखी धाराएं, चेहरे पर, साफ नजऱ आ रही थीं। आप रवि और रोहित के क्या लगते हैं?

इतना पूछना था कि मानो समंदर उमड़ पड़ा, बिलख पड़े और ज़मीन पर बैठ गए। चीत्कार सीधे उनके कलेजे से निकल रही थी। ‘अन्दर जो रवि और रोहित हैं, वे मेरे पोते हैं’, उनकी चीख़ अस्थिर कर गई. वे ‘हैं’ की जगह ‘थे’ बोलने में वे हिचक गए। पास की बेंच पर उनके पोतों की पत्नियाँ दहाड़ें मार रही थीं। सबसे ज्यादा हिला देने वाला बेचैनी भरा, क्रोध भरा रुदन, रवि और रोहित की बहन का था, जिसकी शादी उनके भाई, इसी साल करने की तैयारियां कर रहे थे। परिवार वालों के आलावा लोग भी, अपने आंसू नहीं रोक पा रहे थे। मीडिया कर्मियों को भी इतना उत्तेजित व आक्रोशित कभी नहीं देखा गया। हाँ, पुलिस वाले ज़रूर, यंत्रवत, चारों मज़दूरों के पोस्ट मार्टम के फॉर्म तैयार कर रहे थे। ‘हुआ तो बहुत ही बुरा है’, फॉर्म भरते वक्त, वे भी ये कहते सुनाई दिए। क्यों हर तरफ़ चीख़-पुकार मची है, एक साल के कऱीब, दोनों भाईयों रवि और रोहित की एक जैसी दोनों बच्चियां, जिनकी मम्मियां भी सगी बहनें हैं, कुछ समझ समझ नहीं पा  रही थीं कि क्या हो रहा है!!

उन्हें क्या मालूम, उनके पापा अब कभी वापस नहीं आएँगे। आक्रोशित लोगों का बड़ा हुजूम, फरीदाबाद में सक्रीय लगभग सभी मज़दूर संगठनों जैसे ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, भीम आर्मी, इन्क़लाबी केन्द्र मज़दूर, नगर निगम सफ़ाई मज़दूर यूनियन, सरकारी कर्मचारियों की संयुक्त यूनियन, सामाजिक सरोकार रखने वाले अनेक लोगों का हुजूम तथा वैकल्पिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही एनडीटीवी के रवीश रंजन मज़दूरों के ‘हत्याकांड’ के बाद शव गृह (mortuary) के बाहर उपस्थित थे। दक्षिण पुरी स्थित बाल्मीकि समुदाय का ‘संजय कैंप’ तो अपने चार सपूतों के चले जाने पर, पूरे का पूरा ही बीके अस्पताल फरीदाबाद में उपस्थित था। गुस्से से उबल रहा हुजूम अपनी मांगें इतनी जोर से नारे लगाकर बता रहा था, कि पास में नगर निगम के अधिकारी अपने दफ्तरों में बैठे ही सुन पा रहे होंगे; क्यू आर जी अस्पताल के मालिक अनिल राय गुप्ता, ठेकेदार कंपनी संतुष्टि अलाइड सर्विस के मालिक को तत्काल गिरफ्तार करो, उनपर ग़ैर इरादतन हत्या दफा 304 का नहीं बल्कि इरादतन जघन्य हत्या दफा 302 और एस-सी एस-टी एक्ट का मुक़दमा क़ायम करो, पीडि़त चारों परिवारों को एक-एक करोड़ का मुआवज़ा दो, मुआवज़े के लिखित आश्वासन के बगैर लाशें नहीं उठने देंगे, चारों परिवारों से एक-एक व्यक्ति को सरकारी नोकरी दो, सीवर की सफाई मशीनों द्वारा ही की जाए ऐसा क़ानून बनाओ, मज़दूरों की हत्या नहीं सहेंगे, दलितों पर अन्याय नहीं सहेंगे। ठेका प्रथा मज़दूरों की हत्या प्रथा है, ठेका प्रथा पर हल्ला बोल।

5 अक्तूबर को जब सारा देश, सरकारी भाषा में, ‘हर्षोल्लास’ से दशहरे का उत्सव मना रहा था, ठीक उसी वक़्त फरीदाबाद के क्यूआरजी अस्पताल के सीवर टैंक में 4 मज़दूरों; रवि गोलदार, 26, विशाल 24, रवि 23 तथा रोहित 22 के प्राण, ज़हरली गैसों से दम घुटने से निकल रहे थे। इनके आलावा 2 मज़दूर, नरेंद्र और शाहिद भी उसी सीवर में उसी तरह बेहोश हुए थे, आईसीयू में भी भर्ती हुए थे, लेकिन उनके बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी जा रही है। ये मौतें जो फांसी दिए जाने से भी ज्यादा दर्दनाक और भयानक हैं, अब रोज़ मर्रा की बात बन गई हैं। बिलकुल वही क्रम है, बस नाम और स्थान बदलते हैं।

