गन्दगी, शोर-प्रदूषण, रेल पटरियों के किनारे शौच से कब आज़ाद होगा ‘आज़ाद नगर’

गन्दगी, शोर-प्रदूषण, रेल पटरियों के किनारे शौच से कब आज़ाद होगा ‘आज़ाद नगर’
October 02 01:12 2022

सत्यवीर सिंह
मुजेसर रेलवे फाटक से शुरू होकर, रेल पटरियों के पश्चिम किनारे बल्लभगढ़ तक लगभग 3 किमी लम्बी और 50 मीटर चौड़ाई में बसी मज़दूर बस्ती ‘आज़ाद नगर’ कहलाती है. यहाँ लगभग 3,000 राशन कार्ड्स हैं. कितने लोग बगैर किसी राशन कार्ड वाले हैं, सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता. काफ़ी दिनों से राशन कार्ड्स बनने बंद हो चुके हैं. ये राशन कार्ड बनने का नहीं, रद्द होने का युग है. जब-तब राशन कार्ड रद्द होने का अभियान चलता रहता है. इस बस्ती की आबादी 20,000 से अधिक ही होगी.

यहाँ भी शहर की बाक़ी मज़दूर बस्तियों की तरह ही, अधिकांश मज़दूर यू पी, बिहार, असम, उड़ीसा, झारखण्ड से काम की तलाश में, अपने गावों से उजडक़र, फरीदाबाद आकर बसे हुए लोग हैं. आज़ाद नगर में कोई डिस्पेंसरी और एक भी सरकारी स्कूल नहीं है. कुछ जागरुक लोग ज़रूर, समाज सेवा के नाम पर बच्चों को पढ़ाते हैं. बस्ती का नाम ‘आज़ाद नगर’ किसी ने मानो झल्लाहट में, विद्रोही अंदाज़ में दिया है, क्योंकि ये बस्ती, दरअसल, डबल ‘गुलाम’ है!! जिस ज़मीन पर ये 20,000 लोग टिके हुए हैं, उसका मालिकाना, भारतीय रेल और फरीदाबाद नगर निगम, दोनों का है. इस बस्ती को तोड़ डालने, उजाड़ देने, लोगों को घरों से खींचकर बाहर करने की धमकियां, इन दोनों इदारों से मिलती रहती हैं. उसके बावजूद लोग उखडऩे से मना कर, अपने-अपने हिस्से की धरती पर मौजूद हैं. इनसे आज़ाद भला और कौन होगा!! हालाँकि रेल पटरियों से लगी झुग्गियों की एक लाइन तीन साल पहले टूट चुकी है. लोग जब लडऩे को लामबंद हो जाते हैं, तब तोड़-फोड़ अभियान स्थगित कर दिया जाता है. बाक़ी लोगों को भी रेल विभाग ने, उनके घरों को तोडऩे के नोटिस ज़ारी किए हुए हैं जिनके विरुद्ध, मज़दूर सुप्रीम कोर्ट से स्थगन आदेश प्राप्त कर चुके हैं. ‘स्थगन आदेश’, मतलब मज़दूरों को ये सन्देश कि आप लोग सरकार की मेहरबानी से यहाँ जिंदा हो, जिंदा रहना आपका हक नहीं है!!

आज़ाद नगर की एक और ख़ासियत हासिल-ए-बयां है. ये क्षेत्र रेलगाडिय़ों की गडग़ड़ाहट , धुंए, मशीनी शोर-शराबे के लिहाज़ से फरीदाबाद का सबसे प्रदूषित क्षेत्र है. दिल्ली से सुदूर दक्षिण, मध्य और पश्चिम भारत को जाने वाली तेज़ रफ़्तार गाडिय़ाँ, दिन-रात इसी लाइन पर दौड़ती हैं. औसत हर 5-7 मिनट में कोई ना कोई गाड़ी, कान-फाडू आवाज़ से, धरती को दहलाते हुए, यहाँ से गुजऱ रही होती है. तीन दिशाओं में छोटे-बड़े कारखाने हैं, जिनका शोर और उनसे निकलता रसायन युक्त पानी यहाँ का ‘इको-सिस्टम’ बनाता है. प्रदुषण का एक और पहलू, नजऱंदाज़ नहीं होना चाहिए. फऱीदाबाद में अधिकतर कारखाने गुडगाँव-मानेसर-भिवाड़ी में मौजूद वाहनों की ‘मदर यूनिटों’ को कल-पुर्जों की आपूर्ति करते हैं.