बे-रोजग़ारी, भयंकर दरिद्रता और अपने बच्चों-परिवार की भूख बरदाश्त ना कर पाने के आलावा और क्या कारण हो सकते हैं, कि महज़ 400 रु के लिए, 4 मज़दूर, त्यौहार के दिन, दिल्ली की दक्षिणपुरी के संजय कैंप से 25 किमी दूर फरीदाबाद के सेक्टर 16 में स्थित स्वास्थ्य की चमचमाती क्रूर दुकान, क्यूआरजी अस्पताल के टट्टी-पेशाब और ज़हरीली गैसों से भरे 12 फिट गहरे गड्ढे में बिना किसी सुरक्षा उपकरण उतर जाने को मज़बूर हुए। ये मौतें, जो भयावह नियमितता से होती जा रही हैं, हमारे समाज के असली कैंसर को नंगा कर देती हैं। क्या कोई सोच सकता है कि हर महीने ऐसी भयानक मौतों के बाद भी अभी तक कोई क़ानून नहीं बना, जो हत्यारे मालिकों-ठेकेदारों को, सीवर टैंकों की सफाई करने वाले सफाई कर्मचारियों के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरणों को सुनिश्चित करने को मज़बूर करे? ख़ुद सरकार ने माना है कि पिछले 5 सालों में 347 लोग इस तरह कंसंट्रेशन कैंप वाली मौत मर चुके हैं। जबकि, ऐसी मौतों का 50 प्रतिशत भी रिपोर्ट नहीं होती। समाज की तलहटी में रह, किसी जिंदा रहने की ज़द्दो-ज़हद कर रहा, मज़दूरों का ये समूह इतना बेबस और कंगाल है कि हत्यारे मालिक और ठेकेदार, पुलिस से मिलीभगत कर अधिकतर मामलों को ‘ले-देकर’ निबटा देते हैं। देश में श्रम इतना सस्ता है, और हमारा शासन तंत्र इतना मालिक-परस्त और मज़दूर-विरोधी है कि सुरक्षा उपकरण खरीदने और उसकी देखभाल का खर्च, मज़दूरों की मौतों को ‘मैनेज’ करने के खर्च अधिक है!! इन हत्याओं के लिए कौन जि़म्मेदार है?

देश की सरकार को, जो राकेट साइंस, मिसाइल तकनीक में दुनिया के विकसित देशों से बराबरी के दावे करती है, समाज के सबसे कमजोर तबक़े के इस तरह सड़ते हुए टट्टी-पेशाब से भरे टैंकों में जाकर सफाई करने को मज़बूर होने की परिस्थितियों पर, क्या शर्म से डूब नहीं मारना चाहिए? बन्दा, अगर ना भी मरे, तो भी क्या ये परिस्थिति शर्मनाक, विकराल सामाजिक विषमता, सामाजिक कोढ़ को दर्शाने वाली नहीं है? किस मुंह से सरकार तकनीकी विकास की डींगें मारती है? क्या सीवर टैंक सफ़ाई करने की मशीनें दुनिया में मौजूद नहीं हैं? क्या जिन विकसित देशों से सरकार बराबरी का दिखावा करती है, उनमें मज़दूर इसी तरह मुंह, नाक, कान में टट्टी-पेशाब का सड़ता हुआ पानी भरते हुए, इस घिनौने मौत के कुए में उतरते हैं? क्या यही है ‘अमृत काल’? विश्वगुरु ऐसे होते हैं? सरकार ने इस शर्मनाक काम को और इन मौतों को रोकने के लिए आज तक कौन से कदम उठाए हैं? बार-बार बिना कोई सुरक्षा उपकरण सीवर टैंक में सफाई मज़दूर को उतारने, वह वापस नहीं आया तो उसे देखने, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे मज़दूर को भेजते जाना, मानो वे पिकनिक को गए हों और उन्हें देखने जाना है; के अपराध को रोकने के लिए कोई सरकारी विभाग क्यों नहीं है? आज तक किस सरकारी विभाग को जि़म्मेदार ठहराया गया, किस सरकारी अधिकारी को गिरफ्तार किया गया? क्या ये सब जिम्मेदारियां सरकार ने निभाई हैं? इन सवालों का उत्तर है; ‘नहीं’. इसीलिए, ये सब संस्थागत हत्याएं हैं। राज्य सरकार और केंद्र सरकार, दोनों इसके लिए जि़म्मेदार हैं।

मालिक और ठेकेदार तो सीधे तौर पर हत्यारे हैं। सफ़ाई कर्मचारी, समस्त मज़दूरों में, सबसे ज्यादा शोषित-उत्पीडित तबक़ा है। वाल्मीकि जाति से होना, दलित होना; उनके हालात को और संगीन रूप से दमित बनाता है। समाज ने, मानों, उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया है। ऐसी अमानवीय हत्याओं पर किसी भी संवेदनशील समाज को उबल पडऩा चाहिए। फरीदाबाद के क्यूआरजी मज़दूर हत्याकांड में भी वही हुआ जो हर बार होता है। सेक्टर 16 थाने को घेर लेने पर, रात में मुक़दमा दर्ज हुआ. दफ़ा है 304, ग़ैर इरादतन हत्या। ये रिपोर्ट लिखी ही इस तरह जाती है कि मालिक और ठेकेदार, एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए, दोनों कानूनी शिकंजे से बच निकलते हैं, तुरंत ज़मानत मिल जाती है।

मुकदमे की शुरुआत जब तक होती है, मालिक और ठेकेदार, दुखों से बिलखते परिवार को कुछ ‘ले-दे कर’ मामला निबटा लेते हैं। किसी को सज़ा नहीं होती. 5 अक्तूबर की घटना पर 7 तारीख तक भी कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है। 4 लोगों की हत्या हुई है, चारों बाल्मीकि समाज, मतलब अनुसूचित जाति से हैं, इनके अतिरिक्त अस्पताल के 2 नियमित मज़दूर भी गैस की चपेट में आकर बेहोश हो गये थे, जिन्हें बचा लिया गया। उसके बावजूद पुलिस, हत्यारों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर रही? ये वही सरकार है और वही पुलिस है, जो सरकार की किसी नीति के विरोध में आन्दोलन करने वालों को रातों-रात उठा लेती है। ऐसी बिकट धाराएं लगाती है कि कई-कई साल ज़मानत नहीं मिलती, अदालत द्वारा ज़मानत मिल जाने पर, तुरंत दूसरी धाराएं लगाकर बेक़सूर लोगों को जेल से छूटने नहीं देती। ऐसे जघन्य अपराधों में वैसी तत्परता क्यों नजऱ नहीं आती? क्यूआरजी अस्पताल पहले भी बलात्कार की वारदात को छुपाने और कई घपलों-घोटालों में लिप्त पाया गया है। उसका मालिक, अनिल राय गुप्ता, दशहरे के दिन हुए मज़दूर-हत्याकांड के बाद, अचानक ‘गंभीर बीमार’ क्यों हुआ, क्यों आई सी यू में भर्ती हुआ, क्या ये समझना इतना मुश्किल है? अगर बीमार भी है, तो जेल में अस्पताल किस लिए होते हैं? हरियाणा की बलशाली पुलिस, ऐसे मगरमच्छों पर दफा 302 और एस-सी, एस-टी एक्ट लगाकर, इन्हें दबोचने में क्यों वैसी फुर्ती नहीं दिखाती, जिस तरह वह गरीबों पर टूट पड़ती है?

अपुष्ट ख़बरों से पता चला है, कि 6 अक्तूबर को तीखा जन-आक्रोश देखते हुए और बिलख रहे पीडि़तों को मृतकों का अन्तिम संस्कार करने को राज़ी करने के लिए अस्पताल की ओर से, देर शाम प्रत्येक मृतक को 25 लाख के हिसाब से एक करोड़ का चेक पुलिस के पास जमा कर दिया गया है। साथ ही परिवार के एक-एक व्यक्ति को सरकारी नोकरी देने का ‘आश्वासन’ प्राप्त हुआ है। अगर ये सही भी है, तब भी हत्यारों के साथ वैसी ही क़ानूनी सख्ती रहनी चाहिए जैसी ऐसे जघन्य अपराधों में रहती है।

‘आश्वासन’ को लिखित रूप में लिया जाए। साथ ही इस ‘आश्वासन’ के कार्यान्वयन होने तक एक जन-कमेटी बनाई जाए। ऐसी ‘आश्वासनों’ का क्या हस्र होता आया है, देश के लोग अच्छी तरह जानते हैं।

सीवर की सफ़ाई आवश्यक रूप से मशीनों द्वारा ही हो, सरकार का एक विभाग इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए, स्पष्ट रूप से जि़म्मेदार हो, ऐसी हत्याओं को इरादतन क़त्ल का अपराध माना जाए, ठेका प्रथा मज़दूर-विरोधी ही नहीं, अमानवीय और हत्यारी है, इसे तुरंत रद्द किया जाए, सभी त्योहारों की छुट्टियाँ और साप्ताहिक अवकाश हर मज़दूर का अधिकार है, भले उसे ठेके के नाम पर ही क्यों ना पीसा जा रहा हो; इन सभी मांगों पर प्रचंड जन-आन्दोलन चलाना हर उस इन्सान का कर्तव्य है जो ख़ुद को जिंदा समझता है. इस सामाजिक कोढ़ को अगर हम दूर नहीं कर पाए, तो असभ्य कहलाए जाएंगे, आने वाली नस्लों के सामने हम गुनहगार ठहराए जाएँगे।

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Mazdoor Morcha
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