इन कारखानों ने, मज़दूरी को न्यूनतम स्तर तक ले जाने और दूसरी अनेक लागतों, ‘झंझटों’ को कम करने के लिए, मज़दूरों को अपने घरों में ही छोटे-छोटे आइटम बनाने का ठेका, प्रति इकाई दर पर देने की व्यवस्था अपनाई हुई है. ये मज़दूर, अपनी झोंपडिय़ों या बाहर गली में, रबड़ के अनेकों पुर्जे बनाने की ठोका- पीटी, हर वक़्त, दिन-रात कर रहे होते हैं. जहाँ 6 गुणा 6 फूट के कमरे में पूरा परिवार रहता हो, वहीँ एक कोने में ‘औद्योगिक उत्पादन’ चल रहा होता है. शोर हो रहा है, नींद खऱाब हो रही है, ये शिकायत भी कौन किससे करे!! करेंगे तो आपस में एक-दूसरे का ही सर फोड़ेंगे. ये भी आखिर में मज़दूरों के लिए दु:ख-ख़बरी और मालिकों के लिए खुशखबरी ही होगी. ये बस्ती पिछली सदी के सत्तर के दशक से ही बसनी शुरू हो गई थी. पहले ये रेलवे लाइन से दूर, श्मशान के किनारे बसनी शुरू हुई थी. वह ज़मीन, सरकार बहादुर की तो थी ही, कारखानेदारों की भी थी. इसलिए वहाँ से इन लोगों को ज़बरन उजाड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप ये लोग रेलवे लाइन के किनारे पड़ी पट्टी में बस गए. दरअसल, 1960 और 70 का दशक, फरीदाबाद में तेज़ औद्योगिक उत्पादन का रहा. कोई भी उत्पादन, बिना मज़दूरों का हाथ लगे, नहीं होता. इसलिए बहुत बड़े पैमाने पर, यू पी-बिहार से आए मज़दूर यहाँ रोजग़ार पाते गए. मालिकों का उत्पादन बढ़ता गया, उनके मुनाफ़े के पहाड़ बड़े होते गए. कारखाने में उत्पादन करने वाले हाथ जिस इन्सान के हैं, उनके आवास की व्यवस्था करना, मुनाफ़ा चूसने वाले कारखानेदार की जि़म्मेदारी थी.
मुनाफ़े की हवस में पागल, कारखानेदारों ने इस जि़म्मेदारी को नहीं निभाया. अधिकतर जगह, उन्होंने ही मज़दूरों को, कारखाने के नज़दीक, नाले-गटर के पास या खाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर बसाया, जिससे तीन-तीन पालियों में चलते काम के लिए हाथ कम ना पड़ें. हमारे देश की सरकारें, शुरू से ही, मालिकों के सामने सीधा खड़े होने की रीढ़ नहीं रखतीं, जैसी की पश्चिम के पूंजीवादी मुल्कों की सरकारें रखती हैं. जब इन मज़दूरों की ज़रूरत थी, कारखानेदार इन्हें अपने-अपने कारखानों के नज़दीक बसाते गए. आज, उत्पादन की ज़रूरत ही नहीं रही. गोदाम भरे पड़े हैं. वैसे भी वित्तीय पूंजी उत्पादन की झंझट में नहीं पड़ती, वह तो सट्टेबाजी से छलांगें मारती है, इसीलिए, आज इन मज़दूर बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है.

सरमाएदारों की ताबेदार सरकार और महाभ्रष्ट प्रशासन ने उस वक़्त भी कारखानेदारों का साथ दिया था, आज भी ठीक वही कर रहा है. आज़ाद नगर की बस्ती में कचरा फेंकने, शौच या पेशाब करने के लिए भी रेल पटरियों पर, पटरियां लांघकर, झाडिय़ों में ही जाना होता है. इस प्रक्रिया में कई लोग अपनी जान गँवा चुके हैं, और कई अपने शारीर के अंग गँवा चुके हैं. अगस्त महीने में ऐसी ही एक बहुत भयानक, दिल दहलाने वाली घटना के लिए ये बस्ती मीडिया की सुखिऱ्यों में बनी हुई है. 11 अगस्त को जब सरकार आज़ादी के अमृत महोत्सव के जश्न में डूबी थी, उसी रात, सार्वजनिक शौचालय ना होने के कारण, मज़दूर परिवार की एक 11 साल की बच्ची, अपनी बहन के साथ, रात को 9 बजे शौच के लिए रेल की पटरियों के पार गई. इस नैसर्गिक ज़रूरत के लिए, महिलाओं को इसी तरह एक दूसरे के साथ ही जाना होता है. वह बच्ची, जब घंटों तक वापस नहीं लौटी, तो बस्ती के लोग ढूंढने निकल पड़े और पुलिस को भी सूचना दी गई. देर रात उसकी लहू-लुहान, क्षत- विक्षत लाश, झाडिय़ों से बरामद हुई. पोस्ट मार्टम रिपोर्ट ने साबित किया कि वह मासूम बच्ची पहले बलात्कार का शिकार हुई और बाद में उसे गला दबाकर मार डाला गया. इस नृशंस घटना ने बस्ती के लोगों को ही नहीं बल्कि सारे शहर को झकझोर दिया. लोगों के गुस्से पर ठण्डा पानी डालने के लिए, स्थानीय मंत्री उस मज़दूर परिवार के घर पहुंचे और 1 लाख रु की मदद की घोषणा कर दी.

जैसा कि भाजपा सरकार का रिवाज़ है, बाद में मंत्री जी भूल गए और अभी तक भूले हुए ही हैं. 15 अगस्त की शाम, स्थानीय चन्द्रिका प्रसाद सामुदायिक भवन में एक विशाल सभा हुई, और अगले दिन 16 अगस्त को, बड़ी तादाद में लोग, डी सी ऑफिस पर आक्रोश प्रदर्शन करने इक_े हुए और डी सी की माफऱ्त मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया. उसके बाद प्रशासन की नीद टूटी और मदद के नाम पर 2 लाख रु का चेक पीडि़ता को दिया गया. जबकि, अनुसूचित जाति से होने के कारण, वह विधवा महिला, राज्य और केंद्र सरकार दोनों से 5-5 लाख की हक़दार है. गुडिय़ा को न्याय दिलाने के लिए संघर्षरत, मज़दूरों के अग्रणी संगठन, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ ने 28 सितम्बर को फिर से मोर्चा-प्रदर्शन-सभा कर दूसरा ज्ञापन सौंपा है, प्रशासन को जगाने का एक और प्रयास किया है.

“बस्ती में एक भी शौचालय होता तो मेरी बहन आज जिंदा होती”, मृतक बच्ची बहन की इस दारुण चीख़ को ‘मज़दूर मोर्चा’ के साथ ही, इंडियन एक्सप्रेस ने भी प्रमुखता से प्रकाशित किया. कई ज्ञापन, प्रदर्शन सभाएं हो चुकीं, प्रधान मंत्री चीख़-चीखकर दावे करते फिरते हैं कि उन्होंने देश को खुले में शौच से मुक्त कर दिया, लेकिन उसके बाद भी आज तक आज़ाद नगर में शौचालय बनाने की प्रशासन कोई तैयारी ज़मीन पर नजऱ नहीं आती. सामुदायिक भवन में एक सुलभ शौचालय था, जिसे ‘सुलभ शौचालय’ संस्था चलाती थी. वह ईमारत जज़ऱ्र हो चुकी है, कभी भी गिर सकती है, कोई भयानक हादसा होने का इन्तेज़ार कर रहा है. इसके साथ ही, दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम ने, बिजली का बिल ना भरा जाने के कारण, उसकी बिजली की आपूर्ति काट दी. इसके बाद सुलभ शौचालय संस्था वहाँ से हट गई.

अब वह स्थान इतना गन्दा है, कि उसके पास भी नहीं जाया जा सकता. शौचालय की व्यवस्था करने के नाम पर नगर निगम ने, जो दो डिब्बे वहाँ खड़े किए हैं, उनके दरवाज़े तक नहीं खुलते और ना वहाँ पानी का कोई इन्तेजाम है. ‘शौचालय में पानी ना हो तो वह ना होने से भी खतरनाक हो जाता है’, ये पाठ भी फरीदाबाद के लोगों को प्रशासन को पढाना पड़ेगा. सामुदायिक भवन का शौचालय ही खंडर नहीं हुआ है, खुद सामुदायिक भवन भी भूतहा बिल्डिंग जैसा नजऱ आता है!! कोई देखभाल नहीं, कोई मरम्मत नहीं, कहीं कोई साफ-सफ़ाई नहीं, पंखे नहीं, बिजली के तार उखड़े पड़े हैं, टूटे बल्व व ट्यूब लाइट ‘अमृत काल’ की हकीक़त बयान कर रहे हैं. अच्छी तरह और तत्काल मरम्मत नहीं हुई तो वह सामुदायिक भवन भी गिर सकता है, जहाँ कुछ भले लोग अपने खर्च से मज़दूरों के बच्चों को पढ़ाते हैं. आज़ाद नगर मज़दूर बस्ती, चीखकर मांग कर रही है; गुडिय़ा को न्याय दो, बलात्कारी हत्यारों को गिरफ्तार कर कठोरतम दण्ड दिलाओ. पीडि़त परिवार को 8 लाख रु कि मदद तुरंत दी जाए, क्योंकि भूख, फाइल मंज़ूर होने का इन्तेज़ार नहीं करती. चन्द्रिका प्रसाद सामुदायिक केंद्र का सम्पूर्ण जीर्णोद्धार किया जाए, नियमित साफ-सफाई हो. वहाँ मौजूद खँडहर हो चुके सार्वजनिक शौचालय को तोडक़र एक विशाल, बहु मंजि़ला सुलभ शौचालय बनाया जाए, जिसके देख-रेख की जि़म्मेदारी नगर निगम की हो. कम से कम दो सुलभ शौचालय और बनें. एक सरकारी स्कूल, डिस्पेंसरी बने. रेलवे/ नगर निगम द्वारा ज़ारी तोड़-फोड़ के नोटिस वापस लिए जाएँ, सडकों की मरम्मत हो, सीवर की व्यवस्था हो.

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Mazdoor Morcha
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